Sunday, January 24, 2010

मैं जोगी हूं पुजारी नहीं


मैं जोगी हूं पुजारी नहीं। पुजारी पूजा करना छोड़ सकता है। फेंक सकता है उस पीले लिबास को जिसे ओढ़ के वो तुम्हारे भगवान की अराधना करता है। क्योंकि उसकी अराधना से उसका पेट भरता है। जिस दिन उसे अगाध धन का स्रोत कहीं और से मिल जाएगा, ऐश्वर्य के दूसरे साधन मिल जाएंगे वो मूरत की अराधना छोड़ सकता है। लेकिन एक जोगी लाल-पीले स्वच्छ कपड़े पहने कर फूल नहीं चढ़ाता। रटे-रटाए भजन- बोल कह कर क्रियाकलाप पूरा नहीं करता। इसलिए कहता हूं, मैं जोगी हूं। मेरी साधना ही सब कुछ है। मन की फकीरी ने ये रौब दिया है। आसानी से नहीं जाने वाला। फकीर की फकीरी मरने के बाद ही जाती है। ये अंदाज तभी महसूस किया था, जब तुम्हारी जोग लगी थी मुझको। मेरे लबों पे आने वाला हर भजन- गीत मेरे दिल के कुंड की एक बुंदें हैं। जो शबनम बनके जहन में इकठ्ठा होती हैं और बरबस ही लयबद्ध होकर बाहर आने लगती हैं। मेरे जोग से ना तो पेट की लालच है..और ना ही ऐश्वर्य की दिली तमन्ना है। ये सभी चीजें छूट चुकी हैं इसलिए तो ये जोग लगा है। अगर ये सब कुछ चाहता तो मैं पुजारी होता और तुम्हारी बुत-परस्ती करता। मैं जोगी हूं, जो तुम्हारी आत्मा तक पहुंचना चाहता हूं।

5 comments:

Udan Tashtari said...

जय हो जोगी जी की..समस्त मनोकामना पूरी हों.

Anonymous said...

अब जोग लगी है तो कुछ तो रंग लायेगी ही....शुभकामनायें आपको दोस्त

OSHO said...

तुम ढोंगी हो...

Anonymous said...

ढोंगी.. ओशो की वाणी चुराता है।

अमृत कुमार तिवारी said...

तुम ढोंगी हो...
ढोंगी.. ओशो की वाणी चुराता है।

मित्र उपरोक्त बातें ओशो ने लिखी है या नहीं मुझे नहीं मालुम। क्या आप कोई प्रति प्रेषित कर सकते हैं? आप चाहें तो amrit.writeme@gmail.com पर भेज सकते हैं। मैं भी तो जानू कि क्या चोरी की है। मैं तो सामने प्रत्यक्ष तौर पर हूं लेकिन आप क्यों छुपे हो? आपना सही पता तो बताते। मुझे बुरा नहीं लगता। आखिरकार आप मेरे आलोचक हैं।
वैसे मेरा लेख प्रतिकात्मक है और मेरे विचारों का परिणाम है। ना कि ओशो के दिए गए शब्द-चित्र। वैचारिक तौर पर समानता हो सकती है। लेकिन इस प्रकार के बातुनी चीजें मानसिक अय्यासपन को दर्शाती हैं। ( लगता है पुजारी- दर्शन के लोगों को चोट पहुंच रही है।)