Monday, November 8, 2010

जिंदगी झंड बा...फिर भी घमंड बा

जानते हैं साहब, हम तो कुकुर हैं
जो हर महीना आपके दरवाजे पर
दस्तक दे देतें हैं...चंद नोटों के लिए।
ना.., बिल्कुल नहीं कहुंगा कि हम मेहनताना लेते हैं
क्योंकि मेहनताना आदमी का जायज़ हक है
ये जो नोट हमारे हाथ में है, उसे
मेहनताना कहकर मेहनत को गरियाना नहीं चाहते
अगर ये मेहनताना होता..., तो
अब तक बगावत के बिगुल बज चुके होते
आपकी खटिया खड़ी हो गई होती
लिहाजा मेहनताना के बजाय खुद को ज़लील करना बेहतर है

आदमी की कुंठा बड़ी ख़तरनाक होती है...।
जात पर आ जाए, तो सबका निस्तार कर देती है।
चाणक्य का नंदवंश के प्रति कुंठा ही थी...
गांधी का अंग्रेजों के प्रति कुंठा ही थी...
इनका अविजित साम्राज्य नेस्त-नाबूत हो गया।
हमारा क्या है...जैसा पहले ही जिक्र कर चुके हैं, कुकुर हैं...
आप ठुकरा देंगे..दूसरा दरवाजा खटखटाएंगे, फिर दुत्कार दिए जाएंगे
अगला चौखट ज़िंदाबाद...।।

Sunday, October 3, 2010

ये आर्थिक साम्राज्यवाद है...

मेरे साथियों
ये कॉमनवेल्थ गेम हमारा तुम्हारा नहीं है औऱ ना ही हमारे भारत वर्ष का है। ये मात्र उन चंद अमीरों और नौकरशाहों का है जो विश्व स्तर पर खुद को रिप्रेजेंट करना चाहते हैं। हमारी गरीबी से उन्हें बू आती। हमारे पसीने से तो इन्हें उल्टी आती है, लेकिन उसी की कमाई को ये हजम करने में थोड़ा भी शर्म महसूस नहीं करते। मुझे नहीं पता कि हमारे कितने भाई- बहनों को भर पेट खाना नसीब हो पाता है। कितने प्रतिशत बच्चों को दो वक्त का दूध भी नसीब होता है। मुझे नहीं मालुम, क्योंकि हर किसी का अपना- अपना आंकड़ा है। आंकड़ों के खेल में मैं नहीं पड़ना चाहता। बस एक गुजारिश है कि आप अपनी माली जिंदगी देखिए और देश में जो हो रहा है..उससे तुलना किजिए। मैनें सुना है... हमारी माताओं की छाती से दूध नहीं...खून निकल रहा है, लेकिन फिर भी वो अपने दूध- मूंहे बच्चे को छाती से चिपकाए हुए है। आज से लगभग 60 साल पहले हिंदी के महाकवि निराला जी ने भारत की दशा पर लिखा था..."स्वानों को मिलता दूध- भात...भूखे बच्चे अकुलाते हैं..... मां की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़े की रात बीताते हैं।"  मगर दुख है कि 60 साल बाद भी निराला जी की ये पंक्तियां आज भी प्रासंगिक हैं। इन पंक्तियों का दर्द ना ही यहां नौकरशाहों ने महसूस किया और ना ही राजनीति करने वालों ने। हमारी गरीबी तो राजनेताओं के लिए राजनीति का साधन है। हमे और आपको डिमॉक्रेसी और लोकतंत्र जैसे शब्दों का लॉली- पॉप देकर शासन की नीति साधी जाती है। हम और आप राजनीति का केंद्र होकर भी राजनेताओं के मात्र साधन हैं। जिससे वे सत्ता का निशाना साधते हैं। सत्ता जो इन राजनेताओं को पॉवर देती है...पैसा देती है और हम जैसे लोगों को शोषण और भूख देती है। आज जो देश में चल रहा है...वो एक किसम का आर्थिक साम्राज्यवाद है। जहां पर हम और आप बौने हैं। अगर आप कोई घंधा- पानी करना चाहें तो बाजार में पैसे की मोनोपॉली है, जिसे बिजनेस की भाषा में मार्केट कंप्टीशन कहा जाता है। कौन खरीदेगा आपका सामान?? कोई नहीं। आपके सरकारी स्कूल में कौन सी सुविधा मिल जाती है...कौन सा यंत्र आपके भौतिक विज्ञान या रसायन विज्ञान के प्रयोग में सहायक हो पाता है?? दावे के साथ कह सकता हूं कोई नहीं। ऊंची शिक्षाएं काफी मंहगी हो गई हैं...कोचिंग कल्चर पहले से ही गरीबों के टैलेंट पर क्विंटल भर का बोझ लाद दी है। पैसे के अभाव में क्या आप अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पाते हैं...????? बिल्कुल नहीं। शिक्षा से लेकर रोजगार तक और समाजसेवा से लेकर परिवार सेवा तक आर्थिक सम्राज्यवाद का प्रभाव है। राजनीति इसका ज्वलंत उदाहरण है। राजनीति भी अमीरों का रेस कोर्स है...अगर करोड़ों रुपये हैं तो आईए मैदान में आपका स्वागत है। पैसा नहीं तो धत्त तेरी की....भाग बाहर या माइक में जाके चिल्ला फलाना नेता जिंदाबाद। मित्रों समझने की जरूरत है। इस आर्थिक साम्राज्यवाद को खतम किया जा सकता है। बस हौसला चाहिए....और समझने की शक्ति। नहीं तो ये 30 फीसदी आबादी हमें और आपको देशभक्ति का नारा देकर अपना स्वार्थ साधती रहेगी। आगाज करिए अपने विरोध का....।

Wednesday, September 29, 2010

सड़क पे हिंदुस्तान पड़ा है

साथी मत सो जाना अब तुम
सड़क पे हिंदुस्तान पड़ा है

सीने में है रोष तुम्हारे
सामने भ्रष्टाचार खड़ा है।
करो वार- पे वार योद्धा
दुश्मन लौह के भांति जड़ा है
आत्मबल है हथियार तुम्हारा
जो तुम्हारे पास पड़ा है
साथी मत सो जाना अब तुम
सड़क पे हिंदुस्तान पड़ा है।

उठ मनई..मत हार मन को
किसने तुम्हे अभिशाप दिया है
किसने तुम्हारा पथ है रोका
किसने तुम्हे ये पाप दिया???
लो प्रतिकार चुकाओ हिसाब
जिसने तुमको लूटा है...
खोलो आंखे जागो अब तुम
वो दुष्ट तुम्हारे पास खड़ा है
साथी मत सो जाना अब तुम
सड़क पे हिंदुस्तान पड़ा है

राजनीत जहां बन गई वेश्या
मंत्री जहां दलाल बने हैं
जिसने की है लूट- खसोट
वे गुदड़ी के लाल बने हैं
पोछ डाल सपनों की ओस को
और जीत उस रण को अब तुम
जिसको तू कई बार लड़ा है
साथी मत सो जाना अब तुम
सड़क पे हिंदुस्तान पड़ा है

Sunday, September 26, 2010

जीत या हार

" रघुवीर पहलवान जिंदाबाद...रघु भईया जिंदाबाद.. बोले बोले--बजरंगबली की जय"

सोबईबांध गांव की गलियां नारों से गूंज गई। गांव के नौजवान ढोल नगाड़े बजा रहे थे...। महावीरी झंडा में रघुवीर ने बनारसी पहलवान को पछाड़ा था। 19 साल के रघुवीर को उसके दोस्त कंधे पर उठाए हुए थे। रघुवीर की आंखे श्रीवास्तव जी की कोठी की तरफ देख रही थीं। जिन नजरों की वाह- वाही वो चाह रहा था वो कोठी से निहार रही थी। ममता सखियों के साथ छिटा- कशी कर रही थी। "उम्ह! ...बनारसी पहलवान कौनो भीम के खानदान के थोड़े होते हैं ..जिन्हें हराने के बाद इतना हंगामा मचाया जा रहा है। पांच हजार का इनाम मिल गया सो कौन सी बड़ी बात है??" इन सबसे बेपरवाह रघु का काफिला उसके घर की तरफ बढ़ता है। " धा धिक् धिक् धमा धम..धा धिक धमा धम...बोले बोले बजरंग बली की जय!..... रघु भईया जिंदाबाद......जिंदाबाद जिंदाबाद।"  यादव टोला में रघु के जीत खासा चर्चा में थी.... "अरे भाई... जगेसर का लौंडा तो कमाल कर दिया... बनारसी पहलवान को हराया है। अब आस- पड़ोस के गांवो को पता चल गया होगा कि सोबईबांध में कौनो खर- पतवार नहीं रहते हैं। इन नौ जवानों को तो करनई गांव तक डंका पीट के आना चाहिए था। बड़ा फजीहत किए रहे सब। हम तो कहते हैं कि एक- एक कहतरी (दही रखने वाला मिट्टी का पात्र) दही उसके घर भेजवा देते। आखिर मूंछ पे ताव लाया है लड़का। अभी 19 साल में इ हाल है...जवानी तो अभी इंतजार कर रही है।" इधर ढोल नगाड़ों पर थिरकते नौ- जवानों का हुजूम रघु के घर पर आ पहुंचा। सभी रघु का खासम- खास बनने के लिए बेधड़क उसके घर में घुस रहे थे। " ऐ चाची देखो...इ तोहार लड़का क्या कर दिया है। पूरे गांव में रघु के नाम का डंका बज रहा है।"... रघु के घर के सामने लोगों का लब्बो- लोआब सिर चढ़ के बोल रहा था। आनन- फानन में झमन डीजे कंपनी आ गई। " रे छौड़ा..धत्त पवन सिंह के गाना बजाऊ..." और डीजे की गूंज से आस- पास के घरों के बर्तन खनखनाने लगे। " टुगडूम..टुगडूम.. ए मुखिया जी मन होखे त बोलीं...ना ही त रऊआं खाईं बरदास्त वाला गोली।" मलखान तो हरनाथ के लौंडा को नचा- नचा के पानी पिला दिया था। दुआर नाच की चौकड़ी के चलते अखाड़ा में तब्दील हो गया था।
दूसरी ओर घर के भीतर रघु की मां रघु पर बरस पड़ीं थी। " एह जुता पिटऊ के कौन सिखाए... पहलवानी से घर- बार का खर्चा ना चले। तुम्हारे बाप भी पहलवानी करते- करते इहे दिए है सिन्होरा...और तुम ये पांच हजार के इनाम से न जाने कौन सा राज दे दोगे। अरे कौनो रोजगार करोगे या नहीं। जिंदगी का खर्चा- पानी कैसे चलेगा। एक- आध साल में तुम्हारी जोरू आएगी तो क्या दोगे अपने बाप जइसा ही सिन्होरा?? काठ काहे मारा है तोहके? पढ़ाई छोड़ के अखाड़ा में पड़े रहते हो। अरे इ ताकत...इ जवानी हमेशा नहीं रहती काहें नहीं समझते। बाहर मजमा लगाये हो... कल घर में खर्ची खत्म हो जाए तो एक छटाक तक कोई नहीं देगा। चले आए हो दंगल जीत के। अरे जिंदगी का दंगल इससे कहीं अधिक चुनौती वाला है।" रघु हमेशा की तरह इस बार भी अपनी मां की फटकार सुन रहा था।

Monday, September 20, 2010

भरम...


काश के मैं चित्रकार होता
बहकी सी अदा और मचलती शोखियों को
उतार देता अपने कैनवास पर
जैसे दिल की परत पर उभर गई है
तुम्हारी ही छवि...

काश के मैं संगीतकार होता
सजा लेता तुम्हें अपने सुरों में
फिर आत्मा से लेकर अक्श तक
तुम ही तुम होती...मेरे करीब होती

काश के मैं एक कश्ती होता

तुम्हारे हुस्न के भंवर में अटखेलियां खाता
बिन पतवार के.... तुम जहां ले चलती वही मेरा ठिकाना होता

लेकिन मेरा मुकद्दर साहिल है..
किनारों से बस तुम्हें निहारना ही मेरी फितरत है
तुम्हारी जवां लहरों का मेरे पास आना
और फिर आके सागर में समा जाना
बड़ी कसक...बड़ी टीस देता है..।।

Saturday, September 18, 2010

बेहाल मन


जलते दीए पर, अब हवाओं ने नज़र डाली है
लव सिसकियां ले रहा है...दीवार की ओट अब नकाफी है
बयार के थपेड़ों से कोई कब जीता है???
उंघते हुए दीए को अब ये बात समझ आई है।
पूरवा- पछुआ हो देख लिया जाता
ये हवा नौटंकीबाज है...दीए की जान पर बन आई है।
सूत सी लव अब लड़खड़ा गई है
सांसे छूट गई हैं...रौशनी हार गई है।
अब तो निपट अंधेरा और मैं अकेला
बिन रौशने के बैठा हूं..
सिसकारती... फूफकारती चांडाल हवाओं ने,
मेरे हौसले को गिला कर दिया है...
काश के कोई चिंगारी उधार मिल जाती
अट्ठास होता मेरा और हवाएं सिहर जातीं
फिर तो एक नहीं सैकड़ों लौ की लड़ियां होतीं
सपने मेरे सुबह होते... और निराशा रातें होतीं।।

Thursday, September 16, 2010

ये सवाल बड़ा बेचैन करता है...


कश्मीर में शांति बहाली की दिशा में जिस तरह की कोशिशें की जा रही हैं, उसको देखकर मन में संदेह पैदा होता है। क्या सरकार इतनी बेचारी है कि कोई ठोस निर्णय नहीं ले सकती? सर्वदलीय बैठक का परिणाम ये रहा कि एक ऑल पार्टी डेलिगेशन को कश्मीर के दौरे पर भेजा जा रहा है। लेकिन क्या ये प्रयास काफी है? क्या इससे समस्या का समाधान हो जाएगा? घाटी का दौरा करने से राजनीतिक दल वहां के लोगों की कौन सी साईकॉलजी समझ लेंगे ये समझ के परे है। ये दौरा मुझे चाय- बिस्कुट के नाश्ते से ज्यादा कुछ नहीं नज़र आ रहा है। नेतागण घाटी का उस वक्त दौरा करेंगे जब कर्फ्यू लगा रहेगा, कोई घर के बाहर नहीं होगा, बाजार, स्कूल और कॉलेज बंद रहेंगे। फिर वहां की आवाम से बिना इंटरेक्शन किए बगैर हालात को कैसे समझ लेंगे?? बिना जनता के स्टेट कि परिकल्पना ही बेमानी है और जो हालात है वो जनता के द्वारा ही तो हैं। ये बात समझ में नहीं आ रही कि क्या सिर्फ नदिया पहाड़ और झरनों से बतिया लेने भर से कश्मीर के हालात को समझा जा सकता है? हां हमारे सुरक्षाबल किस अवस्था में वहां पर काम कर रहे हैं इसको समझा जा सकता है और एएफएसपीए पर एक आम राय बन सकती है। लेकिन मात्र एएफएसपीए ही कश्मीर का मात्र उपाय नहीं हो सकता। ढेरों कारण हैं और ऐसा भी नहीं सरकार अगर ठान लें तो उन कारणों का निवारण नहीं हो सकता। फिर क्या वजह हो सकती है कि सरकार कोई ठोस रोडमैप नहीं बना पा रही है? अगर आप लोगों के पास कोई उत्तर हो इन सवालों के तो जरूर बताने का कष्ट करें। अभी मेरे एक मित्र से बात हो रही थी..उनका तर्क था कि सरकार इंसरजेंसी को कायम रखना चाहती है। भला इंसरजेंसी सरकार को फायदा कैसे पहुंचा सकती है...इस सवाल का तो सीधा- सीधा मित्र महोदय ने जवाब तो नहीं दिया हां एक पक्ष रखकर जस्टिफाई करने की कोशिश जरूर की। उनका कहना था कि जब स्वामी अग्निवेश नक्सलियों से बातचीत के लिए मिडिएटर की भूमिका निभा रहे थे, तो सरकार ने ही उसमे रोड़े अटकाए। स्वामी अग्निवेश नक्सली नेता आजाद से बातचीत के लिए बात किए और आजाद तैयार भी हो गये। इसके कुछ ही देर बाद अग्निवेश इस बात को प्रधानमंत्री तक पहुंचाए। लेकिन अगले ही कुछ दिनों बाद आजाद का एनकांउटर हो गया। जिसके बाद काफी बवाल भी हुआ औऱ राजनीतिक कशमकश का माहौल भी बना रहा। खैर अपने मित्र के इस पक्ष को यहीं पर विराम देता हूं और ये समझने की कोशिश की जाए कि क्या इस घटना को कश्मीर के हालात से जोड़ा जा सकता है। मतलब अगर मान लिया जाए कि सरकार नक्सल इंसरजेंसी बरकार रखना चाहती है तो भला कश्मीर में इसे जिंदा रखने में क्या भलाई है। फिलहाल तो ये बिना सिर और पैर वाली बात लग रही है। लेकिन दाल में कुछ काला ज़रूर है कि सरकार कोई ठोस कार्रवाई नहीं कर पा रही है। उमर अब्दुल्ला की कशमकश भी बेचरगी की श्रेणी खड़ी है। गलियों में पत्थर लेकर जो युवा निकल रहे हैं, उन्हें संगीनों का कोई डर नहीं है। वे इसी माहौल में पले- बढ़ हैं और गोलियों की तड़तड़ाहट से वे अंजान नहीं है। ऐसे में वे कर्फ्यू तोड़ बाहर आते हैं तो कोई आश्चर्य भी नहीं है। तो क्या उन नौजवानों के जहन में जमे जहर को निकाला नहीं जा सकता? अगर सरकार को माइल्ड स्टेप्स लेने ही है तो आखिर देरी किस बात की है? जब घाटी में कुछ और लाशें गिर जाएंगी और बवाल पहले से ज्यादा उफान मारने लगेगा तब सरकार स्टेप्स लेगी। सवाल काफी हैं...जवाब देने वाला कोई नहीं मिलता। घाटी का इतिहास पता है। विलय कैसे हुआ ये भी पता है। वर्तमान कैसे ठीक हो...और भविष्य कैसे दुरूस्त हो इसकी टीस है।

Saturday, August 21, 2010


ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।
बढ़ रहा शरीर, आयु घट रही,
चित्र बन रहा लकीर मिट रही,
आ रहा समीप लक्ष्य के पथिक,
राह किन्तु दूर दूर हट रही,
इसलिए सुहागरात के लिए
आँखों में न अश्रु है, न हास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है

क्योंकि पिया दूर है न पास है।
गा रहा सितार, तार रो रहा,
जागती है नींद, विश्व सो रहा,
सूर्य पी रहा समुद्र की उमर,
और चाँद बूँद बूँद हो रहा,
इसलिए सदैव हँस रहा मरण,
इसलिए सदा जनम उदास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

बूँद गोद में लिए अंगार है,
होठ पर अंगार के तुषार है,
धूल में सिंदूर फूल का छिपा,
और फूल धूल का सिंगार है,
इसलिए विनाश है सृजन यहाँ
इसलिए सृजन यहाँ विनाश है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

ध्यर्थ रात है अगर न स्वप्न है,
प्रात धूर, जो न स्वप्न भग्न है,
मृत्यु तो सदा नवीन ज़िन्दगी,
अन्यथा शरीर लाश नग्न है,
इसलिए अकास पर ज़मीन है,
इसलिए ज़मीन पर अकास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

दीप अंधकार से निकल रहा,
क्योंकि तम बिना सनेह जल रहा,
जी रही सनेह मृत्यु जी रही,
क्योंकि आदमी अदेह ढल रहा,
इसलिए सदा अजेय धूल है,
इसलिए सदा विजेय श्वास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

-------- गोपालदास नीरज की कविता

Saturday, August 14, 2010

स्वतंत्रता दिवस या ग्लैमर...????


बचपन में मेरे लिए स्वतंत्रता दिवस एक दिन पढ़ाई से मुक्ति थी। स्कूल जाकर जलसे में जाकर भाग लेना और शाम तक मिठाई पाने के इंतज़ार में बैठे रहना। इससे अधिक आजादी मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती थी। जब कुछ समझदार हुआ तो स्वतंत्रता दिवस राजनीतिक ग्लैमर से ज्यादा कुछ नहीं लगा और हां आज भी ये राजनीतिक ग्लैमर से ज्यादा कुछ लगता भी नहीं है। झंडा फहराना..किसी घुसखोर का, भ्रष्ट का( अच्छे लोगों के हाथ में झंडे की डोर शोभा नहीं देती) उस दिन का एक तरह का अपना पाप धुलना होता है। मंच से दिया जाने वाला भाषण मूंह में राम बगल में छूरी से अधिक कुछ नहीं जान पड़ता। बड़ा चुतियाप लगता है..जब सिर्फ और सिर्फ आज के ही दिन कुछ चुनिंदा शहीदों को याद किया जाता है..और उनके शहादत के हिस्से में नारों की मिल्कियत उड़ेल दी जाती है। चलिए क्यों ना हम असल आजादी को मुकम्मल बनाने कोशिश करते हैं। जहां पर संवाद औऱ नारों की गूंज न हो, बल्कि चेहरों पर मुस्कान और दिलों में हौसला हो और हमारे लिए कोई दिन- विशेष आजादी का जश्न न हो बल्कि हमारी रोज जीत और उस जीत का जश्न हम मनाएं। दरअसल आजादी को राजनैतिक चश्में से देखना अब हमें बंद करना होगा। अब इसे सामाजिक व्यवहार से जोड़ने की ज़रूरत है। समाज में आज भी स्त्रियों को डायन करार देकर मारा जा रहा है। जातियों की खाई कम होने की बजाय बढ़ रही हैं। मजहबी तानाबना ऐसा ही कि जब कोई फिरकापरस्त चाहता है इसे तोड़ देता है। ऑनर किलिंग के नाम पर नौ जवानों की बलि दी जा रही है। यहां कोई अपने हिसाब से जीवन- यापन करना चाहे तो उसे आजादी ही नहीं है। दोस्तों क्या हम इन सभी चुनौतियों से दो हाथ नहीं कर सकते? इतिहास में चाहें जो हुआ हो अब हमें उसको लेकर लकीर का फकीर नहीं होना चाहिए। एक ऐसी मानसिकता हमें अब इख्तियार कर लेनी चाहिए ताकि हम इस लड़ाई को लड़ सकें। अब हमें अपनी आवाज को इतना बुलंद कर लेना होगा कि नौकरशाही हमारे आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने से पहले दो दफा सोचे। दोस्तों मुझे लगता है..राजनीतिक आंदोलन के साथ- साथ हमें समाजिक आंदोलनों के प्रति भी एक कदम आगे आने की ज़रूरत है और ये आसान भी है क्योंकि इसकी पहल के लिए हमें जमात की ज़रूरत भी नहीं है। हम खुद कुविचारों का उन्मुलन कर सकते हैं। उन्हें ज़हन से उखाड़ फेंक सकते हैं। तब हम असल आजादी की तरफ आगे बढ़ेंगे। वरना हमारी आने वाली कई पीढ़ियां झूठी आजादी की सालगिरह मनाती रहेगी। सही आजादी और सही लोकतंत्र पाने के लिए हमें सामाजिक क्रांति लानी ही होगी। तब अच्छा लगेगा--जब हम कहेंगे जय हिंद

Friday, April 9, 2010

इधर भी है, उधर भी...


अपनों की जुदाई, घरों में मातम
इधर भी है...उधर भी
आंखों में खामोशी, गुजरे वक्त का धुआं
इधर भी है, उधर भी
छाती पिटती बेवाओं का हूजूम, सूनी गोद की आकुलाहट
इधर भी है...उधर भी ....
बदहवास चेहरों पर ग़मगीनियत की झलक
एक ही जैसी तो है
ये मद किसका है????
सत्ता तू बड़ी ही छिनार है...
तू इधर भी है और उधर भी ।

Sunday, February 28, 2010

जोगीरा सारा रा रा....

गांव की होली की याद बड़ी आ रही है....ढोल की थाप के साथ घर-घर घुम के होली गाने की कसक दिल में उठ रही है। दिल्ली में बैठकर राजनीतिक जोगीरा गा कर होली मना रहा हूं..., ये जोगीरा आप भी गाईये...... सभी को होली की शुभकामनाएं.....

जोगीरा सारा रा रा.....जोगीरा सारा रा..रा..वाह जी वाह, वाह जोगीरा वाह
काले कोट और व्हाइट कॉलर में कौन बजट बनाया है, भईय़ा कौन बजट बनाया है
भूखे पेट जनता सूते, GDP में ग्रोथ पाया है...
चली जा देख चली जा..
प्रणव बाबू ने बजट बनाया, नया स्ट्रेटजी लाया है
धुक..धुक-- धुक..धुक चलेगी गाड़ी... तेल का दाम बढ़ाया है.
वाह जी वाह, वाह खिलाड़ी वाह

जोगीरा सारा रा रा रा रा...जोगीरा सारा रा रा
एक खेमा में दीदी रूसे, एक खेमा आडवानी
सत्ता पक्षे करूनानिधि मारे उल्टा बानी
रे फिर देख-देख हाय हाय हाय रे....

महंगाई ऐसी चीज है भाईया मुदई सौ बनाया है....
शरद पवार माथा पिटे, क्या खोया क्या पाया है।
देख चली जा देख चली जा.....चली जा देख चली जा

लोकतंत्र है कौन सी चिड़िया, कौन यार बनाया है
बढ़िया-बढ़िया बातों से किसने इसे सजाया है????
देख चली जा, चली जा.. देख चली जा
लोकतंत्र है जन का शासन, जनता ने बनाया है
रंग-बिरंगे चरित्तर वाले नेताओं से सजाया है
चली जा देख चली जा
वाह जी वाह, वाह खिलाड़ी वाह

जोगिरा सारा रा रा रारा...जोगिरा सारा रा रा रा रा
आख में चश्मा, हाथ में मोबाइल, भाषण है तुफानी
कौन सा ये प्राणी है भाईया बात करे जबानी ????
चली जा देख चली जा....
खदर का चमचम कुर्ता देख के, इतनी बात न जानीं
पैर में धूल ना हाथ में माटी, नेता है 'खानदानी'
ताक ताक ताक हाय हाय रे.....
जोगिरा सारा रा रा जोगिरा सारा रा रा
वाह खिलाड़ी वाह, वाह जोगिरा वाह

राजनीति का सूत्र बताओ, हूं लोफर लंफगा, भाई हूं लोफर लंफगा
एक बार में मंत्री बन जाऊ... जिंदगी हो जाए चगां, भाई जिंदगी हो जाए चंगा
देख चली जा, चली जा देख चली जा
राजनीति का मंत्र है सिखुआ.,...कहीं कराओ दंगा
फिर तुम राजा राजपाट के...बाकी कीट-पंतगा
रे.. फिर देख देख... हाय हाय रे.....

बुरा ना मानो होली है......

Sunday, February 21, 2010

ग़रीबी का बजट...एक कफ़न


संसद में बजट पेश होने वाला है..फिर से विकास दर का खाका रखा जाएगा और आम आदमी का हवाला देकर विपक्ष हंगामा मचाएगा। मेरी कुछ पसीजे हुए भाव.. सरकार के बजट के नाम।

सिंह साहेब के कोठी पर रात खूब जलसा था।
लखनऊ से बाई जी लोग आईं थीं।
पूरा जगरम था, खूब रेलम- पेलम था...
बुधना भी मस्त था, खूब कचरो-डभरो किया।

लेकिन देखो खेल तक़दीर का,
आज बुधना कोहार के घर भी मजमा लगा है,
गहमा - गहमी मची है ।
बुधना के घर जो भी नया रिश्तेदार जा रहा है,
दहाड़ फाड़ते हुए रोने की आवाज़ आ रही है।

दरोगा साहेब आए हैं, लाश ले जाने के लिए
क्योंकि बुधना अब नही रहा।
गले में फसरी लगा लिया था, निशान साफ- साफ है।

इधर दरोगा साहेब तुले हुए हैं, "ले चलो लाश का पंचनामा करना है"।
बुधना के माँई राग पकड़ पकड़ के रो रही है।
" काहें ले जा रहे हो इस ठठरी को
हड्डी का ढाचा ही तो बचा है, बस बोल नही रहा है, चल- फ़िर नहीं रहा।

पिछले आसाढ़ में मकई बोया था
पांच सौ बिगहा लगान पर, सोहिया- कोड़िया किया
लेकिन सब बर्बाद..
मकई के ठूठ में दाना नहीं, ठूंठे बचा था...
लड़की का इलाज करवाया
स्कूली खाना खाई के, अजलस्त पड़ गई थी।
दुहाई हो काली माई की, जम के मुंह से बची बिटिया

हामार बाबू,
अबगा के हड़िया, पातुकी, बर्तन माटी के बनाये थे .
लगन का दिन आ रहा है, बिक जायगा , पैसे आ जाएंगे,
लेकिन आन्ही- बरखा में
सब हेनक- बेनक हो गया .

और हुज़ूर,
लोग तो बियाह- शादी में रेडिमेड बर्तन में खाते- पीते हैं,
माटी का क्या काम?
साहू जी , सिंह साहेब के कर्जा तो और आफत,
पाहिले ही सिकम भर सूद चढा था,
पुरखा का ज़मीन रेहन पर चला गया.
और कर्जा, पापी पेट, जाहिल ज़िदंगी
बाबू हमर फसरी नहीं लगते तो और क्या करते .

Saturday, January 30, 2010

उपेक्षा के शिकार महात्मा...

भारत ने महात्मा गांधी की पुण्यतिथि मनाया है। आला नेताओं और अफसरशाहों ने अपने बेइमान दिल को मज़बूत करके नम आंखों से श्रद्धांजलि दी है। बेइमान लोग गांधी को श्रद्धांजलि देते वक्त डरते तो ज़रूर होंगे। लेकिन ये बात सोचता हूं तो हंसी आती हैं। दरअसल डर तो कब का खतम हो जाता है। गांधी के फोटो के सामने आत्मग्लानि इन अफसरशाहों की कब कि मर चुकी रहती है। क्योंकि गांधी के फोटो के आगे ही तो सारा गोरखधंधा होता है। फिर डर कैसा और आत्मग्लानि कैसी। भ्रष्टाचार का रगड़ से इनकी चमड़ी बेहद सख्त हो जाती है।
महात्मा का अंत कैसे हुआ ये सभी जानते हैं और किसने किया ये भी मालुम है। लेकिन मैं इसका विवरण देकर उस शख्स को अमर नहीं करना चाहता जिसने गांधी को मारा। लेकिन मुझे बार-बार उन ढोंगियों का जिक्र करना पड़ता है जो गांधी की खादी में छुपकर गांधीवाद का बलात्कार करते रहते हैं। अगर कोई गांधीवाद से इत्तेफाक नहीं रखता है तो इससे कोई शिकायत नहीं है। क्योंकि गांधीवाद एक विचारधारा है और विचारधारा सबकी एक हो ये मुमकिन भी नही है। लेकिन विचारधारा से ताल्लुक रखते हुए उसी के उपर नंगा नाच करना, ये शोभा नहीं देता। हमारे देश की अधिंकांश सरकारें या यूं कहें नेतागण गांधी के विचारों से बड़े ही प्रभावित नज़र आते हैं। उच्च कोटि की महंगी खादी कपड़े पहनते हैं औऱ अहिंसा कि बाते करते हैं। मोटे तौर पर अगर देखा जाए तो गांधी के रहते हुए भी और गांधी के इस दुनियां से चले जाने के बाद भी सियासत करने वाले उनकी बातों से तील मात्र भी इत्तेफाक नहीं रखे। हां, उन्होंने गांधी के चरित्र का जमकर उपयोग ज़रूर किया। गांधी को जनता के बीच अपनी हेठी बनाने के लिए उपयोग किया। राजनीति की धुरी पर गोल-गोल घुमते हुए वे गांधी को महान बताए, क्योंकि लोग गांधी को महान सुनना चाहते थे। गांधी को पथप्रदर्शक बताए, क्योंकि जनता चाहती थी कि नेता गांधी के बते रास्ते पर चलें। नि;संदेह गांधी जनता के प्रिय थे। लेकिन पॉलिटिकल लोगों के लिए मात्र साधन थे जिसे अपने साध्य पर वे साधते थे और कुछ नहीं। इतिहास में झांकता हूं तो गांधी लीगी और कांग्रेसियों में फंसे नज़र आते हैं। मृत्यु के बाद बड़े-बड़े अक्षरों में महिमा- मंडित नज़र आते हैं।
लेकिन गांधी की बातों पर हिंदुस्तान की सरकारों ने थोड़ा सा भी इल्म किया होता तो राज्यों की असमानता नहीं रहती। गांव और शहरों के बीच खाई नहीं पनपी होती। साल 1937 को 'हरिजन' में छपे एक लेख में गांधी ने कहा था कि "असली भारत इसके सात लाख गांवों में बसता है और विकास की गंगा गांवों से बहेगी तभी देश का निस्तार हो पाएगा।" लेकिन दुख है कि आजादी के बाद से ही बड़े-बड़े शहरों को कारोबारों से लैस किया जाने लगा। विकास की गंगा गांव से नहीं शहर से चल पड़ी। आज हम देख सकते हैं कि शहर से महज पचास मील बाहर निकलने पर लोग किस कदर बुनियादी सुविधा से महरूम हैं। गांवों में उद्योग नहीं होने के चलते शहर के तरफ पलायन हो रहा है।
किसानों के देश में ही किसान कहीं भूख से मर रहा है तो कहीं आत्महत्या करने के लिए मज़बूर हो रहा है। लोगों को 25 रुपया में सिम कार्ड मिल जा रहा है लेकिन 25 रुपया में भर पेट खाना नहीं मिल रहा। किसानों के लिए बीज की कीमतों की बात ही छोड़ दें। दो बिघा जमीन की जोत के लिए किसान कहां से पैसा जुटाता है, ये किसान ही जानता है। खाद से लेकर सिचाई का खर्चा उठाने के बाद पैदावार की उचित कीमत नहीं मिलने पर सरकारें उनके लिए कोई बेल-आउट पैकेज की घोषणा नहीं करती हैं। बस बयानबाजियां करके जमाखोरी को बढ़ावा देती हैं।
लेकिन जहां पर गांधी मार दिये गये हों...वहां कि हुकूमत से उनके विचारों की अपेक्षा करना बेमानी ही लगता है।

Tuesday, January 26, 2010

कौन सा गणतंत्र ?

भारत महान का मंत्र
हमरा सबसे बड़ गणतंत्र
ये नारा बंद करो भाई......
काहे का गणतंत्र मना रहे हो? क्या तुम्हारी आंखे अंधी हो चुकी हैं? क्या तुम्हारी चेतनाओं ने महसूस करना छोड़ दिया है? क्या वर्चुअल लाइफ के आगोश में इतने मशगुल हो गए हो कि तुमने ये भी सोचना छोड़ दिया है कि तुम्हारे इतिहास के साथ क्या बर्ताव हुआ है और तुम्हारे भविष्य़ को क्या मोड़ दिया जा रहा है। मैं एक बार फिर से याद दिलाना चाहुंगा, उस संविधान को जो साठ साल पहले लिखा गया था। उसका क्या कहीं अता पता है? इंडिया इज ए सेक्युलर, सोशलिस्ट, रिपब्लिक एंड डेमोक्रेटिक कंट्री। क्या इन शब्दों को कहीं भी देश के किसी भी कोने में पाते हो? नहीं, हरगिज नहीं। कैडबरी और रॉल्स रॉयल की दुनिया से निकलो तो पता चलेगा कि देश की कितनी बड़ी आबादी एक रोटी के टुकड़े के लिए दिन-रात संघर्ष कर रही है। मीलों दूरी तय करने के लिए अपने जख्मी पैरों की तरफ एक निगाह देख भी नहीं रहा है। मेरे देश वासियों मैक-डॉनल्ड और केएफसी के चमकादार शीशों से बाहर भी तो झांको तो पता चले कि हमारे देश के किसान किस गुरबत में जिंदगी बिता रहे हैं। एक किसान की सबसे बड़ी जागीर, उसकी सल्तनत, उसका मान-अभिमान खेत होता है। जब उन खेतों में बीज डालता है, तो अपने घर में बधाईयां बजवाता है। आज उन घरों में बधाईयां बजनी बंद हो चुकी हैं। खेत सुने पड़े हैं और उनके चेहरे भी सूने पड़े हैं। ऊंची झतों से जरा नीचे तो देखों। ये तुम्हारे इंदिरा आवास योजना की उगाही किसी महल वाले की दिवार में संगमरमर फिट करने का काम कर रही है। रोज की जिंदगी को जीडीपी की कसौटी पर नही परखा जा सकता है। सच्चाई बिल्कुल अलग है।
18 साल से ऊपर के लोग क्यों भूल जाते हैं कि पैसे का दम-खम दिखाकर कैसे राजनीति हो रही है। सत्ता के दहलीज पर पहुंचने के लिए किस कदर के दांव-पेंच का इस्तेमाल किया जा रहा है। क्या कभी देखा है कि बिना पैसे वाला आदमी चुनाव लड़ रहा हो? जनाधार भी पैसे पर बनने लगे हैं। फिर अफरात पैसे के दम पर हो रही चुनावी प्रक्रीया को कैसे जनता का चुनाव मान रहे हो। 20 फीसदी वोट पाकर सत्ता हासिल करने वाले को कैसे जनता की सरकार कह सकते हो?
ओछी राजनीति के डकैतों को कोई भी सरकार सलाखों के पीछे नहीं घुसा पाई, ये क्यों नहीं सोच रहे हो? जिनके जंगल उन्हीं को लूट लिया गया। उन्हीं के धन-संपदा पर कितने अधिकारी करोड़ों के महल पिटवा लिये। ये क्यों नहीं देखते हो? क्यों सिर्फ ऑपरेशन कोबरा को देख रहे हो? उनकी छाती में धधकते असंतोष को क्यों नहीं भांपते हो? दोस्तों आज भी लोग नौकरशाही का थप्पड़ खा रहे हैं। आज भी पुलिस की लाठियां खा रहे हैं। आज भी जाति और मजहब के नाम पर भेद किया जा रहा है। क्षेत्रवाद का बोलबाला है। आधे से अधिक राज्य में नागरिक संविधान से इत्तेफाक नहीं रखते। लिहाजा उनका रेड-कॉरिडोर जोन बढ़ता जा रहा है। ये बात मस्तिष्क में हलचल क्यों नहीं पैदा कर रहीं कि ऐसा क्यों हो रहा है? पहले सांमतों के कोल्हू में आम जन पिसते थे अब इन तथाकथित नेताओं और माफियाओं के कोल्हू में पिस रहा है। जान-बूझकर अनजान बना हुआ है भारत। खोए हुए भारत का गौरव अभी वापस नहीं लौटा है। अपने भाईयों को अपने बेटों को, अपने दोस्तों को बताओं कि हमारा भारत अभी महान नहीं हुआ है। इसे महान बनाना है।

Sunday, January 24, 2010

मैं जोगी हूं पुजारी नहीं


मैं जोगी हूं पुजारी नहीं। पुजारी पूजा करना छोड़ सकता है। फेंक सकता है उस पीले लिबास को जिसे ओढ़ के वो तुम्हारे भगवान की अराधना करता है। क्योंकि उसकी अराधना से उसका पेट भरता है। जिस दिन उसे अगाध धन का स्रोत कहीं और से मिल जाएगा, ऐश्वर्य के दूसरे साधन मिल जाएंगे वो मूरत की अराधना छोड़ सकता है। लेकिन एक जोगी लाल-पीले स्वच्छ कपड़े पहने कर फूल नहीं चढ़ाता। रटे-रटाए भजन- बोल कह कर क्रियाकलाप पूरा नहीं करता। इसलिए कहता हूं, मैं जोगी हूं। मेरी साधना ही सब कुछ है। मन की फकीरी ने ये रौब दिया है। आसानी से नहीं जाने वाला। फकीर की फकीरी मरने के बाद ही जाती है। ये अंदाज तभी महसूस किया था, जब तुम्हारी जोग लगी थी मुझको। मेरे लबों पे आने वाला हर भजन- गीत मेरे दिल के कुंड की एक बुंदें हैं। जो शबनम बनके जहन में इकठ्ठा होती हैं और बरबस ही लयबद्ध होकर बाहर आने लगती हैं। मेरे जोग से ना तो पेट की लालच है..और ना ही ऐश्वर्य की दिली तमन्ना है। ये सभी चीजें छूट चुकी हैं इसलिए तो ये जोग लगा है। अगर ये सब कुछ चाहता तो मैं पुजारी होता और तुम्हारी बुत-परस्ती करता। मैं जोगी हूं, जो तुम्हारी आत्मा तक पहुंचना चाहता हूं।

Monday, January 11, 2010

तमन्ना...



दिल में ढेरों अरमां हैं
मीठे से, सहमें से...
नये साल में सोचता हूं बांट दूं सभी के सभी ---
जब घना कोहरा हो..तो धूप बन बिखर जाऊं
ताप से तड़फड़ाती धरती पर बूंद बन बिखर जाऊं
और...
जिंदगी जब सर्द हो जाए,
विचारों के अंकुर पर बर्फ जम जाए
तो अपने ऐहसासों की गर्माहट दू, ताकि
बर्फ पिघल जाए...विचार वृक्ष बन जाए।।

Tuesday, January 5, 2010

वो सूखा पत्ता...



वो पत्ता जो डाली से टूट चुका है,
कल मेरी ढ्योढ़ी पर आ गया था
उड़ता-फिरता, गिरता-पड़ता।।
मैनें उसे उठा अपनी जेब में रख लिया
ताकि फिर कोई हवा,
इसे ना उड़ा ले जाए
इतनी दूर कि बड़ी दूर
मैं आ गया हूं,
अपने शाख से अगल होकर।।

Saturday, January 2, 2010

तुम मस्त-मस्त, हम त्रस्त त्रस्त

पिछला साल भुलाए नहीं भुलता है। हर वक्त ज़हन में बीते साल की यादें ही घुम रही हैं। साल 2009 के सारे अनुभव कायदे से मेरे दिमाग और दिल पर हावी हो जाते हैं। इक्कतीस तारीख की रात के एल्कोहल का असर पहली जनवरी के सुबह तक तो उतर गया था। लेकिन पिछले साल की खुमारी अभी भी उतरने का नाम नहीं ले रही। राजनीति से लेकर बाजार की उठापटक नए साल के जायके को खराब किए जा रहे हैं। नए साल पर सोचता हूं अब कुछ नया होगा लेकिन पिछले साल की डिवलपमेंट स्टोरी पिछा छोड़ने का नाम नहीं ले रही। साल नया हो गया। लेकिन हमारी स्थिती पुराने साल के उबासी में ही गुम है। पिछले साल के राशन के बिल की अपेक्षा नए साल में शॉकिंग बिल आई है। पूरे डेढ़ गुना ज्यादा बिल आ पहुंचा है। अब ऐसे में पिछले साल को कोसा जाए या फिर नए साल को गरियाया जाए कुछ समझ में नहीं आ रहा। मन- मस्तिष्क डिसऑर्डर में हो चला है। दिल कहता है नए साल में जिंदगी की नई धुन छेड़ू। लेकिन जब मस्तिष्त कैलकुलेशन करने बैठता है तो रणभेरी बजने लगती है। जी में आता है कि सभी कालाबाजारियों को लाइन में खड़ा करके गोली मार दूं। या फिर खुद को फिदायिनों के माफिक नेताओं के मुर्गानशीन पार्टियों में धुआं-धुआं कर दूं।
साहब पिछले साल के गम इस साल भी पिछा नहीं छोड़ने वाले हैं। साल 2009 में हजारों रुपये के घोटालाबाज कोड़ा साहब भी इस साल में भी मौजूद हैं। राजनेताओं के गुरूजी फिर से झारखंड की कुर्सी पर विराजमान हुए। सुना है जमकर हॉर्स ट्रेडिंग हुई है। मालदार मंत्रालय के लिए जोड़-तोड़ खूब चले हैं। अब लूट-खसोट तो मचेगी ही। ऐसे में मन में सुबहा उठ रहा है कि इस साल भी झारखंड ही कहीं सबसे बड़ा घोटालाबाज न दे दे। अब इनके घोटाले की भरपाई भी हमारे ही जेब से होने वाली है। एन.डी. तिवारी का सेक्स स्कैंडल भी मन को भारी कर दिया। 84 की उम्र में...आय!.. हय!.. भाई, ये तो वही बात हो गई जैसे बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम। मेरे कई मित्र तिवारी जी के स्कैंडल की चर्चा पर आंह भरते नज़र आए। कईयों के संभोग का कोटर खाली है, लिहाजा तिवारी जी को कोसने में कोई कोताही नहीं बरते। उनके जुबान से बरबस ही फिसल जा रहा था-" साला जब बूढ़े जवानी के सागर में गोते लगाएंगे तो जवान किनारे पर बैठ खाली गरियाएंगे हीं"। माफी चाहूंगा लेकिन मेरा इरादा तिवारी जी को दुख पहुंचाना नहीं है। लेकिन जवानों के दिल पर जो दुख पहुंच रहा है वो तो देखा नहीं जाता। कई लोग कहते हैं...राजनीतिक बातों पर खामोश। बहरहाल मेरे नजरिए में पुराने साल के ये भूत भी पिछा नहीं छोड़ने वाले। भूत से मेरा मतलब मुद्दों से हैं, क्योंकि ऐसे ही मुद्दों के चलते ही संसद से मंहगाई का मुद्दा पता नहीं कहां गुल हो गया। 2009 गन्ना किसानों के लिए ऐतिहासिक साबित होने ही वाला था कि बाबरी विध्वंस, तेलंगाना इत्यादि मुद्दों ने उसकी गला घोंट दिए। लोगों के और भी सरोकार का मुद्दा उठता तब तक राजनीतिक रस्सा-कस्सी और सेक्स स्कैंडल जैसे मामलों ने पानी फेर दिया।
शुक्र है उन्नीस साल बाद एक लड़की रुचिका जो दुर्भाग्य से इस दुनियां में नहीं है उसको न्याय दिलाने की मुहीम पिछले साल में भी जोर पकड़ी और यकीन करता हूं कि उसके परिवार के 19 साल की लड़ाई का अंत ये साल तो ज़रूर ही कर देगा। वैसे कितना अच्छा होता जो क्षेत्र मीडिया की जद से दूर हैं वहां भी लोगों के द्वारा ऐसी ही इस साल में मुहीम चलाई जाती क्योंकि आज भी न जाने कितनी ही रुचिका जैसी बेबस लड़कियों की आत्माएं देश के दूर-दराज के शहरों और गांवों में सिसकियां ले रही हैं। प्लीज साल 2010...मेरी तुमसे एक गुजारिश है। मैं तुम्हारें मंहगाई के दंस क्षेलने को तैयार हूं। नेताओं के ऐशबाजी को भी पचा जाऊंगा। लेकिन तुम हमारे गांवों में और छोटे शहरों में रहने वाली असंख्य रुचिका जैसी लड़कियों को न्याय ज़रूर दिलाना।