Saturday, August 21, 2010


ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।
बढ़ रहा शरीर, आयु घट रही,
चित्र बन रहा लकीर मिट रही,
आ रहा समीप लक्ष्य के पथिक,
राह किन्तु दूर दूर हट रही,
इसलिए सुहागरात के लिए
आँखों में न अश्रु है, न हास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है

क्योंकि पिया दूर है न पास है।
गा रहा सितार, तार रो रहा,
जागती है नींद, विश्व सो रहा,
सूर्य पी रहा समुद्र की उमर,
और चाँद बूँद बूँद हो रहा,
इसलिए सदैव हँस रहा मरण,
इसलिए सदा जनम उदास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

बूँद गोद में लिए अंगार है,
होठ पर अंगार के तुषार है,
धूल में सिंदूर फूल का छिपा,
और फूल धूल का सिंगार है,
इसलिए विनाश है सृजन यहाँ
इसलिए सृजन यहाँ विनाश है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

ध्यर्थ रात है अगर न स्वप्न है,
प्रात धूर, जो न स्वप्न भग्न है,
मृत्यु तो सदा नवीन ज़िन्दगी,
अन्यथा शरीर लाश नग्न है,
इसलिए अकास पर ज़मीन है,
इसलिए ज़मीन पर अकास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

दीप अंधकार से निकल रहा,
क्योंकि तम बिना सनेह जल रहा,
जी रही सनेह मृत्यु जी रही,
क्योंकि आदमी अदेह ढल रहा,
इसलिए सदा अजेय धूल है,
इसलिए सदा विजेय श्वास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।

-------- गोपालदास नीरज की कविता

Saturday, August 14, 2010

स्वतंत्रता दिवस या ग्लैमर...????


बचपन में मेरे लिए स्वतंत्रता दिवस एक दिन पढ़ाई से मुक्ति थी। स्कूल जाकर जलसे में जाकर भाग लेना और शाम तक मिठाई पाने के इंतज़ार में बैठे रहना। इससे अधिक आजादी मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती थी। जब कुछ समझदार हुआ तो स्वतंत्रता दिवस राजनीतिक ग्लैमर से ज्यादा कुछ नहीं लगा और हां आज भी ये राजनीतिक ग्लैमर से ज्यादा कुछ लगता भी नहीं है। झंडा फहराना..किसी घुसखोर का, भ्रष्ट का( अच्छे लोगों के हाथ में झंडे की डोर शोभा नहीं देती) उस दिन का एक तरह का अपना पाप धुलना होता है। मंच से दिया जाने वाला भाषण मूंह में राम बगल में छूरी से अधिक कुछ नहीं जान पड़ता। बड़ा चुतियाप लगता है..जब सिर्फ और सिर्फ आज के ही दिन कुछ चुनिंदा शहीदों को याद किया जाता है..और उनके शहादत के हिस्से में नारों की मिल्कियत उड़ेल दी जाती है। चलिए क्यों ना हम असल आजादी को मुकम्मल बनाने कोशिश करते हैं। जहां पर संवाद औऱ नारों की गूंज न हो, बल्कि चेहरों पर मुस्कान और दिलों में हौसला हो और हमारे लिए कोई दिन- विशेष आजादी का जश्न न हो बल्कि हमारी रोज जीत और उस जीत का जश्न हम मनाएं। दरअसल आजादी को राजनैतिक चश्में से देखना अब हमें बंद करना होगा। अब इसे सामाजिक व्यवहार से जोड़ने की ज़रूरत है। समाज में आज भी स्त्रियों को डायन करार देकर मारा जा रहा है। जातियों की खाई कम होने की बजाय बढ़ रही हैं। मजहबी तानाबना ऐसा ही कि जब कोई फिरकापरस्त चाहता है इसे तोड़ देता है। ऑनर किलिंग के नाम पर नौ जवानों की बलि दी जा रही है। यहां कोई अपने हिसाब से जीवन- यापन करना चाहे तो उसे आजादी ही नहीं है। दोस्तों क्या हम इन सभी चुनौतियों से दो हाथ नहीं कर सकते? इतिहास में चाहें जो हुआ हो अब हमें उसको लेकर लकीर का फकीर नहीं होना चाहिए। एक ऐसी मानसिकता हमें अब इख्तियार कर लेनी चाहिए ताकि हम इस लड़ाई को लड़ सकें। अब हमें अपनी आवाज को इतना बुलंद कर लेना होगा कि नौकरशाही हमारे आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने से पहले दो दफा सोचे। दोस्तों मुझे लगता है..राजनीतिक आंदोलन के साथ- साथ हमें समाजिक आंदोलनों के प्रति भी एक कदम आगे आने की ज़रूरत है और ये आसान भी है क्योंकि इसकी पहल के लिए हमें जमात की ज़रूरत भी नहीं है। हम खुद कुविचारों का उन्मुलन कर सकते हैं। उन्हें ज़हन से उखाड़ फेंक सकते हैं। तब हम असल आजादी की तरफ आगे बढ़ेंगे। वरना हमारी आने वाली कई पीढ़ियां झूठी आजादी की सालगिरह मनाती रहेगी। सही आजादी और सही लोकतंत्र पाने के लिए हमें सामाजिक क्रांति लानी ही होगी। तब अच्छा लगेगा--जब हम कहेंगे जय हिंद