Thursday, December 31, 2009


अब मैं उजड़ गया हूं..
साख से बिखर गया हूं
तीतर-बितर हो गया हूं...
चाहता हूं पा लू वो हौसला एक बार फिर से
जिसे कहीं दूर खुद दफन कर चुका हूं।।

मुझे याद है, वो हवन के मंत्र- जाप अभी भी
जब मैने अपने सारे धूप-कपूर स्वाहा कर दिए थे
उस अग्निकुंड में...
मैं उस राख को भभूति बना माथे पर लगाना चाहता हूं।।

ढूंढता फिर रहा हूं पैरों के निशान..इन सूखे पत्तों पर..
जिनके गिलेपन से गुजरा था रहगुजर बनकर
मैं फिर से उस दुत्कारे हुए मंजिल को पाना चाहता हूं।।

Wednesday, December 16, 2009

तात्कालिक स्वार्थ बनाम जलवायु संकट

आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्लाइमेट चेंज पर बैठक में हिस्सा लेने के लिए कोपेनहेगेन रवाना हो रहे हैं। हालांकि प्रधानमंत्री कोपेनहेगन जा तो ज़रूर रहे हैं लेकिन जानकारों के मुताबिक बैठक की सफलता पर सवालिया निशान जस का तस बना रहेगा। पर्यावरण संकट के इस सम्मेलन में शामिल राष्ट्र इसे एक पॉलिटिकल मुद्दा बनाकर चल रहे हैं। लिहाजा इस सम्मेलन का कोई सकारात्मक हल नहीं निकल पा रहा। विकसित देश जलवायु संबंधी सारे गिले-सिकवे विकासशील देशों पर थोप रहे हैं। जो शर्त विकसित देश विकासशील देशों पर लागू करने की जिद ठाने हैं..उन्हें वे खुद के ऊपर लागू करना ही नहीं चाहते । भारत और चीन सरीखे विकासशील देशों पर ये दबाव बनाया जा रहा है कि वे कार्बन कटौती के लिए कानूनी तौर पर हस्ताक्षर करें ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी जांच होती रहे। विकसित देशों का सौतेला व्यवहार भारत और चीन को रास नहीं आ रहा। जिसके चलते सम्मेलन के असफल होने की गुंजाइश कहीं अधिक बढ़ गई है। मूलत: देखा जाए तो विकसित देश विकासशील देशों की अपेक्षा इस बैठक के नाकाम होने में सबसे बड़ा किरदार निभा रहे हैं। पृथ्वी महाविनाश के तरफ अग्रसर है। एक लंबे समय से पर्यावरण के जानकार गला फाड़कर चिल्ला रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्लेसियर पिघल रहे हैं और सागरों का पानी बढ़ता जा रहा है। हालात इस मोड़ पर आ पहुंचे हैं कि द्वीपों के डूबने का खचरा मडराने लगा है। ग्लोबल वॉर्मिंग का असर आज हर कोई अपने आस-पड़ोस में देख सकता है। कुछ ही दिनों पहले एक विश्वसनीय समाचार चैनल पर ख़बर देख रहा था जिसमें एक फुटेज में दिखाया गया कि कैसे ग्लेशियर में रहने वाला भालू आज अपने ही बच्चे को खाकर भूख मिटाने के लिए बाध्य है। कहीं ऐसा ना हो कि ये सिर्फ ध्रुवीय भालुओं की हालत आगे चलकर पूरे विश्व के जानवरों की आप बीती बन जाए और कहीं इंसान की भी नहीं। अगर दुनिया की सरकारों की बात छोड़ दें तो आम नागरिक, एक आम शहरी कार्बन एमिशन में अहम भूमिका अदा करता है। छोटी सी दूरी के लिए लोग गाड़ियों का प्रयोग करते हैं। बेतरतीब गीजर और एसी का इस्तेमाल करते हैं। बहरहाल इलक्ट्रॉनिक साजो-सामान बड़े पैमाने पर कार्बन पुट प्रिंट छोड़ रहे हैं। अब ऐसी हालत में वातावरण गर्म रहेगा ही। ग्लेसियर पिघलेंगे ही और बेमौसम आम के फल डालियों में लगेंगे ही।
पृथ्वी महाविनाश के तरफ अग्रसर है लेकिन विकास की आकाश गंगा बना चुके देश अपनी आंखे मूंदे हुए है। कोपेनहेगन में दुनिया भर से लोग पर्यावरण को बचाने की मुहीम लेकर पहुंचे हुए हैं। आए दिन रैलियां निकाली जा रही हैं। आए दिन पुलिस और प्रदर्शनकारियों में झड़पें हो रही है। कोपेनहेगन में एक तरफ लोगों का हूजूम है जो पर्यावरण को हर हालत में बचाने की मांग कर रहा है वही दूसरी तरफ उन राष्ट्रों का समूह है जो पर्यावरण समस्या को दरकिनार कर तात्कालिक स्वार्थ के तरफ ध्यान दे रहे हैं।

Sunday, December 13, 2009

पीएम भी पिटता है!

पीएम भी पिटता है। ये बात मैं आज ही जान पाया हूं। आज ही टीवी पर देखा कि इटली के प्रधानमंत्री सीलिवियो बर्लुस्कॉनी एक रैली में ऐसे पिटे की उनके जबड़े हिल गए। जनाब जबड़े ही नहीं बल्कि उनको दो दांत भी टूट गए और बेचारे पीएम साहब लहूलुहान हो गए। उनको मारने वाले कोई बीस पच्चीस भी नहीं थे। महज एक शख्स था। उस शख्स ने ऐसा घूसा जमाया कि पीएम बर्लुस्कॉनी दो दांत कड़ाक से टूट गए। लेकिन वो जो भी शख्स है..मानना पड़ेगा। ज़रूर ही उसका हाथ ढाई किलो वाला होगा। तभी तो महज एक शॉट और पीएम लहूलुहान। वैसे महामहीम बर्लुस्कॉनी मीडिया में अक्सर अपने विवादित बातों के लिए जाने जाते हैं। आए ना आए दिन कोई ऐसी बात कह देते हैं जो मीडिया कि सुर्खियां बन जाती हैं। लेकिन पहले वो अपनी बातों से चर्चा में रहते थे अब पिटाई के चलते उनका हाल चर्चा-ए-आम है।
भाई अब इस इंसानी जहन में कुलेली मची हुई है। क्या कारण रहा होगा कि कोई शख्स पीएम साहब की ही धुनाई कर दिया। वो भी खूनी धुनाई। क्या पीएम साहब उसके बारे में भी कुछ अंट-शंट बोले थे? या फिर पीटने वाला शख्स देशभक्ति के इमोशन में आके घूसा जड़ दिया हो। क्या पता कोई गुप्त घोटाले का पता चल गया हो। हो सकता है पीएम साहब कोई दुर्व्यवहार कर बैठे हों। तभी जनता के बीच गए पिट गए। आखिरकार लोकतंत्र जनता का ही तो शासन है। लेकिन एक और चीज खटक रही है। सुन रखा हूं कि वेस्ट की सुरक्षा व्यवस्था बड़ी ही चाक-चौबंद है। फिर कैसे पीएम साहब की पिटाई हो गई? इससे अच्छा तो हमारे देश की सुरक्षा व्यवस्था है। मधु कोड़ा सरीखे न जाने कितने नेता जनता के कोप से दूर हैं। मंदिर-मस्जिद पर राजनीति करने वाले कितने सुरक्षित हैं। जाति-पात पर राजनीति करने वालों पर मजाल की कोई हवा का झोंका भी असर डाल सके। क्षेत्रवाद की राजनीति करने वालों को प्रशासन कितना प्रोटेक्शन मुहैया करती है। लेकिन एक बात और खटक रही है। कहीं हमारे यहां सिर्फ गुलाम तो पैदा नहीं होते………….

Thursday, December 3, 2009

पहले हम काहें ????

ग्लोबल वार्मिंग पर पूरी दुनियां चिंतित है। सभी को लग रहा है कि अब विश्व खतम होने ही वाला है। जिस तरह की भयावह स्थिति पैदा की जा रही है उससे हर कोई सकते में है। हॉलीवुड ने तो बकायदा फिल्म बना दिया है। 2012 नाम से शायद। जिसमें पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग के चलते डूब जाती है। इस फिल्म के देखने के बाद कुछ बच्चे तो यहां तक पूछ दिए कि क्या सच में दुनिया साल 2012 में खतम हो जएगी? उनकी आंखों में साफ-साफ भय के बादल तैर रहे थे। शायद पूरी दुनिया के सारे देश ग्लोबल वार्मिंग से होने वाली विभिषिका को उसी नज़रिये से भांप गए हैं। यही वजह है कि दुनिया के तमाम देश कोपेनहेगन में इस मसले पर ठोस कदम उठाने के लिए 7 दिसंबर को बैठक कर रहे हैं। इसमें सबसे अधिक फीक्रमंद विकसित देश दिखाई दे रहे हैं। वहीं विकासशील देश पशोपेश में हैं। हाल ही में तो उनके विकास की रफ्तार पटरी पर आई थी तभी ग्लोबल वार्मिंग का हवाला देकर वे अपने विकास की रफ्तार को क्यों रोक दें। लेकिन दूसरी तरफ अपने विकास का फूल पैरामीटर हांसिल कर चूके विकसित देशों का फिकराना रवैया भी विकासशील देशों को तंग किए जा रहा है।
कोपेनहेगन में होने वाली बैठक से पहले ही भारत ने अपना रुख साफ कर दिया है। और यकीनन ऐसा होना भी चाहिए था। क्योंकि विकासशील देशों को अपना शाख बचाने का यही एक मौका है कि वो खुलकर सामने आएं और जवाब मांगे कि जब वो अभी विकास की राह पर हैं तो उनसे क्यों ग्लोबल वार्मिंग का चंदा मांगा जा रहा है। डोनेशन तो उसे देना चाहिए जो पहले ही प्राकृतिक संसाधनों का जमकर इस्तेमाल कर चुका है और अपने को विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा कर लिया है। भारत सरीखे तमाम विकासशील देश तो अभी डेवलेपमेंट के लकीर पर चलना शुरू किए हैं फिर विकसित देश अपनी करतूत इन देशों पर क्यों लाद रहे हैं? भारत के असल में ये सवाल अमेरिका सरीखे विकसित देशों से पहले पूछना चाहिए। ये क्या मतलब बनता है? गलती कोई और करे और भरे कोई और।
ऐसा भी नहीं कि भारत को पर्यावरण जैसी समस्याओं को नजरअंदाज कर दिया जाए। कार्बन-उत्सर्जन के साथ-साथ भारत के सामने कई ऐसी चुनौतियां हैं जिससे उसे पहले निपटना चाहिए। मसलन शहरों की गंदगी। लगातार हो रहे वनों का नाश। हमारा भारत इन प्राथमिकताओं से कोसो दूर है। लगातार वनों की कटाई हो रही है। एक फारेस्ट ऑफिसर नौकरी में रहते-रहते ही करोड़ों का मकान खड़ा कर लेता है। पूंजी बना लेता है। ये सब कैसे होता है, ये बात सभी जानते हैं। एक आंकड़े के मुताबिक किसी भी देश के उसके पूरे क्षेत्रफल के कम से कम 40 फिसदी हिस्से में वनों का विस्तर होना चाहिए लेकिन दुख है कि भारत में मात्र लगभग 19 फीसदी हिस्से में ही जंगल हैं। मेरा खुद का मानना है कि हमे विकसित देशों से ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण पर डिबेट करने से पहले अपने देश के भीतर बेसिक पर्यावरण समस्याओं पर पहल करनी चाहिए। संसद में पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश जी ने मानसून का ऐसे जिक्र किया मानों विश्व स्तर पर पर्यावरण में होने वाली उठापटक ही केवल इसके बदलाव का कारण है। आरे, साहब आप कितना नुकसान किए हैं जंगलों का, पेड़-पौधों का ये भी तो देखें। आज इस देश के क्षेत्रफल का 25 फीसदी हिस्सा भी जंगलों से नहीं भरा है। ऐसे में अगर जयराम रमेश जी कहें की मानसून ने अपना रुख बदल लिया है। तो क्या मानसून प्राशांत महासागर से उठकर आता है।
पर्यावरण पर भारत को दो स्तर पर पहल करनी होगी। एक तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और दूसरा राष्ट्रीय स्तर पर। चूंकि पर्यावरण पर अंतर्राष्ट्रीय माहौल डिप्लोमेटिक हो चला है। इसलिए भारत को इस मामले में डिप्लोमेटिक ट्रिटमेंट लेकर ही चलना होगा। लेकिन जहां तक बात राष्ट्रीय स्तर की है तो बदलते मौसम का मिजाज दुरुस्त करने के लिए यहां प्राकृतिक माहौल को और ज्यादा बल और स्ट्रांग विजिलेंस मुहैया कराने की ज़रूरत है। तब जाकर हम विकास के साथ-साथ अपने प्राकृति के साथ छेड़-छाड़ में भी कम योगदान करेंगे।
अगर भारत ने 2020 तक एमिशन-इटेंसिटी में 20 से 25 फीसदी तक कटौती की बात कहा है तो दूसरी तरफ उसे जंगलों और प्राकृतिक श्रोतों को भी बढ़ावा देने के प्रति प्रतिबद्ध होना होगा। तभी वह विकसित देशों के सामने बल पूर्वक कह सकेगा कि उनकी मर्जी भारत पर नहीं थोपी जा सकेगी।
बहरहाल मैं जिस एंगल पर विचार रखने वाला था उससे भटक गया हूं लेकिन क्या करें दूसरे को धकियाने से पहले खुद आस-पास स्पेस पहले तो बनाना ही पड़ेगा। लिहाजा भारत को कोपेनहेगन में अपना स्टैंड रखने के साथ-साथ आतंरिक स्तर पर भी पर्यावरण के दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। मेरा कहने का मतलब साफ है कि हम खुद को विकसित देशों की कतार में खड़ा होने के लिए अपने सयंत्रों का प्रयोग तो करे ही साथ ही प्राकृतिक संसाधनों और साफ-सफाई पर भी उतना ही ध्यान दे। इसके लिए भारतीय जनता को भी क्रांतिकारी पहल करनी होगी। आम शहरी और ग्रामीण को छोटी-छोटी बातों का ध्यान देना होगा। ताकि कहीं भी ये लिखा दिखाई न पड़े कि देखो ‘गदहा मूत रह है/? या फिर ‘डोंट स्पाइट”, सेव इलेक्ट्रसिटी, सेव वाटर ..ब्ला..ब्ला जैसी सूक्तियां नज़र न आएं।

Thursday, October 22, 2009

मेरा सबेरा कहां है?

शायद मैं नहीं ठहरा था तुम्हारे बातों पर..
जो शीतकाल की धुंध थी.
अधिक थीं अपार थीं...
शायद कुछ दिनों तक मैं वो धुंध ही देखता रहा
अब नज़रे तब्दील हो चुकी हैं..
धुंध से अब छंटा दिख रही है।
उबासी लेते हुए..लजाते हुए
ओस से नहाये हुए सुबह देख रहा हूं...
कुछ धुंधला.....कुछ ठंठा सा

ना जाने कितने दिन हुए ओस से नहाए हुए सुबह को देखे। नाइट लाइफ की जिंदगी कब अहम हिस्सा बन गई, पता ही नहीं चला। रात की शिफ्ट...रात की आवारगी...और रात का विरानापन। स्ट्रीट लाइट की लालीमा....दुधिया रौशनी में नहाईं सड़के अक्सर मेरे से बातचीत कर लेती हैं। जब कभी जिक्र करता हूं...सुबह की छंटा के बारे में। उसकी प्रकृतिक सौंदर्य के बारे में। शहरों की रातों को मेरी बातें बोरिंग लगती हैं। लेकिन शहरों की रातें क्या जाने कि रात का मतलब। यहां पर बस चुके हमारे आप जैसे क्या समझेंगे क्षितिज से फूंटते सूरज की बेचैनी। बात सिर्फ सबेरा का नहीं है। बात रात की भी है। क्योंकि सबेरा तब और प्यारा लगता है जब काली रात कुंडली मारकर बैठ चुकी हो। रात में झिंगूरों की आवाजें तो न जाने सुने हुए कितने दिन हो गए। भोर की अल्लहड़ हवाएं जो पूरे बदन को सिहरा देती थीं। वो अब कहां? रात में ठकाठक नान स्टाप काम। कभी शाम की शिफ्ट तो कभी मार्निंग की। सोचता हूं किस चीज के पीछे भागते हुए दिल्ली पहुंच गया हूं। जिंदगी शिफ्टों में और किश्तों में बच के रह गई है। धत्....।%%%%@@@@##

Tuesday, August 18, 2009

जाली नोट और भारत

फेक करेंसी का मामला दिनों दिन तूल पकड़ता जा रहा है। भारत को एक अलग तरह के आतंकवाद से जूझना पड़ रहा है। जी हां भारत के सामने एक और चुनौती सामने आन पड़ी है। जिसे आर्थिक आतंकवाद कहा जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं की समय रहते इस नासूर का इलाज किया जा सकता था लेकिन भारतीय सरकारें इसे उतने गंभीरता से नहीं ली जितनी की लेनी चाहिए थी। लिहाजा जाली नटों का कारोबार अपना पैर पसारता गया। पाकिस्तान से जन्मा यह धंधा अब लगभग भारत के सभी पड़ोसी देशों में फल-फूल रहा है। इसका एक मात्र कारण है भारत की लचर विदेश नीति। आज बाग्लादेश, नेपाल, म्यामांर हमारे विरुद्ध कई प्रकार की ऐसी गतिविधियां चला रहे हैं जो किसी भी मायने में भारत की सेहत के लिए अच्छी नहीं। आईएसआई की कारस्तानी अब नेपाल में खूब फल फूल रही है। लिहाजा भारत की इस पर चिंता लाजमी है। क्योंकि नेपाल भी अब चीन के गोद में जा बैठा है। आज नेपाल खा रहा है भारत का और गुणगान कर रहा है चीन का। फलत: ऐसे में नेपाल से यह आशा करना कि वह जाली नोटों के धंधे और तमाम बाकी एंटी इंडियन मुहीम को खतम करने की कोशिश करेगा यह बात पूरी तरह से बेमानी होगी।
वहीं बात करें आईएसआई की तो उसे सह ना सिर्फ पाकिस्तान से मिल रहा है बल्कि उसका नेटवर्क यूरोप तक भी जा पहुंचा जहां से भारत नोटों की छपाई के लिए स्याही खरीदता था, वही स्याही आईएसआई ने खरीदना शुरू किया और हू हबू से दिखने वाले नोटों की छपाई कर भारतीय बाजार में धड़ल्ले से फैलाने लगा। आज देश के हर मोहल्ले से जाली नोटों की शिकायते मिल रही हैं।
इन नोटों को भारत के ही रहने वाले एजेंटों के हवाले से मार्केट में फैलाया जाता है। इन एजेंटो को यह नोट कुछ पैसे देकर खरीदने पड़ते हैं। मसलन आज कल मार्केट में 500 की एक नकली नोट खरीदने के लिए एजेंटों को 300 रुपये देने पड़ते हैं। यानी 500 के नोट पर दो सौ के मुनाफे के लिए ये कीट-पतंगे पूरी अर्थव्यवस्था को चाट रहे हैं। इस धंधे में पुरूष ही नहीं बल्कि महीलाओं की भी भागीदारी अधिक है। अभी हाल भी में हरियाणा के पानीपत से एक महीला को पुलिस ने गिरफ्तार किया और उसके पास से 2 लाख के नकली नोट बरामद किए। दूसरी अन्य घटना में चंडीगढ़ पुलिस ने अमृतसर में एक महीला के घर पर छापा मारकर वहां से भी 2 लाख के नकली नोट बरामद किए। गिरफ्तार महिला जाली नोटों का यह कारोबार अमृतसर से ही नहीं बल्की पंजाब के अन्य दूसरे शहरों तक फैला के रखी थी।
जब यह ममला संगीन हो चुका है तब भारत सरकार की आंख खुली है। वैसे तो आंख बहुत पहले से खुली थी लेकिन सरकारें सोने का बहाना कर रही थीं। एक कहावत है कि सोये हुए को जगाया जा सकता है। झूठी नींद वालों को कभी भी नही जगाया जा सकता है। ऐसा ही भारत की शिथिल सरकारों ने किया है। मामले के अंजाम को नहीं भांप सकी और निरुपाय हाथ पे हाथ धरे बैठी रहीं। कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बना जिसके तहत अर्थव्यवस्था के इस दीमक का सफाया किया जा सके। और अब जब आर्थिक मंदी का हाहाकार मचा हुआ है तब हर तरफ फेक करेंसी...जाली नोट की चिल्लम-चिल्ला हो रही है।
वर्तमान परिदृश्य में हम अपने सभी पड़ोसी देशों पर ऐतबार नहीं कर सकते की वे आईएसआई द्वारा संचालित नकली नोटों के इस कारोबार पर लगाम लगाएंगे। क्य़ोंकि रह-रह कर बांग्लादेश जिस तरह से हमरी बातों को अनसुना करता आया है। जिस तरह से नेपाल का चीन राग थमने का नाम नहीं ले रहा, वैसे में स्पष्ट रवैया के गुंजाइश का सवाल ही नही उठता है और पाकिस्तान में स्थित इस कारोबार को बंद कराना तो एक कोरा सपना ही होगा। ऐसे में भारत को दूरगामी उपाय के बारे में सोचने की आवश्यक्ता है। वैसे अगर भारतीय प्रायद्वीप में सेम करेंसी की व्यवस्था लागू कर दी जाय जैसे यूरोप में यह व्यवस्था तो इस नकली नोटों से पार पाया जा सकता है। क्य़ोंकि अगर भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका में एक ही करेंसी होगी तो सभी साझा रूप से जाली नोटों के कारोबार को खत्म करने पर तत्पर हो जाएंगे। इसके लिए भारत को अपनी कूटनीति को मजबूत और निडर बनानी होगी। घूटने टेकने से काम नहीं चलेगा।
फेक करेंसी का मामला दिनों दिन तूल पकड़ता जा रहा है। भारत को एक अलग तरह के आतंकवाद से जूझना पड़ रहा है। जी हां भारत के सामने एक और चुनौती सामने आन पड़ी है। जिसे आर्थिक आतंकवाद कहा जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं की समय रहते इस नासूर का इलाज किया जा सकता था लेकिन भारतीय सरकारें इसे उतने गंभीरता से नहीं ली जितनी की लेनी चाहिए थी। लिहाजा यह अपना पैर पसारता गया। पाकिस्तान से जन्मा यह धंधा अब लगभग भारत के सभी पड़ोसी देशों में फल-फूल रहा है। इसका एक मात्र कारण है भारत की लचर विदेश नीति। आज बाग्लादेश, नेपाल, म्यामांर हमारे विरुद्ध कई प्रकार की ऐसी गतिविधियां चला रहे हैं जो किसी भी मायने में भारत की सेहत के लिए अच्छी नहीं। आईएसआई की कारस्तानी अब नेपाल में खूब फल फूल रही है। लिहाजा भारत की इस पर चिंता लाजमी है। क्योंकि नेपाल भी अब चीन के गोद में जा बैठा है। आज नेपाल खा रहा है भारत का और गुणगान कर रहा है चीन का। फलत: ऐसे में नेपाल से यह आशा करना कि वह जाली नोटों के धंधे और तमाम बाकी एंटी इंडियन मुहीम को खतम करने की कोशिश करेगा। यह बात पूरी तरह से बेमानी होगी।
वहीं बात करें आईएसआई की तो उसे सह ना सिर्फ पाकिस्तान से मिल रहा है बल्कि उसका नेटवर्क यूरोप तक भी जा पहुंचा जहां से भारत नोटों की छपाई के लिए स्याही खरीदता था। वहीं स्याही आईएसआई ने खरीदना शुरू किया और हू हबू से दिखने वाले नोटों की छपाई कर नोटों को भारतीय बाजार में धड़ल्ले से फैलाने लगा। आज देश के हर मोहल्ले से जाली नोटों की शिकायते मिल रही हैं।
इन नोटों को भारत के ही रहने वाले एजेंटों के हवाले से मार्केट में फैलाया जाता है। इन एजेंटो को यह नोट कुछ पैसे देकर खरीदने पड़ते हैं। मसलन आज कल मार्केट में 500 की एक नकली नोट खरीदने के लिए एजेंटों को 300 रुपये देने पड़ते हैं। यानी 500 के नोट पर दो सौ के मुनाफे के लिए ये कीट-पतंगे पूरी अर्थव्यवस्था को चाट रहे हैं। इस धंधे में पुरूष ही नहीं बल्कि महीलाओं की भी भागीदारी अधिक है। अभी हाल भी में हरियाणा के पानीपत से एक महीला को पुलिस ने गिरफ्तार किया और उसके पास से 2 लाख के नकली नोट बरामद किए। दूसरी अन्य घटना में चंडीगढ़ पुलिस ने अमृतसर में एक महीला के घर पर छापा मारकर वहां से भी 2 लाख के नकली नोट बरामद किए। गिरफ्तार महिला जाली नोटों का यह कारोबार अमृतसर से ही नहीं बल्की पंजाब के अन्य दूसरे शहरों तक फैला के रखी थी।
जब यह ममला संगीन हो चुका है तब भारत सरकार की आंख खुली है। वैसे तो आंख बहुत पहले से खुली थी लेकिन सरकारें सोने का बहाना कर रही थीं। एक कहावत है कि सोये हुए को जगाया जा सकता है। झूठी नींद वालों को कभी भी नही जगाया जा सकता है। ऐसा ही भारत की शिथिल सरकारों ने किया है। मामले के अंजाम को नहीं भांप सकी और निरुपाय हाथ पे हाथ धरे बैठी रहीं। कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बना जिसके तहत अर्थव्यवस्था के इस दीमक का सफाया किया जा सके। और अब जब आर्थिक मंदी का हाहाकार मचा हुआ है तब हर तरफ फेक करेंसी...जाली नोट की चिल्लम-चिल्ला हो रही है।
वर्तमान परिदृश्य में हम अपने सभी पड़ोसी देशों पर ऐतबार नहीं कर सकते की वे आईएसआई द्वारा संचालित नकली नोटों के इस कारोबार पर लगाम लगाएंगे। क्य़ोंकि रह-रह कर बांग्लादेश जिस तरह से हमरी बातों को अनसुना करता आया है। जिस तरह से नेपाल का चीन राग थमने का नाम नहीं ले रहा, वैसे में स्पष्ट रवैया के गुंजाइश का सवाल ही नही उठता है और पाकिस्तान में स्थित इस कारोबार को बंद कराना तो एक कोरा सपना ही होगा। ऐसे में भारत को दूरगामी उपाय के बारे में सोचने की आवश्यक्ता है। वैसे अगर भारतीय प्रायद्वीप में सेम करेंसी की व्यवस्था लागू कर दी जाय जैसे यूरोप में यह व्यवस्था तो इस नकली नोटों से पार पाया जा सकता है। क्य़ोंकि अगर भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका में एक ही करेंसी होगी तो सभी साझा रूप से जाली नोटों के कारोबार को खत्म करने पर तत्पर हो जाएंगे। इसके लिए भारत को अपनी कूटनीति को मजबूत और निडर बनानी होगी। घूटने टेकने से काम नहीं चलेगा।

Wednesday, August 5, 2009

कहीं तो हूं...

नहीं अभी मैंने निश्चय नहीं किया है.. खैर अगर कहे हो तो दो चार अक्षर लिख ही देता हूं...। अर्से से मैं भी सोच रहा था कि कुछ लिखा जाय, शायग ब्लागिंग से मोह भंग हो गई थी. कंप्यूटर के की-बोर्ड की अपेक्षा मेरी कलम और डायरी अच्छी लग रही थी। शायद मैं ब्लागिंग का चरित्र भी उसी तरह बना रखा था.. जैसा कि आज से तीन साल पहले पत्रकारिता की थी। मुर्ख था....हां दोस्त, निहायत ही चु....किसम का आदमी था, जो भोथरी कलम और कपकपाई आवाज़ से इंकलाब लाने की सोचता था। खबरों के शॉपिंग मॉल से विरक्ति भाव ने ब्लॉग को संतुष्टि का माध्यम बनाना चाहा लेकिन पहले से चिन्हित अपेक्षा की रेखाओं तक न पहुंचना भी एक प्रकार से कष्टदायक ही रहा। जबकि सोच रखनी चाहिए थी मात्र अपनी भड़ासों को, अपने हास-परिहास को यहां पर लिख कर कुछ आनंनद बटोरना है। कुछ सुकून लेना है।
दोस्त एक लेखक की बात लिखते वक्त सदा याद आ जाती हैं कि 'किनारे पर बैठकर लहरों को गरियाने से क्या फायदा'। जब कभी भी कुछ लिखना चाहता हूं लगता है किनारों पर बैठ कर लहरों को गरिया रहा हूं। जबकि मन आतुर होता है कि उन लहरों पर खेलूं....अटखेलियां लूं। खूंखार लहरों को चुनौती दूं., शांत लहरों को मन के अंत: तक समाहित कर लूं। कुछ महीने पहले ही एक फिल्म भी आई थी...गुलाल। साहिल लुधियानवी की ही कलम जैसे आगे बढ़ गई थी...' ये शायर के फीके लबों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है। ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।'

Friday, January 30, 2009

मन रे तू काहे ना धीर धरे

बहुत दिनों से सोच रहा था कि कुछ लिखूं पर क्या लिखू इस पर माथापच्ची कुछ अधिक ही थी। ऐसा नही था कि विषयों की कमी थी या फिर भावों की कमी थी। दरअसल होता ऐसा, कि एक ही क्षण में ढेरों भाव उमड़ आते, कई मुद्दे एक साथ मस्तिस्क का फाटक ठकठकाने लगते और समय भी इतना नही रहता कि मैं सबको लिख सकूं। क्योंकि देर रात जब में एक- आध घंटा खाली होता हूं तभी मैं विचारों को लिखने बैठता हूं...बहरहाल इस दरम्यान कई ऐसे मुद्दे आए और लिखने के लिए बेचैन किए। मसलन स्लमडॉग और ऑस्कर रुपी फसल पर अमिताभी वर्षा, मेरे मित्र की शादी और उसकी नई लुगाई, क्राइम ब्रांच और क्राइम शो, गणतंत्र दिवस  इत्यादि इत्यादि। और हां एक महत्वपूर्ण व्यक्ति छूट ही गए। उनको भूलना भी खुद से बेमानी होगी। मेरा इशारा पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी जी की ओर है....दरअसल आडवाणी जी पहुंचे थे एक न्यूज़ चैनल द्वारा आयोजित अवार्ड फंक्शन में, जहां उन्हे लाइफ टाइम एचिवमेंट अवॉर्ड से नवाजा भी गया। अब साहब अवॉर्ड का माहौल था। अकले आडवानी जी थोड़े ही थे। फिल्मी गीत लिखने वाले प्रसून जोशी को भी बेस्ट लीरिसिस्ट का अवॉर्ड मिला। इसी बीच प्रसून द्वारा लिखित गाना बज उठा " मैं कभी बतलाता नहीं पर अंधेरे से डरता हूं मैं मां, भीड़ में यू ना छोड़ों मुझे घर लौटके भी आना पाउंगा" फिर क्या था कैमरा आडवाणी जी पर केंद्रित हो गया। होंठ कपकपा रहे थे आडवाणी जी के, आंखे नम हो रही थीं, चेहरे का भाव गहराता जा रहा था। शायद हमारे आडवाणी जी को अपनी मां याद आ गई थीं।
पब्लिक भी बड़ी घनचक्कर चीज है। कहां तक उनके रोने पर लोग कुछ भावपूर्ण विचार व्यक्त करते, उल्टा प्रश्न वाचक और विस्मियादि वोधकपूर्ण विचारों से माहौल को पाट दिया। कहीं पर लोगों द्वारा ही सुना " अरे, लोकसभा चुनाव आ रहा है, हर चीज का ट्रेंड बदल गया है मार्केटिंग का जमाना है। आज अपने ऑर्गनाइजेशन की मार्केटिंग करने से पहले खुद की मार्केटिंग करनी पड़ती है । आडवाणी जी लोकसभा के लिए खुद की मार्केटिंग कर रहे हैं। सब पब्लिसीटी का फंडा है।" बेवकूफ लोग! भाई मुझे तो बड़ी तकलीफ हुई। आज ही थोड़े अपने आडवाणी जी इस तिकड़म में पहले से ही माहिर हैं। कहां भाजपा की लोकसभा सीटें इकाई में होती थीं। जब से 'जय श्रीराम कमल निशान' का नारा दिया, धड़ से सीटों की गिनती दहाई में पहुंच गई। और न और, बिना जाने बूझे लोग बात करते हैं पब्लिसीटी की।
उफ़्फ! क्या जमाना आ गया है। हमारे आडवाणी जी पब्लिक प्लेस में अपने ह्रदय के भाव भी नही व्यक्त कर सकते हैं। सबको अपनी भावनाओं को प्रदर्शित करने का अधिकार है। आखिरकार मनुष्य एक भावुक प्राणी है। और वैसे भी भावुकता की उनकी यह पहली मिसाल थोड़े ही है इससे पहले भी हिंदुत्व की रथयात्रा करते-करते पाकिस्तानी मज़ार पर अपना श्रद्धा सुमन अर्पित कर चुके हैं। अब दुनिया लाख बवाल मचाए तो मचाए। राजनीति के सियार गला फाड़ कर हुंआ-हुंआ करे तो करे। अरे कितना भी है तो भाव है, भाव को मस्तिस्क द्वारा थोड़े ही ट्रिट किया जा सकता है। ये अलग बात है कि भावाभिव्यक्ति कर देने के थोड़े ही देर बाद हमारे माननीय पीएम इन वेटिंग मस्तिस्काभिव्यक्ति कर बैठते हैं। और पब्लिक अभी तीर-तुक्का करती ही है कि.....नया भाव कूंलाचे मार ही देता है। मन रे तू कहा ना धीर धरे....मुआ मन जो ना सो कराए, अब पब्लिक 'पीएम इन वेटिंग' साहब को हलके में लेना शुरू कर दी है। सबसे पहले तो इन मीडिया वालों को ही लिजिए...समारोह में आमंत्रित करते हैं, फलान-ठेकान अवार्ड से नवाजते हैं और माननीय पीएम इन वेटिंग साहब पर खबर भी बना देते हैं।। मुझे तो डर था कहीं मीडिया वाले लोगों से sms मंगाना शुरू न कर दे, कि बताएं 'आडवाणी जी के आंसू नकली थे या असली' या फिर किसी स्व अनुशासित चैनल द्वारा दर्शकों की राय मांगी जाय कि " आडवाणी के आंसू---(a) नकली थे (b) असली थे (c) लोगों की संवेदना हांसिल करने का तरीका (d) मां वाला गीत सुनकर रुलाई आना स्वभाविक है
शुक्र है कि किसी ने ऐसा दुस्साहस नही किया। एक तो पहले से ही ब्ला ब्ला एक्ट बनाने की कवायद जोर शोर से चल रही है। लेकिन एक ज़रूर बात कहूंगा आडवाणी साहब की लोकप्रियता गिराने में कंबख्त मीडिया ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है, जब ना तब ले दे के हलकी ख़बर बना देती है। आज-कल उनकी खबरे एक बुलेटिन से दूसरे बुलेटिन तक ही सिमट कर रह गई हैं और उनके सामने ही उनकी पार्टी में राजनीति का ककहरा पढ़ने वालों की न्यूज़ दो-दो दिन तक अख़बारों और टीवी की सुर्खियां बनी रहती हैं। और ना तो और पता नही किस खुराफाती ने 'पीएम इन वेटिंग' नाम दे दिया। अब तो हर अखबार में, ख़बरिया चैनलों में नाम से पहले 'पीएम इन वेटिंग' लगाया जा रहा है। अब तो लगता है कि जनता कहीं
लालकृष्ण आडवाणी का नाम भूलकर सिर्फ पीएम इन वेटिंग ही याद न रखे। कहीं आगामी चुनाव में कार्यकर्ता 'आडवाणी जिंदाबाद' की जगह 'पीएम इन वेटिंग' जिंदाबाद नही करने लगे। अब तो ऐसा लगता है जीवन के अंत समय में कहीं पीएम इन वेटिंग बनकर ही नही रह जायें। दूसरों से तो खैर निपट भी लेते लेकिन मोदीवाद की बयार और राजनाथी पछुआ ने तो तूल मचा के रख दिया है। प्रभु इतनी सारी परेशानियां, इतने सारे मुदई। अब मां की याद तो आएगी ही....और याद आएंगी तो आंसू का छलकना लाजिमी है। हाय! मन रे तू काहे नही धीर धरे......

Thursday, January 15, 2009

कितना दूर.. है बचपन

मैं और मेरा दोस्त आदर्श दोनों ऑफिस के लिए निकले हुए थे चूकी रोज की तरह आज भी हम लोग लेट हो गए थे। कहने का मतलब यह नही कि हम लेट-लतीफे लोगों में से हैं बहरहाल एक गाने की लाइन याद आती है..कि .."मेरे जागने से पहले हाय रे मेरी किस्तमत सो जाती है,..मैं देर करता नहीं देर हो जाती है". जी यही सीन कम से कम मेरे साथ ज़रूर ही हो जाती है। खैर, हम लोग आगे बढ़ रहे थे तेज कदमों से। मुझे बस एक चीज ही दिखाई दे रहा था वो था मेरा ऑफिस...मन एक ही बात सोच रहा था कि कॉलेज से निकलते ही आर्थिक मंदी के इस दौर में नौकरी लगी है, और यही हालत रही तो टर्मिनेशन लेटर मिलने में देर नहीं है..। बस मस्तिस्क में ढेरों चिंतायें घुमड़ रहीं थी और कदम तेजी से बस स्टॉप के् तरफ बढ़े चले जा रहे थे। चलते-चलते सहसा आदर्श बोला, " अरे वो देखो गिलहरी.। वाह! क्या उछलकूद कर रही है। अहा..देखों ना कैसे घुचक-घुचक कर चल रही है.।" फिक्र के बादलों से मैंने देखा और बामुश्किलन एक पल का समय लगा होगा मेरी आंखों को नज़र मिल गई थी। वो नज़र जिससे मैं अपने बचपन के दिन को महसूस कर सकता था। सड़क पर गाड़ियों के शोरगुल विलुप्त हो चुके थे क्योंकि अब मेरा मन मेरे गांव में चला गया था। खेतों में, आम के बागिचों में, जिससे होकर मैं स्कूल जाया करता था।.मेरे घर के सामने अमरूद और आम के पेड़ जिसपे ढेरों चिड़ियों और गिलहरियों का बसेरा होता था।। उनकी हर गतिविधि को ध्यान से देखा करता था। और कई दफे हम और मेरे भईया इनको पकड़ने के प्लान बनाया करते। नंदन पंत्रिका को उनके बीच पढ़ता तो एक विचित्र सा अनुभव करता..मानों गांव के लोग हट गए है देवीलाल खरगोश लाल हो गए है..। रामनाथ बाबा की जगह भालू बाबा हो गए हैं, और गिलहरियों के झूंड तो मेरे साथी हो गए हैं अब मैं 'सोबई बांध' गांव में नही बल्की 'नंदन वन' में रहता हूं
फिर कई घंटे कोर्स की किताबों को दूर रख कल्पनाओं के आगोश पड़े-पड़े सो जाता था ।
ठीक मेरे गांव के गिलहरी जैसी थी वह गिलहरी जिसे आदर्श बड़े ही कौतुहल से दिखाया था..। उसकी चाल, उसकी हरकतें वैसी ही थीं जैसे मेरे घर के सामने गिलहरियां रहती थी। खुर से पेंड़ से उतरना, एक दम चौकन्ना होकर और जैसे ही कोई आहट पाए फट से उपर पेड़ पर चढ़ जाना। हर उछलकूद और रूक कर झ़टके से पलटकर देखना मानों हमें चिढ़ा रही हों "आबे दम है तो पकड़ के दिखा ना"। वह गिलहरी मेरे गांव की लग रही थी। मेरे घर सी लगा रही थी, हूं बहू वही लग रही थी। गिलहरी ही तो थी जब हम आम के दिनों में मुहल्ले के दोस्तों के साथ बागिचों में जाते थे आम खाते थे...और साथ में गिलहरी भगाओं अभियान चलाते थे। पड़ोस के 'दंतू' भईया गुट में खड़ा होकर चिल्लाते थे। " ये गिलहरिया हमारा आम खा जा रहीं हैं इन्हें यहां से भगाना होगा...आम को आधा खा रहीं है और बिगाड़ दे रही है, कहां पका हुआ आम हम लोग खाते ये सब चख-चखकर बर्बाद कर देती हैं" फिर गिलहरियों को भगाना, तपती दोपहरी में बागीचों में गिलहरियों के पीछे दौड़ना..और जब तक थक नहीं जाते तब तक हू..ले..ले..ले..करते रहना.। गिलहरियां भी पूरे बागिचे को अपना ही सम्राज्य समझती थीं कितना भी भगाओ पेड़ पर चढ़ जातीं और फिर नीचे उतर आतीं और फिर जब हमारा झूंड दैड़ता फिर पेड़ों पर चढ़ जाती.। शायद उन्हे यह खेल जैसा लगता था और हमे भी यह काफी रोचक लगता था।। अब तो रोज का काम हो गया था अब यह पूरी तरह से हमारे लिए और गिलहरियों के लिए खेल बन चूका था। एक दिन ऐसे ही खेल चला और खेल हिंसक बन गया। इस बार हम सबके हाथ में पत्थर थे और गिलहरिया हमेशा बाल-बाल बच रही थीं लेकिन दंतू भईया के हाथ से निकला पत्थर झूंड की एक गिलहरी को अपना शिकार बना बैठा...पत्थर लगते ही गिलहरी तड़फड़ाने लगी.। पहले तो हमलोगों की कोलाहल में कुछ पता नही चला फिर कुछ देर बाद सारे साथी शांत थे। बागीचा शांत हो गया था। गिलहरिया पेड़ों में विलीन हो गई थीं। सभी ने आरोपी ठहराती हुई नज़रों से एक साथ दंतू भईया को घूरे..। दंतू भईया भी पहले बात को हवा में उड़ाने की कोशिश किए और ही..ही..ही..हसकर घटना को कमतर करने का प्रयास करने लगे.। एक ने गिलहरी को को हाथ में उठा कर रख लिया..गिलहरी अभी भी छटपटा रही थी, मन में आ रहा था आह! मर जाए तो ही अच्छा। सभी का ह्रदय करूणा से भर गया था। लेकिन दिल का बोझ उतारने के लिए सभी को एक ही व्यक्ति मिला और वो थे दंतू भईया। हर तरफ से आवाजें उठ रही थीं। " हम लोग थोड़े ही मारे हैं, दंतू भईया मारे हैं। सारा पाप इन्ही पर जाएगा।" मैं भी अपने ग्लानी भरे ह्रदय को कुछ कम करने के लिए सफाई दिया, " मै तो गिलहरियों पर पत्थर नहीं मार रहा था। मैं तो इधर-उधर फेंक रहा था। एक दम गिलहरियों को बचाकर।" फिर किसी ने कहां नहीं जो रुखी (गिलहरी) मारता है, वह दु:खी हो जाता है हमेशा के लिए। हम सब मार रहे थे इसका पाप हम सब पर पड़ेगा.। लेकिन कुछ समझदार लड़को ने कहां" देखो भाई, गिलहरी मारे हैं दंतू भईया, हमें यह करने को कहे दंतू भईया और मारे भी दंतू भईया। इसलिए बड़ा सा पाप दंतू भईया को मिलेगा और जो थोड़ा- थोड़ा पाप हमें मिलेगा उसमें भी दंतू भईया की हिस्सेदारी होगी क्योंकि इन्होंने ही हमें उकसाया था"। अब हम सबको कुछ इतमिनान मिला, चलो दंतू भईया को ढेर सारा पाप मिलेगा और हम सबको थोड़ा-थोड़ा। लेकिन इसी दरम्यान सभी को रोने की कातर आवाज सुनाई दी सबने देखा पीछे दंतू भईया रो रहे थे। दोनों घुटनों में सिर को झुकाए बैठे रो रहे हैं। अब यह देख सभी पाप से मुक्ती पर विचार करना शूरू कर दिए। " दंतू भईया, आप रोईये मत आज के बाद से हम कभी भी गिलहरी नही मारेंगे जहां तक रही बात पाप की तो इस गिलहरी का दाह संस्कार कर देते हैं और भगवानजी से अपनी करतूत के लिए क्षमा मांग लेते हैं।" लगभग सभी की यही प्रितिक्रिया हुई कि गिलहरी का क्रियाकर्म कर दिया जाय और भगवान से मांफी मांग लिया जाय। अब हम सबने छोटी-छोटी लकड़ियों को जोड़ कार अर्थी बनाई और 'दंतू' भईया को आगे वाली लकड़ी पकड़ने को दिया गया। फिर गढ्ढा खोदकर उस गिलहरी को उसमें रख कर मिट्टी डाल दी गई। और उस पर एक बेहाया का फूल भी रख दिए। फिर सब खड़े होकर मौन धारण किए और गिलहरी की आत्मा से और भगवान से मांफी मांगे (दो मिनट का मौन धारण स्कूलों में बहुत बार कराया गया था )। उसके बाद कई दिनों तक उस बागिचे में गए लेकिन अब गिलहरिया हमें देखते ही पेड़ों में गायब हो जाती थीं। उसके बाद कई दिनों तक वहां जाना ही छोड़ दिए.। अब घर की गिलहरियों को पकड़ने का सपना भी मैं छोड़ दिया। बस देखकर एक चीज सोचता वो भी तब, जब मैं स्कूल जाने के लिए निकलता कि मैं गिलहरी क्यों नही हुआ कम से कम स्कूल तो नही जाना पड़ता। तभी भ्रम टूटा मैं गांव से दूर था, बचपन से दूर था, पश्चाताप के अनुभव से दूर था। क्योंकि आदर्श ने मेरा भ्रम तोड़ा, "चलो ऑफिस आ गया उतरते हैं"..।

Saturday, January 10, 2009

किसकी मानसिकता, किसकी पहचान




चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

ब्लांगिग के दुनियां में एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनका हर पोस्ट पढ़ने पर आदमी तरंग बन बहने लगता है। ज्यों-ज्यों पंक्तियों के भाव बनते निकलते जाते हैं त्यों त्यों आदमी तरंग बन उन पंक्तियों के साथ बहता चला जाता है। तरंग के भाव भी अलग-अलग होते हैं। कभी बिल्कुल ही करुण तो कभी हास तो कभी क्षोभ..। तरह-तरह भाव हर पो्स्ट में पढ़ने को मिलते हैं। दरअसल मैं प्रख्यात ब्लॉगर रवीशजी के बारे बात कर रहा हूं। आज उनका नया पोस्ट पढ़ा। फिल्म गजनी पर लिखा था उन्होंने। लेकिन पता नही कब और किस मानसिकता से लिख बैठे थे। वो तो गज़नी देखकर बिलबिला उठे थे, लेकिन पोस्ट पढ़कर मेरे अंदर तरह-तरह के सवाल बिना मतलब के घुमने लगे।
उनका कहीं ना कहीं आक्रोश था कि गज़नी एक हिंसक पटकथा है जो भारतीय मानसिकता को दर्शा रही है। इतिहास की हार को कुंठा बताकर लगे हाथ उन्होंने मस्जिद गिरोने वाली बात भी चेंप दी है। खैर ये सब उनके अपने विचार हैं। लेकिन हिंसा पर जो उन्होंने बात लिखी है शायद ओवर पाजेसिव हो गई है।
शायद कहीं ना कहीं वो हिंसा को लेकर चिंतित हैं, हिंसा क्यों...?????
तो भाई मानव सभ्यता का विकास ही हिंसा से हुआ है. पहले पेट भरने के लिए हिंसा किया, फिर सम्राज्य और फिर मान-अभिमान के लिए। इस बीच और भी कई जरूरत की चीजों के लिए मनुष्य प्रजाति हिंसक होता रहा है। अब जिसकी शुरूआत ही हिंसा से हो उसको आप अंहिसक कैसे बना सकते हैं। कैसे उसके गुंण-धर्म बदल सकते हैं, उसकी प्रकृति को कैसे बदला जा सकता है। शायद ही ऐसा कोई मनुष्य होगा जो गुस्सा नही होता होगा। गुस्सा होना भी तो एक तरह का हिंसा ही है। उस वक्त कहीं ना कहीं हम हिंसक बने रहते हैं ये अलग बात है कि उसका तमाश न दिखाएं। लेकिन प्रवृत्ति तो उभर आई।
दूसरा मुद्दा है सोचिए आपको कोई मारे तो आप चुप-चाप थोड़े ही रहेंगे। गरियायेगा, अपमान करेगा तो क्या सहन होगा? दरअसल सहन करना भी एक प्रकार से अपने अंदर पैदा हो रही हिंसक प्रवृत्ति को रोकना ही है। यानी कहीं ना कही हर किसी में हिंसक प्रवृत्ति थोड़ी या ज्यादा होती ही है।
एक मिनट लिए मान लेते हैं कि भारत और भारतवासी अहिंसक हो गए है,...लकिन ये क्या!! भारत तो तिब्बत की तरह हो गया है। चीन, पाकिस्तान, बांगलादेश और तो और नेपाल, भूटान भी भारत के अलग-अलग प्रांतों में राजकाज चला रहे हैं। गांधी की मूर्तियों को तोड़कर माओं जुंग और जिन्ना की मूर्तिया लगी हैं और आखिरकार 50 साल बाद भारतीय हिंसक प्रदर्शन कर स्वायत्ता की मांग कर रहे हैं।। मैं हिंसा को जस्टीफाई नहीं कर रहा हूं लेकिन अस्तीत्व को बचाए रखने के लिए हिंसक होना पड़ता है। चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर हो या फिर सामूहिक या फिर राष्ट्र स्तर पर। हिंसा एक तरह से हथियार की तरह है, जिसके द्वारा कोई भी प्राणी स्वयम् की रक्षा करता है। क्योंकि ऐसा कभी नही हो सकता कि पूरी दुनिया अहिंसक हो जाए। यह सोच केवल यूटोपिया मात्र है।
दूसरा चकरा देने वाला विषय था कि गांधी आदर्श क्यों और भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस वीर क्यों?पहले तो आदर्श और वीर इन दोनो शब्दों की तुलना करना ही खुद की मुर्खता समझता हूं। सिर्फ सोचने का अंतर है. अगर देखा जाय तो एक आदर्शवादी भी वीर है और एक वीर भी आदर्शवादी है। जहां तक गांधी और भगतसिंह की बात है तो दोनों ही आदर्श है दोनों ही वीर हैं।। दोनों ही पराक्रमी हैं...एक ने हिंसा को आधार न बनाकर इच्छाशक्ति से लड़ने की ठानी तो दूसरे ने विचारों को चिंगारी बनाकर लड़ने की ठानी। लेकिन हुआ क्या दोनों का अंत हिंसा से ही कर दिया गया।। कभी एक कहीं कवीता पढ़ी थी पूरी तरह याद नही आ रहा है...कवि कुछ ऐसे लिखा था...तलवार पर लाल रंग चढ़ आया....और योद्धा ही शूर वीर कहलाया ( कविता की पूरी लाइनें नही लिखने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं) कही ना कहीं वह कवि भी इसी झोलझाल में उलझे थे।
तमाम बातों का एक बात है अस्तीत्व में बने रहना है तो आत्मरक्षार्थ हिंसा की सवारी करती रहनी होगी। अत: केवल गजनी मात्र से भारत की मानसिकता को आंका नही जा सकता है। यहां पर गीता के श्लोक गुंजते है तो सूफियाना अंदाज की बयार भी बहती है। सिर्फ गोधरा और बाबरी विध्वंस ही भारतीय मानसिकता की पहचान नही हैं.....( जैसा की रवीशजी ने अपने ब्लॉग में इंगित किया हैं)।

Monday, January 5, 2009

खुली हुई तिजोरी!!!

घटना-1
कल्पना- मुझे यहीं रोक दो..मैं उतर कर चली जाउंगी।
कैब का ड्राइवर: क्या.. आप यहीं उतरेंगी ?
कल्पना: क्या करूं, बाकी लोग भी तो आपकी कैब में हैं, उन्हें भी तो देरी हो रही होगी..
अरे, रात का
समय हैं..और उपर से इतना भंयकर घना कोहरा..कोई उठा कर ले गया तो..। बचाने भी कोई नही आएगा...
हां भाई ड्राइवर इन्हें इनके घर तक ले चलों..वरना कुछ हो गया तो इसके गुनहगार हम लोग ही होंगे।- कैब में सवार लोगों ने बोलना शुरू किया

घटना-2.
कैब छूट गई है नर्गिस ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट से बहस कर रही है..
नर्गिस-मेरे आने में सिर्फ दो मिनट की देरी हुई और आपने कैब जाने दिया...
मैडम, हम क्या करें. हमने तो रुकने को कहा था लेकिन कोई स्टाफ अंदर से आया और बताया कि नर्गिस मैडम कब की निकल चुकी हैं
और बड़ी देर से हम आपका फोन भी ट्राई कर रहे थे। कुछ रिस्पांस ही नही मिल रहा था। लगा कि शायद आप किसी के साथ निकल चुकीं होंगी।
नर्गिस- भईया मेरा फोन खो गया था, उसी को खोजने के लिए मारे-मारे फिर रही थी..अब आप ही बताइए अकेली लड़की इतनी आधी रात को कैसे जाएगी। अब तो आपकी ही ज़िम्मेदारी है कैसे भी मुझे मेरे घर तक छोड़ दो। मैं कुछ नही जानती।

उपर की दोनो घटनाओं को मित्रों से बताने पर:
तू भी यार, क्या चुतियापे वाली बातों पर गौर करता है, सुना नही है क्या... अकेली लड़की खुली हुई तिजोरी के समान होती है...
फिर जोरदारा ठहाके- हा...हा..हा..ही...ही..ही आ..ह.खी..खी..खिक्..ऊ....ऊ...एह..हा ..अरे यार..खु..खुली हुई तिजोरी....हांहाहाआआ..हा.. हा...................................