Thursday, February 10, 2011

ज़िदंगी मेरी जान

उम्र का ऐसा पड़ाव जहां रिश्ते
छोड़ जाते हैं, कुछ तफ्सील से..
तो कुछ बेचैनी के साथ
फिर मतलब गिरेबान पकड़ कर
चिखने लगती है..गरियाने लगती है।
बचे- खुचे रिश्ते अपने पास बुलाते हैं,
गले से लगाते हैं, और फिर
अपने होने का हिसाब मांगने लगते हैं

Wednesday, February 2, 2011

मिस्र में आंदोलन और विश्व का स्वार्थ


एक फरवरी को कहिरा के 'तहरीर स्क्वायर' पर हजारों की संख्या में लोगों का हुजूम 'मुबारक देश छोड़ो' का नारा लगा रहा था। मिस्र के सभी प्रमुख शहरों काहिरा, अलेक्जेंड्रिया, अस्वान और शर्म-अलशेख में आंदोलनकारी जमकर प्रदर्शन कर रहे थे...और एक ही आवाज गुंज रही थी...मुबारक देश छोड़ो। जैसे- जैसे भीड़ की उग्रता बढ़ रही थी...वैसे- वैसे मिस्र के राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक की चिंताएं भी बढ़ती जा रही थीं। उसी रात मुबारक ने सरकारी टीवी चैनल पर मिस्र की जनता को संबोधित किया और सितंबर में चुनाव कराने और खुद को सक्रीय राजनीति से अलग करने का एलान कर दिया....इस दौरान उन्होंने ये भी स्पष्ट कर दिया कि वे देश छोड़ कर नहीं जाने वाले। उनके इस संबोधन को तहरीर स्कवॉयर पर मौजूद हजारों प्रदर्शनकारियों ने जूता लहराकर स्वागत किया।
प्रदर्शनकारियों की मानसिकता दर्शाती है कि वे अब ज्यादा दिनों तक हुस्नी मुबारक और उनकी सरकार को झेलने को तैयार नहीं है। लिहाजा वे हुस्नी मुबारक को जल्द से जल्द गद्दी और देश छोड़ने की बात पर अड़े हैं। प्रदर्शनकारियों कि स्थिति रोज- बरोज मजबूत होती जा रही है। वहीं मिस्र की सेना भी हथियार छोड़ आंदोलन कर रहे लोगों के साथ मिल गई है। सेना ने सत्ता परिवर्तन और लोकतंत्र की बहाली की मांग कर रही जनता पर बल प्रयोग करने से भी इंकार कर दिया है। ऐसी स्थिति में मिस्र के राष्ट्रपति की मुश्किलें काफी बढ़ गई हैं। जो हालात मिस्र में पैदा हुए हैं...उससे ना सिर्फ मिस्र का सत्ता वर्ग बल्कि यूरोप, अमेरिका और दक्षिण एशिया के देश भी चिंतित हैं। इनकी चिंताए पूरी तरह अपने स्वार्थों को लेकर है। शुरू- शुरू में सभी देश मिस्र की घटना पर नज़र बनाए हुए थे, लेकिन जैसे ही मिस्र में स्थिति बदतर हो गई तब इस पर सबसे पहले विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका ने सबसे पहले पहल शुरू की। आनन- फानन में मिस्र में अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को पहले के मुकाबले ज्यादा सक्रीय कर दिया गया। अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने पूर्व डिप्लोमेट फ्रैंक वाइजनर को मिस्र का विशेष राजदूत न्यूक्त कर उन्हें काहिरा रवाना कर दिया और स्थिति को सामान्य बनाने की कवायद तेज कर दी। तब लेकर अब तक अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा लगातार मिस्र के राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक से जुड़े हुए हैं।
मिस्र के संदर्भ में अमेरिका की चिंता कई वजहों महत्वपूर्ण है। इस पूरे प्रकरण के चलते मिस्र में अमेरिका की सामरिक और आर्थिक नीतियां दांव पर लगी है। क्योंकि अगर सत्ता परिवर्तन होता है, तो उसका स्वार्थ सबसे पहले मारा जाएगा। हुस्नी मुबारक अमेरिका के नजदिकियों में से एक हैं और मिस्र की अर्थव्यस्था की बुनियाद वहां का तेल के व्यापार पर आधारित है। अमेरिका मिस्र के साथ पेट्रोलियम पदार्थों की खरीद- बिक्री में भी काफी हद तक सहभागी है। मिस्र के बाजार में अमेरिका का बहुत बड़ा हिस्सा है। लिहाजा अमेरिका भी हुस्नी मुबारक से कहीं ज्यादा चिंतिंत दिख रहा है। इराक में पैर जामाने के बाद कुटनीतिक तौर पर मिस्र अमेरिका के लिए पहले से और भी अहम हो गया है। अगर मिस्र की भौगोलिक दशा का अध्ययन किया जाए तो ये यूरो, अफ्रिका और एशिया को जोड़ने का काम करता है। यूरोप और एशिया के बीच व्यापार का भी बड़ा माध्यम है। अगर अमेरिका की पैठ मिस्र में रहती है, तो वो आसानी से इन क्षेत्रों की गतिविधियों पर नज़र रख सकता है। साथ ही इससे सटे इस्राइल, फिलिस्तीन, जॉर्डन, सीरिया, सूडान और लीबिया का भी हिसाब- किताब रख सकता है। अमेरिका के अलावा दक्षिण एशिया के देशों का भी स्वार्थ मिस्र की वर्तमान सरकार पर टिका है। स्वेज नहर यूरोप और एशिया के बीच सबसे बड़ा व्यापारिक चैनल है। जिसके माध्यम से दोनो महाद्वीपों से अरबों डॉलर का व्यापार होता रहता है। साथ ही मिस्र में पेट्रोलियम पदार्थों का भंडार भी एक अहम वजह है। अगर मिस्र में सत्ता परिवर्तन होता है तो इसका प्रत्यक्ष असर भारत की अर्थव्यवस्था पर देखने को मिलेगा। क्योंकि मिस्र और इसके पड़ोसी देशों से भारत पेट्रोलियम पदार्थों का आयात करता है...अगर नई सरकार की नीतियां भारत के खिलाफ रहीं तो हो सकता है..आने वाले दिनों में भारत में महंगाई और बढ़े।
असल में मिस्र को लेकर अमेरीका और बाकी देशों की चिंता खास तौर पर ब्रदरहुड को लेकर है। ब्रदरहुड मिस्र में कट्टरपंथी विचारधारा की मुख्य विपक्षी पार्टी है। अगर मिस्र में ब्रदरहुड सत्ता में आती है..तो मिस्र का प्रो- अमेरिकन नीति को धक्का पहुंचेगा और अमेरिका का मिस्र पर से प्रभाव खतम हो जाएगा। साथ ही उदारीकरण पर भी ये पार्टी नकेल कसने से गुरेज नहीं करेगी। ब्रदरहुड को लेकर अमेरिका की चिंता सिर्फ यहीं तक सिमित नहीं है। ब्रदरहुड ना सिर्फ मिस्र में बल्कि इस पार्टी का अस्तीत्व मिडिल ईस्ट के कई देशों में है। अफगानिस्तान का मोस्ट वांटेड तालिबानी नेता मोहम्मद अल जवाहिरी ब्रदरहुड का सदस्य है। इस पार्टी का आतंकी संगठन अलकायदा से भी लिंक होने का शक है। ऐसे में ये कयास भी काफी जोर पकड़ रहा है कि अगर ब्रदरहुड सत्ता में आती है तो मिस्र की कुटनीति और राजनीतिक उद्देश्य अमेरिका के खिलाफ हो सकता है...साथ ही उन देशों के खिलाफ भी होगा जो अमेरिका के साथ कदम- ताल करते हैं। और जिस रफ्तार से आंदोलन तेज हो रहा है, उसमें ब्रदरहुड एक मजबूत ताकत के तौर पर उभर कर आई है। इस पार्टी को लोगों को समर्थन भी खूब मिल रहा है। मिस्र में जो कुछ हो रहा है..उसमें प्रजातांत्रिक सरकार की मांग के साथ धार्मिक कट्टरवाद ने भी घुसपैठ कर लिया है। वर्तमान राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक की नज़दीकी इस्राइल से भी छुपी नहीं है। अरब के लगभग सभी देश इस्राइल के खिलाफ हैं, जबकि फिलहाल मिस्र का संबंध इस्राइल से काफी अच्छा है। दुनिया के मुस्लिम समुदाय में इस्राइल एक खलनायक की तरह है। मिस्र में चूंकि मुस्लिम आबादी काफी अधिक है..लिहाजा यहां कि आवाम इस्राइल से बढ़ती नज़दिकियों से भी नाराज थी...और ब्रदरहुड इसकी मुखालफत करने वाली मुख्य पार्टी थी। ऐसे में अधिकांश लोगों का सरोकार और ब्रदरहुड का सरोकार एक जैसा प्रतीत हो रहा है...लिहाजा ब्रदरहुड मिस्र में पहले के मुकाबले काफी शक्तिशाली दिख रही है और सत्ता की प्रमुख दावेदार भी।
लेकिन मिस्र के इस आंदोलन को एक ही नज़रिए से देखना कतई उचित नहीं होगा...मिस्र में जो आज हालात उत्पन्न हुए हैं.उसमें उपरोक्त बातें अहम हो सकती हैं...लेकिन और भी कुछ मुद्दे और भी हैं जिन्हें खंगालने की जरूरत है। मिस्र में शासन तंत्र के खिलाफ लोगों का गुस्सा एक दिन में नहीं फूटा है। इसके लिए कुछ हद तक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं...तो काफी हद तक हुस्नी मुबारक की दमन-कारी नीतियां भी। वर्तमान में समूचे विश्व की अर्थव्यवस्था महंगाई के बुखार से तप रही है और मिस्र इससे अछूता नहीं है। मिस्र की अर्थव्यवस्था की बात की जाए तो 1990 से पहले यहा कि आर्थिक व्यवस्था पब्लिक सेक्टर के हाथ में थी। 1990 से मिस्र में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ। मिस्र ने अपने बाजार को दुनिया के देशों के लिए खोल दिया। एफडीआई में बेतहाशा बढ़ोतरी होनी शुरू हो गई। विश्व की तमाम मशहूर कंपनियों ने मिस्र में निवेश किया। पब्लिक सेक्टर का प्राइवेटाइजेशन होने लगा और देखते ही देखते मिस्र आर्थिक रूप से अफ्रीका का सबसे समृद्ध देश बन गया। लेकिन बाजारवाद के इस दौर में मिस्र की सरकार ने कृषि क्षेत्र पर खासा ध्यान नहीं दिया। नतीजा लागातर खाद्य- सामग्री की कमी होनी शुरू हो गई।
वैसे देखा जाए तो मिस्र के कुल भूभाग का सिर्फ तीन प्रतिशत हिस्सा ही कृषि योग्य है। अधिकांश कृषि- कार्य नील नदी के डेल्टा वाले क्षेत्रों में किया जाता है। लेकिन इतिहास गवाह है कि नील नदी के किनारे धरती इतनी समृद्ध है कि वो मिस्र के लोगों का भेट भर सके। 90 के बाद से कृषि क्षेत्र उपेक्षा का शिकार हो गया। साल 2008 में मिस्र में खाद्यान संकट पैदा हो गया। देश की 40 प्रतिशत गरीब जनता भूखमरी के कगार पर आ गई। इसी साल वैश्विक आर्थिक मंदी ने भी यहां की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। लिहाजा बेरोजगार और भूखे मरने वाले लोगों की जमात अधिक हो गई। गरीबी और अमीरी के बीच की खाई पहले से और भी ज्यादा हो गई। ऐसे में जनता के भीतर बौखलाहट लाजमी है। भूख से तिलमिलाई जनता का गुस्सा तब और फूट पड़ा जब उसका मुठभेड़ वहां कि तानाशाही से हुआ। वैसे तो नौकरशाही का अत्याचार तो मिस्रवासी काफी वक्त से भुगत रहे थे। लेकिन भूख से विचलित जनता पर जब प्रशासन ने जुल्म के कोड़े बरसाने शुरू किए तो जनता का विद्रोह सामने आ गया।
इन दिनों फेसबुक पर 'वी आर ऑल खालेद सईद' नाम की क्मयुनिटी काफी चर्चा में है। ये कम्युनिटी मिस्र के आंदोलन को देश के बाहर बैठे लोगों के जोड़ रही है। इसमें को संदेह नहीं कि वर्तमान में सोशल नेटवर्किंग साइट विद्रोह को प्रसारित करने में अहम रोल अदा कर रही हैं। इसी का परिणाम है कि दुनिया में जहां कहीं भी तानाशाही है..ट्यूनिशिया और मिस्र की घटना को देखते हुए उन्होंने सबसे पहले अपने यहां सोशल नेटवर्किंग साइट्स को बैन कर दिया है। दरअसल ' वी आर ऑल खालेद' कम्युनिटी उस शक्स के नाम पर बनाई गई जो पुलिस जुल्म का शिकार हो गया। काहिरा में खालेद सईद नाम के नौजवान को पुलिस ने बिना बात के गिरफ्तार कर लिया और उसे तब तक टॉर्चर करती रही, जब तक की उसकी जान नहीं चली गई। खालेद का जुर्म बस इतना था कि उसने पुलिस वालों से जुबान लड़ाई थी। ज़ाहिर है इस घटना से वहां के शासन की निरंकुशता सामने उभर कर आती है। ऐसे में जनता के पास सिवाय विद्रोह के और कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता। लेकिन विद्रोह वही कर सकता है, जो सिस्टम की खामियों को समझ सकता हो...जिसे अपने राजनीतिक अधिकारों का पता हो। बीते दशकों में मिस्र की जनता के शिक्षा के स्तर पर विकास हुआ है। लोगों में जैसे ही शिक्षा का स्तर बढ़ा वैसे ही उन्होंने खुद के हालातों की आर्थिक और राजनीतिक समीक्षा शुरू कर दी। मिस्र की इकॉनमी में पेट्रोलियम पदार्थों का सबसे बड़ा योगदान है...और पेट्रोलियम बाजार अमेरिका और यूरोप के हाथ में है। मिस्र के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कोई और मुल्क करे अब यहां कि जनता को इस बात को पचाने में काफी दिक्कत होने लगी है। अगर ये कहा जाए कि मिस्र के लोगों का ये आंदोलन अपने देश के बाजार पर अधिकार की मांग है तो भी गलत नहीं होगा। समग्र रूप से देखा जाए तो इस आंदोलन में हर वर्ग जुड़ा है...चाहे वो यहां कि इंटेलिजेंसिया हो या फिर नीचले वर्ग की शोषित जनता। सभी अपने हक़ और हकूक की मांग कर रहे हैं।