Saturday, July 9, 2011

तेलंगाना: केंद्र की सुसुप्त ज्वालामुखी


तेलंगाना मसले पर श्रीकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद भी केंद्र सरकार का कोई ठोस निर्णय नहीं लेना संदेह पैदा करता है। आखिर क्या मज़बूरी है कि सरकार कोई बोल्ड डीसिजन नहीं ले रही? क्यों नहीं वो श्रॉकृष्ण कमेटी की सुझावों में से किसी एक पर स्पष्ट रवैया अपना रही है? संसद का मानसून सत्र शुरू होने वाला है, कई मुद्दों को लेकर लोगों की निगाहें केंद्र सरकार पर टीकी हैं...फिर सरकार जल्द से जल्द तेलंगाना का निपटारा क्यों नहीं कर रही?
असल में लीक से थोड़ा हटकर सोचा जाए तो सरकार की मंशा को कुछ हद तक भांपा जा सकता है। सत्ता में आने के पूर्व कांग्रेस का तेलंगाना राज्य बनाने का वादा अब अवसरवाद के एक अचूक हथियार साबित हो रहा है। कांग्रेस की नेतृत्व वाली यूपीए सरकार इसी वादे के सहारे उन तमाम मुद्दों को साइड लाइन कर रही है, जो उसके गले की फांस बने हुए हैं। सरकार की सबसे बड़ी फजीहत भ्रष्टाचार और एक के बाद एक मंत्रियों के उपर लग रहे घपले और घोटालों के आरोप हैं। इसके साथ ही लोकपाल बिल की चुनौती सरकार के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द है। ऐसे में तेलंगाना का तीर ऐसा है जिसके सहारे सरकार इन मसलों से लोगों का ध्यान हटा सकती है।
तेलंगाना के संदर्भ में कांग्रेस की पॉलिसी हमेशा से ढुलमुल रही है। तेलंगाना का मसला कोई नया नहीं है। हैदराबाद के निजाम से हैदराबाद को भारत में शामिल करने के बाद भाषा के आधार पर यूनाइटेड आंध्रप्रदेश का खाका खिंचा गया। तब भी तेंलगाना के लोगों ने आंध्रप्रदेश में तेलंगाना के विलय को खारिज कर दिया और इसके लिए कई आंदोलन भी हुए। यहां तक कि दिसंबर 1953 में गठित स्टेट रिऑर्गेनाइजेशन कमेटी ने भी तेलंगाना को आंध्रप्रदेश में शामिल नहीं करने का सुझाव दिया। लेकिन केंद्र में बैठी कांग्रेस की सरकार ने तेलंगाना के नेताओं पर दबिश डाली और एक संपूर्ण तेलगू भाषी आंध्रप्रदेश अस्तित्व में आया। 20 फरवरी 1956 को तेलंगाना और बाकी आंध्र के नेताओं के बीच करार हुआ कि तेलंगाना को सभी क्षेत्रों में प्राथमिकताएं दी जाएंगी। लेकिन तेलंगाना के लोग काफी वक्त बीत जाने के बाद भी खुद को उपेक्षित ही महसूस किए। 1956 से लेकर इस क्षेत्र के लोगों का विद्रोह कई बार सामने आया और हर बार सरकार इस विद्रोह को कोरे आश्वासन से शांत करती रही। कहना ग़लत नहीं होगा कि तेलंगाना को कांग्रेस समर्थित सरकारों ने एक तरह सुसुप्त ज्वालामुखी का तकदीर दे दिया। जो समय- समय पर फूटता रहता है और सरकारें इसे अपने एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती रहती हैं।
साल 1969 में तेलंगाना की मांग को लेकर छात्रों का विद्रोह हो और फिर इंदिरा गांधी का तेलंगाना से आने वाले नरसिम्हा राव को मुख्यमंत्री बनाया जाना। 1972 में मुल्की आंदोलन शुरू होना और फिर नरसिम्हा राव का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना जिसके बाद तेलंगाना में आगजनी और विद्रोह जिस स्तर पर हुआ उसका गवाह पूरा देश बना। 1973 में गंभीर हालात को देखते हुए 6 सूत्रीय फार्मूला लाया गया, जिसमें राज्य के भीतर ही लोकल सीटिजन को लाभ देने से लेकर पिछड़े इलाकों के विशेष सहूलियत देने की बात थी। हालांकि 6 सूत्रीय फार्मुला भी फ्लॉप साबित हुआ। गौरतलब है कि 70 के दशक में इंदिरा गांधी और कांग्रेस की साख डावांडोल थी। इसी दशक में देश कई हिस्सों में बदलाव की आंधी चली थी और सोशलिस्ट मुवमेंट का आगाज पूरे देश भर में था। इस दौरान भी तेलंगाना और आंध्रा का मुद्दा गर्माया रहा।
तेलंगाना का मसला एक बार फिर एक दशक लिए आश्वासन और उपेक्षा के बस्ते में बंद हो गया। 1990 में जब देश आर्थिक तंगी से जूझने लगा। बड़ी- बड़ी कंपनिया दीवालिया होने के कागार पर आ पहुंची और जब देश का सोना गिरवी रखना पड़ गया तो एक बार फिर केंद्र सरकार लोगों के निशाने पर आ गई। हालांकि इस दौरान उदारीकरण का फार्मूला अपनाया गया और स्थिति यहां से सुधरने लगी। लेकिन इस दौरान भी तेलंगाना का मुद्दा भी जोर- शोर से गरम हो गया।
असल में तेलंगाना के लोग कभी सरकार की नीतियों को स्वीकार किए ही नहीं थे। उनके ऊपर तो सिर्फ थोपा गया था। ऐसे में जब ना तब उनके आक्रोश का लावा फूटता रहा। जब एनडीए की सरकार सत्ता में आई तो उसने अपने कार्यकाल में तीन नए राज्यों का निर्माण किया और मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़, बिहार से अलग होकर झारखंड और उत्तरप्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आए। इसी दौरान एनडीए सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य बनाने की भी पहल की, लेकिन टीडीपी के विरोध के चलते तेलंगाना राज्य को एनडीए ने बस्ते में डाल दिया..टीडीपी उस वक्त एनडीए को बाहर से समर्थन दे रही थी। लिहाजा सत्ता एनडीए ने तेलंगाना राज्य का गठन नहीं कर टीडीपी का साथ हासिल करने में ही खुद की भलाई समझी। इसके बाद के. चंद्रशेखर राव ने 2001 में अलग तेलंगाना की मांग को लेकर एक अलग राजनीतिक पार्टी बनाई तेलंगाना राष्ट्र समति। टीआरएस साल 2004 में कांग्रेस के साथ इस शर्त पर चुनाव लड़ी कि अगर उनकी सरकार बनती है तो अलग तेलंगाना राज्य का गठन होगा। टीआरएस कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के साथ सरकार में शामिल भी हुई, लेकिन 2006 में आंध्रप्रदेश के कद्दावर नेता और मुख्यमंत्री वाईएसआर राजशेखर रेड्डी ने अलग तेलंगाना राज्य के फार्मुले को खारिज कर दिया। जिसके बाद टीआरएस सरकार से समर्थन वापस ले ली और के चंद्रशेखर राव कई दिनों तक भूख हड़ताल पर भी रहे। आंध्रप्रदेश के बंटवारे को लेकर श्रीकृष्ण कमेटी का भी गठन किया गया...कमेटी ने बकायदा अपनी रिपोर्ट भी सौंप दी...लेकिन फिर भी सरकार कोई ठोस निर्णय नहीं ले रही। फिलहाल के परिदृश्य को देखकर तो यही लगता है..कि सरकार इस मसले को लटकाए रखने में ही अपनी भलाई समझ रही है। चाहें वो संसद में जवाब देही का हो या फिर संपूर्ण आंध्रप्रदेश की राजनीति का। क्योंकि रायलसीमा और सिमांध्रा के लोग आंध्रप्रदेश के बंटवारे के खिलाफ हैं। केंद्र सरकार के लिए अलग तेलंगाना का मुद्दा सिर्फ मुद्दा भर है जिसे वो हर पहलू पर भुनाना चाह रही है।

अमृत कुमार तिवारी

Sunday, July 3, 2011

आर्थिक लोकतंत्र की ज़रूरत

भारत में दो वर्गों के बीच खाई लगातार बढ़ रही है। अमीरी और ग़रीबी के पाट में एक अजीब सा आक्रोश सुलग रहा है, लेकिन इसको महसूस करने के बाद भी हमारे नीति- निर्धारक सुस्त नज़र आ रहे हैं। अगर हाल के परिदृश्य को देखकर ये कहा जाए कि आने वाले दिनों में भारत सिविल वॉर की पीड़ा से गुजर सकता है..तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कहने को तो गरीबी उन्मूलन और रोजगार के कई योजनाएं सरकार के द्वारा चलाई जा रही हैं, लेकिन उसका वास्तविक चरित्र क्या है, ये सभी को मालुम है। कहने को तो देश में लोकतांत्रिक सरकार है, जो लोकतांत्रिक तरीके से देश को चला रही है, लेकिन ज़हन में सवाल उठता है कि अगर वाकई में देश लोकतांत्रिक ढर्रे पर चल रहा है, तो फिर विकास के मानक अलग- अलग क्यों हैं? क्यों एक तरफ दुनिया के करोड़पतियों की लिस्ट में भारतीयों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो कि देश की आबादी का बहुत ही कम हिस्सा है। वहीं दूसरी ओर एक बड़ी आबादी रोजमर्रा की जिंदगी में तबाह है। इस आबादी को ऊपर उठने का मौका ही नहीं मिल रहा। इसके अलावा जिन परिवारों को रोजगार में बढ़ोतरी हो रही है, उसका एक बड़ा हिस्सा बाजार का भेंट चढ़ जा रहा है।
असल में जब हमारे देश का डेमोक्रेटिक खाका खिंचा जा रहा था, तब आर्थिक पक्ष को उतना तवज्जों नहीं मिल, जितना कि राजनीतिक पक्ष को दिया गया। राजनीति में आम आदमी की कुछ हद तक तो भागीदारी है, लेकिन आर्थिक मामलों में वो आश्रित है। ऐसे में ये कहना सही होगा कि देश को राजनीतिक लोकतंत्र तो कुछ हद तक हासिल हुया लेकिन आर्थिक लोकतंत्र का सपना साकार नहीं हो पाया। आजादी से पहले आम आदमी सामंतो के चंगुल में रहता था, आज बाजार और इसके पूंजीपतियों के चंगुल में फंस कर रह गया है। देश की नीतियां बाजार के रुख पर निर्भर करती है..ना कि जनता की बेबसी को देखकर। पहले सामंतो के शोषण से जनता त्राही- त्राही करती थी..आज बाजार खूबसूरत चाबुक से कराह रही है, जिसके पीछे हमारी सरकार का योगदान सबसे ज्यादा है। हालांकि किसी भी देश को आगे ले जाने में बाजार का होना अनिवार्य शर्त है, लेकिन सभी नीतियां बाजार को ख्याल में रखकर बने ये सरासर गलत है। किसी भी देश के नियम, कायदे- कानून वहां की जनता की सहूलियत के लिए बनाए जाते हैं, लेकिन हमारे देश की व्यवस्था जनता के विपरीत ही है...इसमें से आर्थिक व्यवस्था आम जनता के तो बिल्कुल विपरीत है।
वैसे तो सरकारें हमेशा से आम जनता की हितैसी बनने का ढोंग करती रही हैं, लेकिन वास्तविकता है कि किसी भी सरकार ने आर्थिक पहलू को ध्यान में रखकर आम भारतीय नागरिकों के बारे में नहीं सोचा है। भारत का मीडिल क्लास कहने को तो बूम कर रहा है, लेकिन जिस तरह से उसके जेब में पैसे आ रहे हैं, दूसरे रास्ते से बाजार उससे डेढ़ गुना वसूल ले रहा है। फिर ये आंकड़ों में ये दर्शाया जाता है कि आम भारतीय की क्रय शक्ति बढ़ी है और भारत में ग़रीबी रेखा से नीचे लोगों की संख्य घटी है। सरकार के गरीबी के निर्धारण का पैमाना ही काफी वाहियात है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट भी आश्चर्य जता चुका है। पीडीएस प्रणाली के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट में योजना आयोग की दलील काफी संदिग्ध है। गरीबी रेखा को सत्यापित करने का उसका मानक काफी चौंकाने वाला है। योजना आयोग के मुताबिक शहरों में गरीब वो है, जिसकी खर्च करने की शक्ति 20 रुपये से कम है और ग्रामीण इलाकों में गरीबी वो शख्स है जिसकी खर्च करने की शक्ति 13 रुपये से कम है। मतलब अगर 20 रुपये जो व्यक्ति खर्च करता है तो उसे गरीबी रेखा के ऊपर माना जाएगा। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने काफी तल्ख तेवर अपनाया और सरकार से यहां तक कहा कि आप एक देश में दो भारत नहीं रख सकते। आम भारतीय की न्यूनतम क्रय शक्ति पर कोर्ट ने सरकार से बड़ा ही सटीक प्रश्न पूछा कि क्या अगर एक रिक्शा वाला बिसलेरी की बोतल खरीद लेता है, तो उसे अमीर मान लिया जाएगा? सुप्रीम कोर्ट के फटकार के बावजूद भी सरकार इन्हीं आकंड़ों के साथ हर पेशी में हाजिर हो जाती है। मसलन अगर सरकार आम भारतीयों की क्रय शक्ति को बढ़ाएगी, तो गरीबी का ग्राफ उसे उठाना पड़ेगा और ऐसे में उसकी पोल भी खुल जाएगी। सरकार किस तरह से आम आदमी के साथ मजाक कर रही है, इसका अंदाजा अब आप खुद लगा सकते हैं। अगर इन आंकड़ों की सच्चाई को और गौर से परखें तो, देश की राजधानी दिल्ली में एक मजदूर की दैनिक मजदूरी 265 रुपये है। अब एक दिन की उस मजदूर के खर्च का ब्यौरा दें, तो अगर उसके परिवार में उसको मिलाकर सिर्फ तीन सदस्य हैं और कम से कम दो बार भोजन करते हैं....तो उन्हें आटे, दाल और ईंधन मिलाकर कम से कम 130 से 140 रुपये का खर्च आएगा। यानी उसकी आधी कमाई सिर्फ पेट भरने में खत्म हो जाती है। ख्याल रहे इसमें संपूर्ण आहार ( complete diet) नहीं पा रहा है। इसके अलावा तमाम रोजमर्रा के खर्च हैं..। मसलन वर्किंग प्वांइट पर जाना, बीमार होने पर दवाईंया, मकान का किराया इत्यादि। इससे भी ज्यादा गुरबत उन मजदूरों की है जो गांवों में रह रहे हैं। अगर हम मनरेगा के द्वारा वितरित पैसे को आधार माने तो एक दिन कि मजदूरी कम से कम 130 रुपये हैं। ऐसे में खर्च तो यहां भी जुल्म ढाएगा। ख्याल रहे, चाहे शहर हो या गांव प्रोडक्ट्स के कीमत में ज्यादा का फर्क नहीं होता। इस हालत में अगर सरकार गरीबी रेखा के लिए क्रय शक्ति का निर्धारण 13 और 20 रुपया क्रमश: ग्रामीण और शहर के लिए रखती है तो निश्चित तौर पर वो अपने नागरिकों को धोखा दे रही है। उनका शोषण कर रही है और आंकड़ों में दिखाती है कि हमारे देश में गरीब महज 36 फीसदी ही हैं। इसी 36 फीसदी को आधार मानकर योजनाएं बनाती है और उनका वितरण खुद ही वाह- वाही लूटती है। ये सरासर जनता के साथ धोखा है।
देश में मिडिल क्लास को लेकर तरह- तरह की भ्रांतियां फैलाई गई हैं। मसलन हमारे देश में मीडिल क्लास बूम कर रहा है। वो तरक्की की राह पर अग्रसर है। देश में कारों, घरों और फूड मार्केट का व्यापार बढ़ा है, क्योंकि इसके पीछे देश का उभरता मीडिल क्लास है। ये सही है कि देश में मीडिल क्लास की भागीदारी काफी अहम है। लेकिन जिस शर्त पर उसे चीजे मुहैया कराई जा रही हैं, वो सरासर उनके साथ जुल्म है। हालांकि अभी ये विवादित है कि मीडिल क्लास में किस स्तर के आय के श्रोत वाले लोग जगह रखते हैं। इसका कोई खाका नहीं है। फिर भी अगर मीडिल क्लास को जिस पैमाने पर रखकर उसका आंकलन किया जाता है, तो उसके मुताबिक भी मीडिल क्लास भी इस आर्थिक व्यवस्था में मजदूर से ज्यादा कुछ नहीं है। मजदूर से ज्यादा इस क्लास को बंधुआ मजदूर की श्रेणी में रखा जाए तो भी गलत नहीं होगा, क्योंकि इस क्लास से जुड़े लोगों को अपने खान- पान के अलावा और भी दूसरे चीजों के लिए काफी कुछ बलिदान करते रहना पड़ता है। खाद्य सामग्री के अलावा, पेट्रोल, डीजल, शिक्षा, नौकरी आदि जिस कदर महंगी हुई उससे इस क्लास का चैन लुट गया है। इस श्रेणी के युवाओं में सबसे अधिक चिंता यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में दाखिले से लेकर नौकरी को लेकर है। अगर भूले- भटके नौकरी इनकी झोली में गिर भी जाती है, तो उसका शोषण बाजार जमकर कर लेता है। महानगरों में घर लेना एक सपना सरीखे है। अगर साहस करके कोई शख्स महंगा घर खरीद भी लिया तो देश की आर्थिक नीतियों का भार उसे ही चुकाना पड़ता है। आजकल अधिकांश लोग मकान या फिर कार बैंक लोन से आसानी से ले लेते हैं, लेकिन बाद में उनसे जिस तरह से पैसा ऐंठा जाता है, उससे उनकी जान पर बन आती है। साल 2010 के बाद से मुद्रास्फिति को नियंत्रण में लाने के लिए रिजर्व बैंक ने 10 बार प्रमुख दरों में वृद्धि किया है, जिसका सीधा असर लोगों को लोन मुहैया कराने वाले बैंकों पर पड़ा है और बैंक उसकी कीमत लोगों से वसूल रहे हैं। तेल कंपनियां अपने घाटे पूरा करने के लिए इसका सारा जिम्मा आम नागरिक पर फोड़ देती हैं। अभी हाल ही में सरकार के द्वारा डीजल में बढोत्तरी की बात कई बड़े अर्थशास्त्रियों के गले नहीं उतरी। जब विश्व- बाजार में डीजल के दाम घट रहे थे, फिर भी सरकार ने डीजल का दाम बढ़ाया। सरकार की मंशा साफ थी, मतलब पुराने जितने भी घाटे है जनता की जेब से पूरे कर लिए जाएं। एक और अहम बात है कि जब भी सरकार किसी भी कंपनी पर टैक्स बढ़ाती है या फिर नए टैक्स सिस्टम लागू करते है...कस्टम पर सरचार्ज लगाती है, तो कंपनियां अपने प्रोडक्ट्स के दाम बढ़ाकर अपने मुनाफा कायम रखती हैं। यानी यहां भी जनता को कंपनियों के घाटे को अपने जेब से भरना पड़ता है। सरकार भी उद्योगपतियों की तरह जनता के साथ व्यवहा कर रही है। पिछले महीने पेट्रोल की कीमतों में इजाफे पर सरकार के एक मंत्री की दलील थी कि सरकार जनता के लिए कई योजनाओं को चला रही है, लिहाजा उन योजनाओं का खर्च उठाने के लिए ऐसे कदम उठाने पड़ रहे हैं। उन्होंने इस क्रम में मनरेगा का उदाहरण दिया।
मनरेगा सरीखे तमाम सभी योजनाओं का क्या हश्र है ये सभी को पता है। भ्रष्टाचार इन योजनाओं का किस कदर दोहन कर रहा है ये सभी को मालुम है। मनरेगा में धांधली को लेकर केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी का बयान काफी निराश करने वाला था। जोशी का कहना था कि "गांव स्तर पर मनरेगा अभी अकुशल हाथों से संचालित हो रही है। योजना की 6 प्रतिशत राशि की व्यवस्था प्रशासनिक खर्चों के लिए है, लेकिन राज्य सरकारें इसके लिए अलग से कर्मचारियों की व्यवस्था नहीं कर पा रही है। इस कारण योजना के क्रियान्वयन में कठिनाईयां आ रही हैं।" अब आप मनरेगा यानी महात्मा गांधी रोजगार राष्ट्रीय ग्रमीण रोजगार गांरटी योजना पर खर्च होने वाली राशि पर भी जरा एक नज़र डाल लें। मनरेगा का उद्देश्य देश के 4.5 करोड़ गरीब जनता को 100 दिन का रोजगार मुहैया कराना है। साल 2009- 10 में इस योजना पर सरकार ने 39, 100 करोड़ रुपये खर्च किए। वहीं साल 2010-11 में इस योजना पर खर्च होने वाली राशि को बढ़ाकर 40, 100 करोड़ रुपये कर दी गई है। अब हमारे माननीय ग्रामीण मंत्री क्या जवाब देंगे कि आखिर बिना रिसर्च के...बिना तैयारी के वो क्यों आम जनता के पैसे को पानी में बहा रहे हैं। अगर उनके पास प्रॉपर तैयारी नहीं थी, तो क्यों देश की जनता की गाढ़ी कमाई को भ्रष्टाचार के हाथों में सौंप दिए। देश में ऐसी ही तमाम योजनाएं है जो भ्रष्टाचार को फलिभूत करने के लिए चलाई जा रही हैं। एक मामूली आदमी भी अपना सौ रुपया किसी चीज में लगाने से पहले दस बार विचार करता है...लेकिन सरकार इतने बड़े मद को कैसे बिना सोचे- समझे खर्च कर सकती है। ये सवाल परेशान जरूर कर सकते हैं, लेकिन सोचने का विषय है।
देश में कंपनियों मुनाफा पे मुनाफा कमा रही हैं। लेकिन आम आदमी तो मारा जा रहा है। आखिर क्या सरकार की सारी नीतियां देश के उद्योग घरानों के लिए है? एक डेमोक्रेटिक सिस्टम में सरकार के लिए तो सभी जनता एक समान है। सभी नीतियों का संचालन जनता की खुशहाली के लिए किया जाता है। लेकिन हमारे देश में सभी नीतियां वास्तव में यहां के कुलीन वर्गों के लिए ही क्यों हैं और आम वर्ग सरकार की कुनीतियों को ढोने के लिए बाध्य क्यों है? असल में देश में आर्थिक समीकरण ठिक करने के लिए कोई नीति ही नही है। इससे भी खास बात है कि ये हुक्मरान इसे ठीक भी नहीं करना चाहते। क्योंकि चुनावों में मोटे चंदे यही कॉरपोरेट घराने मुहैया कराते हैं। आम जनता तो बस नारा लगाने के लिए होती है।
अगर पेट्रोल की कीमतो में 5 रुपये का इजाफा हो जाता है, अगर डीजल में 3 रुपये की बढ़ोतरी हो जाती है, अगर खाद्य सामग्री का मूल्य 20 रुपये बढ़ जाता है तो इससे ऊंचे तबके को कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला। क्योंकि वो तो एक रात में हजारों रुपये फालतू में फूंक देता है। लेकिन देश की अधिकांश अबादी इससे पीड़ित हो जाती है...उसका चूल्हा- चौका गड़बड़ा जाता है और सरकार कहती है कि देश में लोगों की क्रय शक्ति बढ़ी है, क्योंकि अधिकांश लोग रेस्तारां में भोजन करने आते हैं..लिहाजा फूड चेन खुल रहा है, अधिकांश लोग घर, गाड़ी और लग्जरियस समान खरीद रहे हैं। लेकिन एक वक्त का महंगे रेस्तरां में भोजन करने के बाद आम भारतीय दस दिन तक अपनी जेब को बांध कर घुमता- फिरता है। एक एलसीडी खरीदने के लिए वो इंस्टॉलमेंट करवाता है और कई महिनों तक अपनी बुनियादी जरूरतों को मारता है। लिहाजा उसमें कुंठा घर करती रहती है। उसकी कुंठा तब और उछाल मारती है, जब सरकार बिना- सोचे समझे रोजमर्रा की जरूरी चीजों की कीमतें बढ़ा देती है।
ऐसे में सरकार कहे कि क्रय शक्ति बढ़ रही है, तो ये भी सोचना होगा कि किस शर्त पर क्रय शक्ति बढ़ रही है। देश आर्थिक स्तर पर तो अमीर हो रहा है, लेकिन आम जनता दरिद्र होती जा रही है। एक तरफ देश के गोदामों में अनाज ठूसे पड़े हैं...लाखों टन अनाज सड़ जाते हैं। लेकिन दूसरी ओर एक बहुत बड़ी आबादी भूख से दम तोड़ती है। एक तरफ हमारे देश के रईस लोग एक रात में हजारों- लाखों ऐश- मौज में उड़ा देते हैं, वहीं दूसरी तरफ सरकार आम आदमी के शादी- विवाह में खाने- पिने का हिसाब मांगने लगती है। एक तरफ देश के अमीरों के करोंड़ों- अरबों रुपये विदेशी बैंकों में हिफाजत झेल रहे हैं और दूसरी तरफ आम आदमी का पैसा लोन और इंस्टॉलमेंट के चक्रव्यूह में खत्म हो रहा है। ऐसे में देश में दो धड़ा है...एक तरफ परेशान और कुंठित लोगों की भींड़ है जो सरकार के हर नीतियों को ढो रहा है...दूसरी तरफ एक छोटा और संपन्ना जमात है जो सरकार की नीतियों का मौज काट रहा है। जिस दिन ये बातें आम जनता के दिमाग में ठनक गई तो फिर सिविल वॉर की आशंका को खरिज नहीं किया जा, सकता। ऐसे में जरूरत है आर्थिक लोकतंत्र की भी है.।
--------------अमृत कुमार तिवारी