Sunday, November 16, 2008

विराम के लिए क्षमा चाहता हूं

स्वास्थय संबंधी कारणों से सक्रिय नहीं रह पा रहा. इसलिए क्षमा चाहता हूं।
जल्दी ही ब्लॉगिंग करने लौटूंगा।
 
 
धन्यवाद


Add more friends to your messenger and enjoy! Invite them now.

Tuesday, November 11, 2008

ये हिंदूस्तानी लोकतंत्र है..बीड़ू

आज फिर मैंने एक खबर पढ़ी की मध्यप्रदेश के चुनावी बयार में वहां के पर्यटन मंत्री तुकोजीराव को चुनाव आयोग के आदेश पर गिरफ्तार कर लिया गया। मंत्रीजी पर आरोप है कि उन्होंने सरकारी कामकाज में बाधा पहुंचाई। दरअसल मंत्री महोदय सत्ता के रौब में पिछले 5 सालों से जीते आ रहे हैं, इस दरम्यान मजाल किसी की, कि मंत्रीजी किसी सरकारी दफ्तर में जाएं और कोई बाबू टाइप कर्मचारी इनसे सवाल पूछने का दुस्साहस करे। वैसे तो मंत्री लोगों को इतनी फुरसत कहां कि वो दफ्तरों में जायें। अधिक्तर काम तो पत्र व्यवहार और दूरभाष पर ही समपन्न हो जाते हैं। लेकिन कार्यकाल के अंतिम वर्षों में जब मत्रीजी लोग दफ्तरों के चक्कर लगाएं तो उनके आराम परस्त ज़िंदगी पर कितना आघात पहुंचता होगा इसका अंदाजा एक सामान्य आदमी भी लगा सकता है। बहरहाल मंत्री जी पहुंचे थे दफ्तर में, शायद कोई तफ्तीश करनी थी या...कुछ और ...यह कहना तो मुश्किल है, भाई बिना देखे आरोप मढ़ना बहुत बुरी बात होती है। वैसे वहां पर किसी सरकारी मुलाज़िम ने उनसे प्रश्न कर बैठा और जो मंत्री जी की ख्वाहीश/रिक्वेस्ट थी उसकों वह सिरे से खारिझ कर दिया। अब यह मंत्री महोदय को नागवार गुजरना लाज़मी था फिर क्या था धुआधार अपशब्दों का गोला दागना शुरु कर दिए। चिखने-चिलाने पर तो किसी का ध्यान ही नही गया। दरअसल मंत्री जी पांच सालों तक विधान सभा में रहे हैं। वहां की संस्कृति का रंग इतनी जल्दी थोड़े ही छूटने वाला है।
पता नही ये, इलेक्शन कमीशनर भी टी. एन. सेसन के धूर चेले हो गये हैं, कभी-कभार तो इनको अपने पावर का इस्तेमाल करने को मिलता है.. फिर आव में नही रहते। शायद इन्हें पता नही कि विधान सभा से लेकर संसद तक इन्ही की तूती बोलती है। किसी दिन ऐसा प्रस्ताव पास करायेंगे कि इनकी घिघ्घी बंध जाएगी। कोई जनकल्याण वाला बिल थोड़े ही होगा कि अधर में लटका रहे। यह तो नेताकल्याण बील होगा एक ही सत्र में कानून बना देंगे।
अब एक-आध कर्तव्य परायण कर्मचारियों को कौन समझाये कि संविधान की चीजे बस अतिश्योक्ति मात्र ही हैं, हवा की चीज है, ज़मीन पर तो हमारे राजनीतिकगण होतें हैं उनके आदेश और अनुकंपा होती है, वैसे आज़ाद हिंदुस्तान की बुनियाद ही कुत्सित राजनाति है। देश आज़ाद हुआ था लोग थोड़े ही हुए थे। इनकों समझना चाहिए कि अगर आज़ाद होता तो पाट्य पुस्तकों में क्यों नही भगत सिंह की सच्चाईयों को रखा जाता है? क्यों नहीं सुभाष चंद्र बोस को सही रुप में रखा जाता है? क्यों नही अंबेडकर के शिकायतों को भी रखा जाता है जो कि गांधी और नेहरु से थी। क्यों नहीं आपात काल का जिक्र और उसके उद्देश्य को बताया जाता है?

Sunday, November 9, 2008

कुछ बातें

महामहीम की कस्टम विभाग में नौकरी लगी है। लोग अक्सर सुनते ही बोल पड़ते हैं.."चलो अब चांदी काटेंगे, बहुत उपरवार कमा है"। ऐसी अनेकों बार घटनाएं हुई है जब इस पर लोगों ने सवाल किये हैं। पता नही खुशी से करते थे या फिर चुटकी लेने के लिए..."और, आईएस की तैयारी कहां तक पहुंची"? महामहीम तुरंत खुशी पूर्वक बताते ...."जी दरअसल तैयारी चल रही है..वैसे मैने अभी-अभी एक परीक्षा पास की है...कस्टम ऑफिसर का जॉब है"।।। फिर लोग तो इंतिहाई खुशी का सागर उड़ेलते हुए बोल देते..."वाह यार..अब तो खुब चांदी कटेगी..बहुत पैसा है"।। महामहीम का उस समय चेहरा कुछ स्प्ष्टीकरण नही दिया लेकिन एक भाव ज़रूर प्रदर्शित कर दिया कि....नहीं, आप के यह विचार एक बार भी मेरे व्यक्तित्व का खयाल नही किए कि मैं कैसा प्राणी हूं, मेरे ही समक्ष खड़े होकर मेरे ही सिद्धंतों पर शक जता रहे हैं.।। लेकिन महामहीम यह सब बातें शायद अंदर ही पी जाते। वैसे समय बढ़ता गया और ऐसी बातों कारवां भी बढ़ता गया। लेकिन उस दिन जब हम लोग 'मैं इस्तांबुल हूं' देखने गये थे तो उसी वक्त उनके जानने वाले ने कुछ कस्टमियां आचरण को उजागर किए। मुझे लगा अब महामहीम कुछ सार्थक जबाब देंगे, लेकिन ये क्या.. महामहीम एक दम बेचारे से दिखे, बोले...अच्छा तो यो बताइए कि इन सब घुस-घास के चक्कर से कैसे बचा जाय। उस समय ऐसा लगा मानो महामहीम थके-थके से लग रहे हों। वैसे महामहीम इंजिनियरिंग में बीटेक किये हुए थे लेकिन इंजिनियर की नौकरी नही कर वो सिविल सर्विसेज में जाना चाहते थे। उनके साथ के पास-आउट मोटी पगार पा रहे थे लेकिन महामहीम सिस्टम में जाकर बेहतर करना चाहते थे। पावर नही सेवा को तवज्जो देते थे। असूलन अब कस्टम अफ़सर होने पर भी अभिलाषा ईमानदारी की है। अगर इसी असूल की बात करू तो एक एक दिन मेरे सामने ही बस कंडक्टर से सीट के लिए भींड़ गये थे। दलील थी कि यह यात्री सीट है और मेरा अधिकार है कि मैं इस पर बैठूं, अंत में उस कंडक्टर को उठना ही पड़ा था। कई ऐसी वारदातें हैं जिनका वर्णन करू तो बहुत ही लंबा हो जायेगा। कहां नहीं महामहीम ने अपना लोहा नही मनवाया था। बिल्डिंग में समाजवाद की लहर को वो ही ज़िंदा रखे थे। कहीं भी राष्ट्रगान हो और महामहीम सावधान खड़े न हो या फिर क्षेत्रीय टिप्पणी भी किसी के मूंह से निकल जाती तो महामहीम गुस्से से आग बबूला हो जाते थे। एक दिन विनय ने कुछ लड़कियों को संबोधित करते हुए कहां कि ये जो चिंकी है....बस फिर क्या था महामहीम ने टप से आगे के वाक्य बीच में ही काट विनय को लपक लिए। "क्या वो भारतीय नही, सिर्फ तुम हो, सोचो तुम अगर नॉर्थ-इस्ट के किसी शहर या गांव में होते तो तुम्हें कैसा लगता। संबोधन करना ही था तो कोई और शब्द नही मिला था। दूर की छोड़ो जब तुम्हे कोई बिहारी बोलता है तो तुम कैसे बिफर पड़ते हो"....."विनय तुरत ही बोला...भईया मैं बिहारी नही झारखंड का हूं, महामहीम ने हल्की गंभीर मुस्कान लिए बोले....तो दोस्त तुम्हे तो इस दर्द का एहसास होना चाहिए। यदि इस टीस के बावजूद तुम ऐसी टिप्पणी करते हो तो इनका कोई दोष नही जो बिना किसी टीस के बिहारी बोलने में गुरेज नही करते"। अक्सर मेरी और महामहीम की बहस किसी विषय पर छिड़ ही जाती। याद है कि हम लोग रात के चार-चार बजे तक बहस करते। जातिवाद से लेकर,भ्रष्टाचार,पाखंडवाद, कुत्सित राजनीति, सिस्टम की खामियां और महत्ता, लोगों की लोकतंत्र में भागीदारी, मार्क्सवाद, पूंजीवाद, गांधीवाद इत्यादि, इत्यादि।।। कुछ लोग ऐसे भी थे जो कभी महामहीम को सुन लेते तो उनकी ही बातों को अपना बनाकर, आशय का स्वरूप बदलकर अपनी समझ के अनुसार दूसरे लोगों के सामने पेश करते। लोग भी बड़े चाव से सुनते थे।
शिक्षा में आरक्षण के वे धूर विरोधी हैं, कभी कहीं पढ़ लेते की फलां आदमी अपने पहले अटेंप्ट में ही आईएस क्वालिफाई कर लिया है तो इस बात को बड़े ही गर्व से बाताते मानों कहीं ना कहीं वह खुद को उसी आदमी के रुप में देख रहे हों। लेकिन दूसरे ही दिन घोर आपत्ती के साथ उसी घटनाक्रम में आगे वाक्य जोड़ते," यार वो जो लड़का क्वालीफाई किया है वह OBC से था। मैं उसे जानता हूं, बड़े ही सम्पन्न परिवार से है, कोचिंग पढ़ने खुद के कार से जाता है। अब इसे आरक्षण की क्या ज़रुरत??? मतलब मैं तो चुतिया हूं...मेरे पापा भी कहते हैं कि हमारी जाति विशेष के लोगों को बिहार में आरक्षण प्राप्त है, आने वाले पीसीएस में इसका लाभ उठाओ....लेकिन मैं ऐसा काम नही करता वगैरह..वगैरह........."।।
अब महामहीम सिस्सटम में घुस चुके हैं और उनके अंदर सिस्टम की बेबसी अभी से देख रहा हूं....इधर मैं भी पत्रकारिता के एक दुकान में सेल्समैंन हो गया हूं.। अब हमारे आक्रोश, परिवर्तन लाने की लहर, बेदाग़ आचरण की कामना जिंदगी की लहरों में डूब रहे हैं उतरा रहे हैं।

Friday, November 7, 2008

बहुत किया मतदान, बहुत दिया सम्मान

टीवी पर खबर देख रहा था कि अचानक एक ऐसी खबर सामने आई जिसको देख कर मुझे हंसी भी आई और बेतहाशा गुस्सा भी। दरअसल एक मंत्री महोदय चुनावी मान-मनौवल में पूर्व विधायक महोदया के पैरों पर गिरे हुए थे। मना रहे थे। कभी भी प्रत्यक्ष रुप से ऐसी चुनावी भक्ति नही देखा था। लोकतंत्र को नोटतंत्र बनते इसी वर्ष में देखा था अब चाटुकारीता तंत्र देख रहा हूं। ऐसा नही है कि पहले ऐसी घटनाएं नही होती थी। ज़रूर होती थीं लेकिन अब जो हो रहा है उसे क्या कहा जाय??? क्या भारतीय लोकतंत्र पहले से खहीं अधिक उदार हो गया है? या पहले से अधिक ढींठ हो गया है?
आज हम सबको दिख रहा है कि कैसे राजनीतिक टुच्चे टिकट पाने के लिए कहां और किस हद तक उतर रहे हैं। मैं इस भारत से और क्या अपेक्षा कर सकता हूं जहां पर चुनाव में प्रत्याशी बनने के लिए भी भाई-भतीजावाद का सहारा लेना पड़ता है। और महकमों की तो बात ही छोड़ दिजिए जिसमें मंत्री परस्त आदमी को धकाधक भर्ती किया जाता एवं पहले से पदासीन व्यक्ति को धमाकेदार पदोन्नति मिलती है। लेकिन आगामी चुनावों के मद्दे नज़र पार्टीयां और उनसे जुड़े नेतागण जिस तरीके से लोकतांत्रिक मूल्यों को तार-तार कर रहे हैं ...अफसोस, अफसोस कि जनता के तरफ से कोई सुगबुगाहट नही आ रही है। ना ही चर्चा में बने रहने वाले समाज सेवीयों के तरफ से कोई रुझान ही आ रहा है। वे भी जानते है कि पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नही किया जा सकता। इन चिरकूटों के ऐसे आचरण को देख कर कैसे कोई अपने मत का प्रयोग करे ? यहां तो सभी फटेहाल हैं। जिसके अंदर खुद के प्रति स्वाभिमान न हो वह देश के और देश की जनता के स्वाङिमान की रक्षा कैसे कर सकता है। मेरी राय में चुनाव का बहिष्कार करना चाहिए........

Monday, November 3, 2008


हमारा लोकतंत्र: कितने सवाल जो दबे पड़े हैं
अभी अमेरिका में चुनावी माहौल जोरों पर है। अखबार हो या टीवी हर जगह अमेरिकी की चुनावी गहमा-गहमी चल रही है। वैसे तो हमारे यहां भी आगामी लोक सभा चुनाव और विभिन्न राज्यों में होने वाले चुनावों की तैयारीयां उफ़ान पर हैं लेकिन एक चीज मुझे प्राय: ही दुविधा में डाल देतीं हैं। मुझे क्यों ऐसा लगता है कि हिंदुस्तानी लोकतंत्र बजाय समृद्ध होने के बर्बादी के गहरे अंधकार की तरफ रूख कर लिया है। 60 साल पुराना लोकतंत्र क्या इतना भी योग्य नही हुआ है कि यह राष्ट्रीय मुद्दों के उपर चुनाव लड़ सके हाल ही में मेरी नज़र अमेरिका में होने वाले चुनावी मुद्दे की तरफ गया। यहां पर पार्टीयों के मुद्दे विदेश नीति से लेकर देश के अंदर की सुरक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाएं प्रमुख रूप से छाये हुए हैं। अमेरिकी लोकतंत्र को शुरू से लेकर अब तक के सफर पर नज़र डालें तो यह हमेशा विचारोन्मुख होकर आगे ही बढ़ा है। अब्राहम लिंकन से लेकर रुजवेल्ट तक के सफर तक अमेरिकी जनता और यहां के नेताओं ने नये और अमेरीकी सरोकार से जुड़े मुद्दे को अपनाया है। आज भी अमेरिका में विचारों की लड़ाई कायम है। एक पक्ष ईराक हमले की निंदा करता है तो दुसरा वक़लत करता है, एक पक्ष यदी देश में स्वतंत्रता को हर पहलू पो चाहता है तो एक कुछ परीस्थितियों का हवाला देकर संपूर्ण स्वतंत्रता की मुखालफत करता है। अभी हाल ही में चुनाव में लोगों ने देश में लगे पेट्रिक एक्ट को खत्म करने की मांग की तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों ने इसे ज़रूरी बताया। इस एक्ट के तहत अमेरिका में रहने वालो लोगों के फोन की टैपिंग बिना सूचना दिए विशेष परिस्थितियों में की जा सकती है। आज कल लोगों ने तो विशेष स्थिती में गर्भपात कराने की माग कर रहे है और यह मुद्दा भी जोर शोर सो छाया हुआ है। आर्थिक बदहाली और विशेष पैकेज तो हाई रेटेड मुद्दों में हैं बल्कि यूं कहे की यही सबसे बड़ा मुद्दा है।
लेकिन वहीं इसके उलट हमारा लोकतंत्र ऐसा जान पड़ता है कि यह उलटी चालें चलना शुरू कर दिया है। यहां पर कई ऐसे मुद्दे हैं जो 60 सालों से भाषणबाजी के फ्लैश में आज भी घुट रहे हैं। हालांकी अब वो शब्द भाषणबाजी से भी दूर हो रहे है। मसलन ग़रीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी जो हमेशा हमें चुनावी मौसम में ही सुनाई पड़ते थे या फिर किसी नेता जी की सभा में। बचपन से लेकर आज तक यही सुनता आ रहा हूं। अब तो स्थिती और भी बद् से बद्तर हो गई है। आज तो कोई आतंकवाद की आड़ में हिंदू सरोकार का मुद्दा बना रहा है तो कोई मुस्लिम हिमायती होकर वोट बैंक की राजनीति कर रहा है, यहां तो कुछ ऐसे भी चुनावी नेता हैं जो क्षेत्रवाद का सहारा लेकर अपना चांदी कर रहे हैं। स्थिती तो और अब भयंकर मोड़ ले रही है अब तो रुख बड़े ही आवेग के साथ जाति की तरफ बढ़ चुका है। हमारे जाति का हमारा उम्मीदवार। अंबेडकर ने जाति विभाजनको जहां लोकतंत्र का सबसे बड़ा खतरा बताया था तो वही आज अंबेडकर को जाति विशेष का सिंबल बनाकर चुनावी मंसा सबल की जा रही है। राजस्थान के चुनाव में जाति वाला चुनावी फंडा ने तो यहां के बड़े से बड़े सियासतदानों की हवाईयां गुम कर दिया है। कहां वह पहले हिंदू और मुस्लिम करते थे अब तो मीणा और गुज्जर पर बात आ बनी है। ऐसा नही था कि पहले चुनावों में उस समीकरण का प्रयोग नहीं होता था लेकिन ऐसे भौंदेपन के साथ तो नही। सोच कर आक्रोश जागता है आखीर कितने टुकड़े और करेंगे? पहले ही हिंदू, मुस्लीम, क्रिशचियन में चुनाव बांटता था अब कही उत्तर भारतीय बनाम पश्चिम तो कही बाभन, चमार,अहीर,ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला में बांट रहा है.। आश्चर्य जनता पर होती है कि आखीर क्यों वो ऐसा मानसिकता को और बल देते हैं? आखीर उन्हें क्यों समझ में यह बात नही आती कि इलेक्शन आते ही बुर्रहानपुर, कंधमाल जैसी घटनाएं सामने आने लगती हैं?? क्यों?????