हमारा लोकतंत्र: कितने सवाल जो दबे पड़े हैं
अभी अमेरिका में चुनावी माहौल जोरों पर है। अखबार हो या टीवी हर जगह अमेरिकी की चुनावी गहमा-गहमी चल रही है। वैसे तो हमारे यहां भी आगामी लोक सभा चुनाव और विभिन्न राज्यों में होने वाले चुनावों की तैयारीयां उफ़ान पर हैं लेकिन एक चीज मुझे प्राय: ही दुविधा में डाल देतीं हैं। मुझे क्यों ऐसा लगता है कि हिंदुस्तानी लोकतंत्र बजाय समृद्ध होने के बर्बादी के गहरे अंधकार की तरफ रूख कर लिया है। 60 साल पुराना लोकतंत्र क्या इतना भी योग्य नही हुआ है कि यह राष्ट्रीय मुद्दों के उपर चुनाव लड़ सके हाल ही में मेरी नज़र अमेरिका में होने वाले चुनावी मुद्दे की तरफ गया। यहां पर पार्टीयों के मुद्दे विदेश नीति से लेकर देश के अंदर की सुरक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाएं प्रमुख रूप से छाये हुए हैं। अमेरिकी लोकतंत्र को शुरू से लेकर अब तक के सफर पर नज़र डालें तो यह हमेशा विचारोन्मुख होकर आगे ही बढ़ा है। अब्राहम लिंकन से लेकर रुजवेल्ट तक के सफर तक अमेरिकी जनता और यहां के नेताओं ने नये और अमेरीकी सरोकार से जुड़े मुद्दे को अपनाया है। आज भी अमेरिका में विचारों की लड़ाई कायम है। एक पक्ष ईराक हमले की निंदा करता है तो दुसरा वक़लत करता है, एक पक्ष यदी देश में स्वतंत्रता को हर पहलू पो चाहता है तो एक कुछ परीस्थितियों का हवाला देकर संपूर्ण स्वतंत्रता की मुखालफत करता है। अभी हाल ही में चुनाव में लोगों ने देश में लगे पेट्रिक एक्ट को खत्म करने की मांग की तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों ने इसे ज़रूरी बताया। इस एक्ट के तहत अमेरिका में रहने वालो लोगों के फोन की टैपिंग बिना सूचना दिए विशेष परिस्थितियों में की जा सकती है। आज कल लोगों ने तो विशेष स्थिती में गर्भपात कराने की माग कर रहे है और यह मुद्दा भी जोर शोर सो छाया हुआ है। आर्थिक बदहाली और विशेष पैकेज तो हाई रेटेड मुद्दों में हैं बल्कि यूं कहे की यही सबसे बड़ा मुद्दा है।
लेकिन वहीं इसके उलट हमारा लोकतंत्र ऐसा जान पड़ता है कि यह उलटी चालें चलना शुरू कर दिया है। यहां पर कई ऐसे मुद्दे हैं जो 60 सालों से भाषणबाजी के फ्लैश में आज भी घुट रहे हैं। हालांकी अब वो शब्द भाषणबाजी से भी दूर हो रहे है। मसलन ग़रीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी जो हमेशा हमें चुनावी मौसम में ही सुनाई पड़ते थे या फिर किसी नेता जी की सभा में। बचपन से लेकर आज तक यही सुनता आ रहा हूं। अब तो स्थिती और भी बद् से बद्तर हो गई है। आज तो कोई आतंकवाद की आड़ में हिंदू सरोकार का मुद्दा बना रहा है तो कोई मुस्लिम हिमायती होकर वोट बैंक की राजनीति कर रहा है, यहां तो कुछ ऐसे भी चुनावी नेता हैं जो क्षेत्रवाद का सहारा लेकर अपना चांदी कर रहे हैं। स्थिती तो और अब भयंकर मोड़ ले रही है अब तो रुख बड़े ही आवेग के साथ जाति की तरफ बढ़ चुका है। हमारे जाति का हमारा उम्मीदवार। अंबेडकर ने जाति विभाजनको जहां लोकतंत्र का सबसे बड़ा खतरा बताया था तो वही आज अंबेडकर को जाति विशेष का सिंबल बनाकर चुनावी मंसा सबल की जा रही है। राजस्थान के चुनाव में जाति वाला चुनावी फंडा ने तो यहां के बड़े से बड़े सियासतदानों की हवाईयां गुम कर दिया है। कहां वह पहले हिंदू और मुस्लिम करते थे अब तो मीणा और गुज्जर पर बात आ बनी है। ऐसा नही था कि पहले चुनावों में उस समीकरण का प्रयोग नहीं होता था लेकिन ऐसे भौंदेपन के साथ तो नही। सोच कर आक्रोश जागता है आखीर कितने टुकड़े और करेंगे? पहले ही हिंदू, मुस्लीम, क्रिशचियन में चुनाव बांटता था अब कही उत्तर भारतीय बनाम पश्चिम तो कही बाभन, चमार,अहीर,ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला में बांट रहा है.। आश्चर्य जनता पर होती है कि आखीर क्यों वो ऐसा मानसिकता को और बल देते हैं? आखीर उन्हें क्यों समझ में यह बात नही आती कि इलेक्शन आते ही बुर्रहानपुर, कंधमाल जैसी घटनाएं सामने आने लगती हैं?? क्यों?????
2 comments:
बेहतरीन रचना
इसी तरह लिखते रहें
यही कह रहे हैं अपनी पुरानी राग छोड़ नई शुरुआत करनी होगी.
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