Wednesday, September 29, 2010

सड़क पे हिंदुस्तान पड़ा है

साथी मत सो जाना अब तुम
सड़क पे हिंदुस्तान पड़ा है

सीने में है रोष तुम्हारे
सामने भ्रष्टाचार खड़ा है।
करो वार- पे वार योद्धा
दुश्मन लौह के भांति जड़ा है
आत्मबल है हथियार तुम्हारा
जो तुम्हारे पास पड़ा है
साथी मत सो जाना अब तुम
सड़क पे हिंदुस्तान पड़ा है।

उठ मनई..मत हार मन को
किसने तुम्हे अभिशाप दिया है
किसने तुम्हारा पथ है रोका
किसने तुम्हे ये पाप दिया???
लो प्रतिकार चुकाओ हिसाब
जिसने तुमको लूटा है...
खोलो आंखे जागो अब तुम
वो दुष्ट तुम्हारे पास खड़ा है
साथी मत सो जाना अब तुम
सड़क पे हिंदुस्तान पड़ा है

राजनीत जहां बन गई वेश्या
मंत्री जहां दलाल बने हैं
जिसने की है लूट- खसोट
वे गुदड़ी के लाल बने हैं
पोछ डाल सपनों की ओस को
और जीत उस रण को अब तुम
जिसको तू कई बार लड़ा है
साथी मत सो जाना अब तुम
सड़क पे हिंदुस्तान पड़ा है

Sunday, September 26, 2010

जीत या हार

" रघुवीर पहलवान जिंदाबाद...रघु भईया जिंदाबाद.. बोले बोले--बजरंगबली की जय"

सोबईबांध गांव की गलियां नारों से गूंज गई। गांव के नौजवान ढोल नगाड़े बजा रहे थे...। महावीरी झंडा में रघुवीर ने बनारसी पहलवान को पछाड़ा था। 19 साल के रघुवीर को उसके दोस्त कंधे पर उठाए हुए थे। रघुवीर की आंखे श्रीवास्तव जी की कोठी की तरफ देख रही थीं। जिन नजरों की वाह- वाही वो चाह रहा था वो कोठी से निहार रही थी। ममता सखियों के साथ छिटा- कशी कर रही थी। "उम्ह! ...बनारसी पहलवान कौनो भीम के खानदान के थोड़े होते हैं ..जिन्हें हराने के बाद इतना हंगामा मचाया जा रहा है। पांच हजार का इनाम मिल गया सो कौन सी बड़ी बात है??" इन सबसे बेपरवाह रघु का काफिला उसके घर की तरफ बढ़ता है। " धा धिक् धिक् धमा धम..धा धिक धमा धम...बोले बोले बजरंग बली की जय!..... रघु भईया जिंदाबाद......जिंदाबाद जिंदाबाद।"  यादव टोला में रघु के जीत खासा चर्चा में थी.... "अरे भाई... जगेसर का लौंडा तो कमाल कर दिया... बनारसी पहलवान को हराया है। अब आस- पड़ोस के गांवो को पता चल गया होगा कि सोबईबांध में कौनो खर- पतवार नहीं रहते हैं। इन नौ जवानों को तो करनई गांव तक डंका पीट के आना चाहिए था। बड़ा फजीहत किए रहे सब। हम तो कहते हैं कि एक- एक कहतरी (दही रखने वाला मिट्टी का पात्र) दही उसके घर भेजवा देते। आखिर मूंछ पे ताव लाया है लड़का। अभी 19 साल में इ हाल है...जवानी तो अभी इंतजार कर रही है।" इधर ढोल नगाड़ों पर थिरकते नौ- जवानों का हुजूम रघु के घर पर आ पहुंचा। सभी रघु का खासम- खास बनने के लिए बेधड़क उसके घर में घुस रहे थे। " ऐ चाची देखो...इ तोहार लड़का क्या कर दिया है। पूरे गांव में रघु के नाम का डंका बज रहा है।"... रघु के घर के सामने लोगों का लब्बो- लोआब सिर चढ़ के बोल रहा था। आनन- फानन में झमन डीजे कंपनी आ गई। " रे छौड़ा..धत्त पवन सिंह के गाना बजाऊ..." और डीजे की गूंज से आस- पास के घरों के बर्तन खनखनाने लगे। " टुगडूम..टुगडूम.. ए मुखिया जी मन होखे त बोलीं...ना ही त रऊआं खाईं बरदास्त वाला गोली।" मलखान तो हरनाथ के लौंडा को नचा- नचा के पानी पिला दिया था। दुआर नाच की चौकड़ी के चलते अखाड़ा में तब्दील हो गया था।
दूसरी ओर घर के भीतर रघु की मां रघु पर बरस पड़ीं थी। " एह जुता पिटऊ के कौन सिखाए... पहलवानी से घर- बार का खर्चा ना चले। तुम्हारे बाप भी पहलवानी करते- करते इहे दिए है सिन्होरा...और तुम ये पांच हजार के इनाम से न जाने कौन सा राज दे दोगे। अरे कौनो रोजगार करोगे या नहीं। जिंदगी का खर्चा- पानी कैसे चलेगा। एक- आध साल में तुम्हारी जोरू आएगी तो क्या दोगे अपने बाप जइसा ही सिन्होरा?? काठ काहे मारा है तोहके? पढ़ाई छोड़ के अखाड़ा में पड़े रहते हो। अरे इ ताकत...इ जवानी हमेशा नहीं रहती काहें नहीं समझते। बाहर मजमा लगाये हो... कल घर में खर्ची खत्म हो जाए तो एक छटाक तक कोई नहीं देगा। चले आए हो दंगल जीत के। अरे जिंदगी का दंगल इससे कहीं अधिक चुनौती वाला है।" रघु हमेशा की तरह इस बार भी अपनी मां की फटकार सुन रहा था।

Monday, September 20, 2010

भरम...


काश के मैं चित्रकार होता
बहकी सी अदा और मचलती शोखियों को
उतार देता अपने कैनवास पर
जैसे दिल की परत पर उभर गई है
तुम्हारी ही छवि...

काश के मैं संगीतकार होता
सजा लेता तुम्हें अपने सुरों में
फिर आत्मा से लेकर अक्श तक
तुम ही तुम होती...मेरे करीब होती

काश के मैं एक कश्ती होता

तुम्हारे हुस्न के भंवर में अटखेलियां खाता
बिन पतवार के.... तुम जहां ले चलती वही मेरा ठिकाना होता

लेकिन मेरा मुकद्दर साहिल है..
किनारों से बस तुम्हें निहारना ही मेरी फितरत है
तुम्हारी जवां लहरों का मेरे पास आना
और फिर आके सागर में समा जाना
बड़ी कसक...बड़ी टीस देता है..।।

Saturday, September 18, 2010

बेहाल मन


जलते दीए पर, अब हवाओं ने नज़र डाली है
लव सिसकियां ले रहा है...दीवार की ओट अब नकाफी है
बयार के थपेड़ों से कोई कब जीता है???
उंघते हुए दीए को अब ये बात समझ आई है।
पूरवा- पछुआ हो देख लिया जाता
ये हवा नौटंकीबाज है...दीए की जान पर बन आई है।
सूत सी लव अब लड़खड़ा गई है
सांसे छूट गई हैं...रौशनी हार गई है।
अब तो निपट अंधेरा और मैं अकेला
बिन रौशने के बैठा हूं..
सिसकारती... फूफकारती चांडाल हवाओं ने,
मेरे हौसले को गिला कर दिया है...
काश के कोई चिंगारी उधार मिल जाती
अट्ठास होता मेरा और हवाएं सिहर जातीं
फिर तो एक नहीं सैकड़ों लौ की लड़ियां होतीं
सपने मेरे सुबह होते... और निराशा रातें होतीं।।

Thursday, September 16, 2010

ये सवाल बड़ा बेचैन करता है...


कश्मीर में शांति बहाली की दिशा में जिस तरह की कोशिशें की जा रही हैं, उसको देखकर मन में संदेह पैदा होता है। क्या सरकार इतनी बेचारी है कि कोई ठोस निर्णय नहीं ले सकती? सर्वदलीय बैठक का परिणाम ये रहा कि एक ऑल पार्टी डेलिगेशन को कश्मीर के दौरे पर भेजा जा रहा है। लेकिन क्या ये प्रयास काफी है? क्या इससे समस्या का समाधान हो जाएगा? घाटी का दौरा करने से राजनीतिक दल वहां के लोगों की कौन सी साईकॉलजी समझ लेंगे ये समझ के परे है। ये दौरा मुझे चाय- बिस्कुट के नाश्ते से ज्यादा कुछ नहीं नज़र आ रहा है। नेतागण घाटी का उस वक्त दौरा करेंगे जब कर्फ्यू लगा रहेगा, कोई घर के बाहर नहीं होगा, बाजार, स्कूल और कॉलेज बंद रहेंगे। फिर वहां की आवाम से बिना इंटरेक्शन किए बगैर हालात को कैसे समझ लेंगे?? बिना जनता के स्टेट कि परिकल्पना ही बेमानी है और जो हालात है वो जनता के द्वारा ही तो हैं। ये बात समझ में नहीं आ रही कि क्या सिर्फ नदिया पहाड़ और झरनों से बतिया लेने भर से कश्मीर के हालात को समझा जा सकता है? हां हमारे सुरक्षाबल किस अवस्था में वहां पर काम कर रहे हैं इसको समझा जा सकता है और एएफएसपीए पर एक आम राय बन सकती है। लेकिन मात्र एएफएसपीए ही कश्मीर का मात्र उपाय नहीं हो सकता। ढेरों कारण हैं और ऐसा भी नहीं सरकार अगर ठान लें तो उन कारणों का निवारण नहीं हो सकता। फिर क्या वजह हो सकती है कि सरकार कोई ठोस रोडमैप नहीं बना पा रही है? अगर आप लोगों के पास कोई उत्तर हो इन सवालों के तो जरूर बताने का कष्ट करें। अभी मेरे एक मित्र से बात हो रही थी..उनका तर्क था कि सरकार इंसरजेंसी को कायम रखना चाहती है। भला इंसरजेंसी सरकार को फायदा कैसे पहुंचा सकती है...इस सवाल का तो सीधा- सीधा मित्र महोदय ने जवाब तो नहीं दिया हां एक पक्ष रखकर जस्टिफाई करने की कोशिश जरूर की। उनका कहना था कि जब स्वामी अग्निवेश नक्सलियों से बातचीत के लिए मिडिएटर की भूमिका निभा रहे थे, तो सरकार ने ही उसमे रोड़े अटकाए। स्वामी अग्निवेश नक्सली नेता आजाद से बातचीत के लिए बात किए और आजाद तैयार भी हो गये। इसके कुछ ही देर बाद अग्निवेश इस बात को प्रधानमंत्री तक पहुंचाए। लेकिन अगले ही कुछ दिनों बाद आजाद का एनकांउटर हो गया। जिसके बाद काफी बवाल भी हुआ औऱ राजनीतिक कशमकश का माहौल भी बना रहा। खैर अपने मित्र के इस पक्ष को यहीं पर विराम देता हूं और ये समझने की कोशिश की जाए कि क्या इस घटना को कश्मीर के हालात से जोड़ा जा सकता है। मतलब अगर मान लिया जाए कि सरकार नक्सल इंसरजेंसी बरकार रखना चाहती है तो भला कश्मीर में इसे जिंदा रखने में क्या भलाई है। फिलहाल तो ये बिना सिर और पैर वाली बात लग रही है। लेकिन दाल में कुछ काला ज़रूर है कि सरकार कोई ठोस कार्रवाई नहीं कर पा रही है। उमर अब्दुल्ला की कशमकश भी बेचरगी की श्रेणी खड़ी है। गलियों में पत्थर लेकर जो युवा निकल रहे हैं, उन्हें संगीनों का कोई डर नहीं है। वे इसी माहौल में पले- बढ़ हैं और गोलियों की तड़तड़ाहट से वे अंजान नहीं है। ऐसे में वे कर्फ्यू तोड़ बाहर आते हैं तो कोई आश्चर्य भी नहीं है। तो क्या उन नौजवानों के जहन में जमे जहर को निकाला नहीं जा सकता? अगर सरकार को माइल्ड स्टेप्स लेने ही है तो आखिर देरी किस बात की है? जब घाटी में कुछ और लाशें गिर जाएंगी और बवाल पहले से ज्यादा उफान मारने लगेगा तब सरकार स्टेप्स लेगी। सवाल काफी हैं...जवाब देने वाला कोई नहीं मिलता। घाटी का इतिहास पता है। विलय कैसे हुआ ये भी पता है। वर्तमान कैसे ठीक हो...और भविष्य कैसे दुरूस्त हो इसकी टीस है।