Saturday, January 30, 2010

उपेक्षा के शिकार महात्मा...

भारत ने महात्मा गांधी की पुण्यतिथि मनाया है। आला नेताओं और अफसरशाहों ने अपने बेइमान दिल को मज़बूत करके नम आंखों से श्रद्धांजलि दी है। बेइमान लोग गांधी को श्रद्धांजलि देते वक्त डरते तो ज़रूर होंगे। लेकिन ये बात सोचता हूं तो हंसी आती हैं। दरअसल डर तो कब का खतम हो जाता है। गांधी के फोटो के सामने आत्मग्लानि इन अफसरशाहों की कब कि मर चुकी रहती है। क्योंकि गांधी के फोटो के आगे ही तो सारा गोरखधंधा होता है। फिर डर कैसा और आत्मग्लानि कैसी। भ्रष्टाचार का रगड़ से इनकी चमड़ी बेहद सख्त हो जाती है।
महात्मा का अंत कैसे हुआ ये सभी जानते हैं और किसने किया ये भी मालुम है। लेकिन मैं इसका विवरण देकर उस शख्स को अमर नहीं करना चाहता जिसने गांधी को मारा। लेकिन मुझे बार-बार उन ढोंगियों का जिक्र करना पड़ता है जो गांधी की खादी में छुपकर गांधीवाद का बलात्कार करते रहते हैं। अगर कोई गांधीवाद से इत्तेफाक नहीं रखता है तो इससे कोई शिकायत नहीं है। क्योंकि गांधीवाद एक विचारधारा है और विचारधारा सबकी एक हो ये मुमकिन भी नही है। लेकिन विचारधारा से ताल्लुक रखते हुए उसी के उपर नंगा नाच करना, ये शोभा नहीं देता। हमारे देश की अधिंकांश सरकारें या यूं कहें नेतागण गांधी के विचारों से बड़े ही प्रभावित नज़र आते हैं। उच्च कोटि की महंगी खादी कपड़े पहनते हैं औऱ अहिंसा कि बाते करते हैं। मोटे तौर पर अगर देखा जाए तो गांधी के रहते हुए भी और गांधी के इस दुनियां से चले जाने के बाद भी सियासत करने वाले उनकी बातों से तील मात्र भी इत्तेफाक नहीं रखे। हां, उन्होंने गांधी के चरित्र का जमकर उपयोग ज़रूर किया। गांधी को जनता के बीच अपनी हेठी बनाने के लिए उपयोग किया। राजनीति की धुरी पर गोल-गोल घुमते हुए वे गांधी को महान बताए, क्योंकि लोग गांधी को महान सुनना चाहते थे। गांधी को पथप्रदर्शक बताए, क्योंकि जनता चाहती थी कि नेता गांधी के बते रास्ते पर चलें। नि;संदेह गांधी जनता के प्रिय थे। लेकिन पॉलिटिकल लोगों के लिए मात्र साधन थे जिसे अपने साध्य पर वे साधते थे और कुछ नहीं। इतिहास में झांकता हूं तो गांधी लीगी और कांग्रेसियों में फंसे नज़र आते हैं। मृत्यु के बाद बड़े-बड़े अक्षरों में महिमा- मंडित नज़र आते हैं।
लेकिन गांधी की बातों पर हिंदुस्तान की सरकारों ने थोड़ा सा भी इल्म किया होता तो राज्यों की असमानता नहीं रहती। गांव और शहरों के बीच खाई नहीं पनपी होती। साल 1937 को 'हरिजन' में छपे एक लेख में गांधी ने कहा था कि "असली भारत इसके सात लाख गांवों में बसता है और विकास की गंगा गांवों से बहेगी तभी देश का निस्तार हो पाएगा।" लेकिन दुख है कि आजादी के बाद से ही बड़े-बड़े शहरों को कारोबारों से लैस किया जाने लगा। विकास की गंगा गांव से नहीं शहर से चल पड़ी। आज हम देख सकते हैं कि शहर से महज पचास मील बाहर निकलने पर लोग किस कदर बुनियादी सुविधा से महरूम हैं। गांवों में उद्योग नहीं होने के चलते शहर के तरफ पलायन हो रहा है।
किसानों के देश में ही किसान कहीं भूख से मर रहा है तो कहीं आत्महत्या करने के लिए मज़बूर हो रहा है। लोगों को 25 रुपया में सिम कार्ड मिल जा रहा है लेकिन 25 रुपया में भर पेट खाना नहीं मिल रहा। किसानों के लिए बीज की कीमतों की बात ही छोड़ दें। दो बिघा जमीन की जोत के लिए किसान कहां से पैसा जुटाता है, ये किसान ही जानता है। खाद से लेकर सिचाई का खर्चा उठाने के बाद पैदावार की उचित कीमत नहीं मिलने पर सरकारें उनके लिए कोई बेल-आउट पैकेज की घोषणा नहीं करती हैं। बस बयानबाजियां करके जमाखोरी को बढ़ावा देती हैं।
लेकिन जहां पर गांधी मार दिये गये हों...वहां कि हुकूमत से उनके विचारों की अपेक्षा करना बेमानी ही लगता है।

Tuesday, January 26, 2010

कौन सा गणतंत्र ?

भारत महान का मंत्र
हमरा सबसे बड़ गणतंत्र
ये नारा बंद करो भाई......
काहे का गणतंत्र मना रहे हो? क्या तुम्हारी आंखे अंधी हो चुकी हैं? क्या तुम्हारी चेतनाओं ने महसूस करना छोड़ दिया है? क्या वर्चुअल लाइफ के आगोश में इतने मशगुल हो गए हो कि तुमने ये भी सोचना छोड़ दिया है कि तुम्हारे इतिहास के साथ क्या बर्ताव हुआ है और तुम्हारे भविष्य़ को क्या मोड़ दिया जा रहा है। मैं एक बार फिर से याद दिलाना चाहुंगा, उस संविधान को जो साठ साल पहले लिखा गया था। उसका क्या कहीं अता पता है? इंडिया इज ए सेक्युलर, सोशलिस्ट, रिपब्लिक एंड डेमोक्रेटिक कंट्री। क्या इन शब्दों को कहीं भी देश के किसी भी कोने में पाते हो? नहीं, हरगिज नहीं। कैडबरी और रॉल्स रॉयल की दुनिया से निकलो तो पता चलेगा कि देश की कितनी बड़ी आबादी एक रोटी के टुकड़े के लिए दिन-रात संघर्ष कर रही है। मीलों दूरी तय करने के लिए अपने जख्मी पैरों की तरफ एक निगाह देख भी नहीं रहा है। मेरे देश वासियों मैक-डॉनल्ड और केएफसी के चमकादार शीशों से बाहर भी तो झांको तो पता चले कि हमारे देश के किसान किस गुरबत में जिंदगी बिता रहे हैं। एक किसान की सबसे बड़ी जागीर, उसकी सल्तनत, उसका मान-अभिमान खेत होता है। जब उन खेतों में बीज डालता है, तो अपने घर में बधाईयां बजवाता है। आज उन घरों में बधाईयां बजनी बंद हो चुकी हैं। खेत सुने पड़े हैं और उनके चेहरे भी सूने पड़े हैं। ऊंची झतों से जरा नीचे तो देखों। ये तुम्हारे इंदिरा आवास योजना की उगाही किसी महल वाले की दिवार में संगमरमर फिट करने का काम कर रही है। रोज की जिंदगी को जीडीपी की कसौटी पर नही परखा जा सकता है। सच्चाई बिल्कुल अलग है।
18 साल से ऊपर के लोग क्यों भूल जाते हैं कि पैसे का दम-खम दिखाकर कैसे राजनीति हो रही है। सत्ता के दहलीज पर पहुंचने के लिए किस कदर के दांव-पेंच का इस्तेमाल किया जा रहा है। क्या कभी देखा है कि बिना पैसे वाला आदमी चुनाव लड़ रहा हो? जनाधार भी पैसे पर बनने लगे हैं। फिर अफरात पैसे के दम पर हो रही चुनावी प्रक्रीया को कैसे जनता का चुनाव मान रहे हो। 20 फीसदी वोट पाकर सत्ता हासिल करने वाले को कैसे जनता की सरकार कह सकते हो?
ओछी राजनीति के डकैतों को कोई भी सरकार सलाखों के पीछे नहीं घुसा पाई, ये क्यों नहीं सोच रहे हो? जिनके जंगल उन्हीं को लूट लिया गया। उन्हीं के धन-संपदा पर कितने अधिकारी करोड़ों के महल पिटवा लिये। ये क्यों नहीं देखते हो? क्यों सिर्फ ऑपरेशन कोबरा को देख रहे हो? उनकी छाती में धधकते असंतोष को क्यों नहीं भांपते हो? दोस्तों आज भी लोग नौकरशाही का थप्पड़ खा रहे हैं। आज भी पुलिस की लाठियां खा रहे हैं। आज भी जाति और मजहब के नाम पर भेद किया जा रहा है। क्षेत्रवाद का बोलबाला है। आधे से अधिक राज्य में नागरिक संविधान से इत्तेफाक नहीं रखते। लिहाजा उनका रेड-कॉरिडोर जोन बढ़ता जा रहा है। ये बात मस्तिष्क में हलचल क्यों नहीं पैदा कर रहीं कि ऐसा क्यों हो रहा है? पहले सांमतों के कोल्हू में आम जन पिसते थे अब इन तथाकथित नेताओं और माफियाओं के कोल्हू में पिस रहा है। जान-बूझकर अनजान बना हुआ है भारत। खोए हुए भारत का गौरव अभी वापस नहीं लौटा है। अपने भाईयों को अपने बेटों को, अपने दोस्तों को बताओं कि हमारा भारत अभी महान नहीं हुआ है। इसे महान बनाना है।

Sunday, January 24, 2010

मैं जोगी हूं पुजारी नहीं


मैं जोगी हूं पुजारी नहीं। पुजारी पूजा करना छोड़ सकता है। फेंक सकता है उस पीले लिबास को जिसे ओढ़ के वो तुम्हारे भगवान की अराधना करता है। क्योंकि उसकी अराधना से उसका पेट भरता है। जिस दिन उसे अगाध धन का स्रोत कहीं और से मिल जाएगा, ऐश्वर्य के दूसरे साधन मिल जाएंगे वो मूरत की अराधना छोड़ सकता है। लेकिन एक जोगी लाल-पीले स्वच्छ कपड़े पहने कर फूल नहीं चढ़ाता। रटे-रटाए भजन- बोल कह कर क्रियाकलाप पूरा नहीं करता। इसलिए कहता हूं, मैं जोगी हूं। मेरी साधना ही सब कुछ है। मन की फकीरी ने ये रौब दिया है। आसानी से नहीं जाने वाला। फकीर की फकीरी मरने के बाद ही जाती है। ये अंदाज तभी महसूस किया था, जब तुम्हारी जोग लगी थी मुझको। मेरे लबों पे आने वाला हर भजन- गीत मेरे दिल के कुंड की एक बुंदें हैं। जो शबनम बनके जहन में इकठ्ठा होती हैं और बरबस ही लयबद्ध होकर बाहर आने लगती हैं। मेरे जोग से ना तो पेट की लालच है..और ना ही ऐश्वर्य की दिली तमन्ना है। ये सभी चीजें छूट चुकी हैं इसलिए तो ये जोग लगा है। अगर ये सब कुछ चाहता तो मैं पुजारी होता और तुम्हारी बुत-परस्ती करता। मैं जोगी हूं, जो तुम्हारी आत्मा तक पहुंचना चाहता हूं।

Monday, January 11, 2010

तमन्ना...



दिल में ढेरों अरमां हैं
मीठे से, सहमें से...
नये साल में सोचता हूं बांट दूं सभी के सभी ---
जब घना कोहरा हो..तो धूप बन बिखर जाऊं
ताप से तड़फड़ाती धरती पर बूंद बन बिखर जाऊं
और...
जिंदगी जब सर्द हो जाए,
विचारों के अंकुर पर बर्फ जम जाए
तो अपने ऐहसासों की गर्माहट दू, ताकि
बर्फ पिघल जाए...विचार वृक्ष बन जाए।।

Tuesday, January 5, 2010

वो सूखा पत्ता...



वो पत्ता जो डाली से टूट चुका है,
कल मेरी ढ्योढ़ी पर आ गया था
उड़ता-फिरता, गिरता-पड़ता।।
मैनें उसे उठा अपनी जेब में रख लिया
ताकि फिर कोई हवा,
इसे ना उड़ा ले जाए
इतनी दूर कि बड़ी दूर
मैं आ गया हूं,
अपने शाख से अगल होकर।।

Saturday, January 2, 2010

तुम मस्त-मस्त, हम त्रस्त त्रस्त

पिछला साल भुलाए नहीं भुलता है। हर वक्त ज़हन में बीते साल की यादें ही घुम रही हैं। साल 2009 के सारे अनुभव कायदे से मेरे दिमाग और दिल पर हावी हो जाते हैं। इक्कतीस तारीख की रात के एल्कोहल का असर पहली जनवरी के सुबह तक तो उतर गया था। लेकिन पिछले साल की खुमारी अभी भी उतरने का नाम नहीं ले रही। राजनीति से लेकर बाजार की उठापटक नए साल के जायके को खराब किए जा रहे हैं। नए साल पर सोचता हूं अब कुछ नया होगा लेकिन पिछले साल की डिवलपमेंट स्टोरी पिछा छोड़ने का नाम नहीं ले रही। साल नया हो गया। लेकिन हमारी स्थिती पुराने साल के उबासी में ही गुम है। पिछले साल के राशन के बिल की अपेक्षा नए साल में शॉकिंग बिल आई है। पूरे डेढ़ गुना ज्यादा बिल आ पहुंचा है। अब ऐसे में पिछले साल को कोसा जाए या फिर नए साल को गरियाया जाए कुछ समझ में नहीं आ रहा। मन- मस्तिष्क डिसऑर्डर में हो चला है। दिल कहता है नए साल में जिंदगी की नई धुन छेड़ू। लेकिन जब मस्तिष्त कैलकुलेशन करने बैठता है तो रणभेरी बजने लगती है। जी में आता है कि सभी कालाबाजारियों को लाइन में खड़ा करके गोली मार दूं। या फिर खुद को फिदायिनों के माफिक नेताओं के मुर्गानशीन पार्टियों में धुआं-धुआं कर दूं।
साहब पिछले साल के गम इस साल भी पिछा नहीं छोड़ने वाले हैं। साल 2009 में हजारों रुपये के घोटालाबाज कोड़ा साहब भी इस साल में भी मौजूद हैं। राजनेताओं के गुरूजी फिर से झारखंड की कुर्सी पर विराजमान हुए। सुना है जमकर हॉर्स ट्रेडिंग हुई है। मालदार मंत्रालय के लिए जोड़-तोड़ खूब चले हैं। अब लूट-खसोट तो मचेगी ही। ऐसे में मन में सुबहा उठ रहा है कि इस साल भी झारखंड ही कहीं सबसे बड़ा घोटालाबाज न दे दे। अब इनके घोटाले की भरपाई भी हमारे ही जेब से होने वाली है। एन.डी. तिवारी का सेक्स स्कैंडल भी मन को भारी कर दिया। 84 की उम्र में...आय!.. हय!.. भाई, ये तो वही बात हो गई जैसे बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम। मेरे कई मित्र तिवारी जी के स्कैंडल की चर्चा पर आंह भरते नज़र आए। कईयों के संभोग का कोटर खाली है, लिहाजा तिवारी जी को कोसने में कोई कोताही नहीं बरते। उनके जुबान से बरबस ही फिसल जा रहा था-" साला जब बूढ़े जवानी के सागर में गोते लगाएंगे तो जवान किनारे पर बैठ खाली गरियाएंगे हीं"। माफी चाहूंगा लेकिन मेरा इरादा तिवारी जी को दुख पहुंचाना नहीं है। लेकिन जवानों के दिल पर जो दुख पहुंच रहा है वो तो देखा नहीं जाता। कई लोग कहते हैं...राजनीतिक बातों पर खामोश। बहरहाल मेरे नजरिए में पुराने साल के ये भूत भी पिछा नहीं छोड़ने वाले। भूत से मेरा मतलब मुद्दों से हैं, क्योंकि ऐसे ही मुद्दों के चलते ही संसद से मंहगाई का मुद्दा पता नहीं कहां गुल हो गया। 2009 गन्ना किसानों के लिए ऐतिहासिक साबित होने ही वाला था कि बाबरी विध्वंस, तेलंगाना इत्यादि मुद्दों ने उसकी गला घोंट दिए। लोगों के और भी सरोकार का मुद्दा उठता तब तक राजनीतिक रस्सा-कस्सी और सेक्स स्कैंडल जैसे मामलों ने पानी फेर दिया।
शुक्र है उन्नीस साल बाद एक लड़की रुचिका जो दुर्भाग्य से इस दुनियां में नहीं है उसको न्याय दिलाने की मुहीम पिछले साल में भी जोर पकड़ी और यकीन करता हूं कि उसके परिवार के 19 साल की लड़ाई का अंत ये साल तो ज़रूर ही कर देगा। वैसे कितना अच्छा होता जो क्षेत्र मीडिया की जद से दूर हैं वहां भी लोगों के द्वारा ऐसी ही इस साल में मुहीम चलाई जाती क्योंकि आज भी न जाने कितनी ही रुचिका जैसी बेबस लड़कियों की आत्माएं देश के दूर-दराज के शहरों और गांवों में सिसकियां ले रही हैं। प्लीज साल 2010...मेरी तुमसे एक गुजारिश है। मैं तुम्हारें मंहगाई के दंस क्षेलने को तैयार हूं। नेताओं के ऐशबाजी को भी पचा जाऊंगा। लेकिन तुम हमारे गांवों में और छोटे शहरों में रहने वाली असंख्य रुचिका जैसी लड़कियों को न्याय ज़रूर दिलाना।