Saturday, August 6, 2011

कुछ भुला दिया...कुछ आत्मसात किया

उसने दौलत की चौकड़ी से रिश्तों की मयार लांघने की कोशिश की
मेरी संवेदनाएं बारिश बनी...और रिश्तों को गिला करती रहीं।।
उसने छाती से लिपटे चेहरे में हवस देखी...जो बेचैन था सिर्फ बेचैन
मैने आंचल में छुपा एक मासूम पाया....जिसके पास सुकून था...चाहत थी...आराम था।।

उसने जिंदगी में खुशियां लाने के लिए....ईंट और कंकरीट के जंगलों को फ़तह किया,
लोहा- लक्कड़ सब इकट्ठा किया...फिर चलते- फिरते शरीरों पर टूट पड़ा...नोचा..चबाया, फिर भी भूखा रहा
मैंने खुशियों का एक पेंड़ लगाया...उसे सिंचा...उसमें अपने भावनाओं की खाद डाली,
मेरी सलामती की दुवाओं ने उसे किट- पतंगो से बचाया...पेड़ बड़ा हुआ...अब उसकी छांव मेरे लिए है।।

अंहकार के बादलों से उसने अपमान की बारिश की...जो तेजाब से ज्यादा घातक और पीड़ादायक थी...
मैने उन्हें आत्मसात किया...उनका शोधन किया...वो तेजाब अब पानी है।
इंतजार है किसी प्यासे को पिलाने की।।
सुना है इतिहास खुद को दोहराता है....शायद वो कभी प्यासा मिलेगा..
तब उसे यही पानी पिलाउंगा।

Saturday, July 9, 2011

तेलंगाना: केंद्र की सुसुप्त ज्वालामुखी


तेलंगाना मसले पर श्रीकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद भी केंद्र सरकार का कोई ठोस निर्णय नहीं लेना संदेह पैदा करता है। आखिर क्या मज़बूरी है कि सरकार कोई बोल्ड डीसिजन नहीं ले रही? क्यों नहीं वो श्रॉकृष्ण कमेटी की सुझावों में से किसी एक पर स्पष्ट रवैया अपना रही है? संसद का मानसून सत्र शुरू होने वाला है, कई मुद्दों को लेकर लोगों की निगाहें केंद्र सरकार पर टीकी हैं...फिर सरकार जल्द से जल्द तेलंगाना का निपटारा क्यों नहीं कर रही?
असल में लीक से थोड़ा हटकर सोचा जाए तो सरकार की मंशा को कुछ हद तक भांपा जा सकता है। सत्ता में आने के पूर्व कांग्रेस का तेलंगाना राज्य बनाने का वादा अब अवसरवाद के एक अचूक हथियार साबित हो रहा है। कांग्रेस की नेतृत्व वाली यूपीए सरकार इसी वादे के सहारे उन तमाम मुद्दों को साइड लाइन कर रही है, जो उसके गले की फांस बने हुए हैं। सरकार की सबसे बड़ी फजीहत भ्रष्टाचार और एक के बाद एक मंत्रियों के उपर लग रहे घपले और घोटालों के आरोप हैं। इसके साथ ही लोकपाल बिल की चुनौती सरकार के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द है। ऐसे में तेलंगाना का तीर ऐसा है जिसके सहारे सरकार इन मसलों से लोगों का ध्यान हटा सकती है।
तेलंगाना के संदर्भ में कांग्रेस की पॉलिसी हमेशा से ढुलमुल रही है। तेलंगाना का मसला कोई नया नहीं है। हैदराबाद के निजाम से हैदराबाद को भारत में शामिल करने के बाद भाषा के आधार पर यूनाइटेड आंध्रप्रदेश का खाका खिंचा गया। तब भी तेंलगाना के लोगों ने आंध्रप्रदेश में तेलंगाना के विलय को खारिज कर दिया और इसके लिए कई आंदोलन भी हुए। यहां तक कि दिसंबर 1953 में गठित स्टेट रिऑर्गेनाइजेशन कमेटी ने भी तेलंगाना को आंध्रप्रदेश में शामिल नहीं करने का सुझाव दिया। लेकिन केंद्र में बैठी कांग्रेस की सरकार ने तेलंगाना के नेताओं पर दबिश डाली और एक संपूर्ण तेलगू भाषी आंध्रप्रदेश अस्तित्व में आया। 20 फरवरी 1956 को तेलंगाना और बाकी आंध्र के नेताओं के बीच करार हुआ कि तेलंगाना को सभी क्षेत्रों में प्राथमिकताएं दी जाएंगी। लेकिन तेलंगाना के लोग काफी वक्त बीत जाने के बाद भी खुद को उपेक्षित ही महसूस किए। 1956 से लेकर इस क्षेत्र के लोगों का विद्रोह कई बार सामने आया और हर बार सरकार इस विद्रोह को कोरे आश्वासन से शांत करती रही। कहना ग़लत नहीं होगा कि तेलंगाना को कांग्रेस समर्थित सरकारों ने एक तरह सुसुप्त ज्वालामुखी का तकदीर दे दिया। जो समय- समय पर फूटता रहता है और सरकारें इसे अपने एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती रहती हैं।
साल 1969 में तेलंगाना की मांग को लेकर छात्रों का विद्रोह हो और फिर इंदिरा गांधी का तेलंगाना से आने वाले नरसिम्हा राव को मुख्यमंत्री बनाया जाना। 1972 में मुल्की आंदोलन शुरू होना और फिर नरसिम्हा राव का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना जिसके बाद तेलंगाना में आगजनी और विद्रोह जिस स्तर पर हुआ उसका गवाह पूरा देश बना। 1973 में गंभीर हालात को देखते हुए 6 सूत्रीय फार्मूला लाया गया, जिसमें राज्य के भीतर ही लोकल सीटिजन को लाभ देने से लेकर पिछड़े इलाकों के विशेष सहूलियत देने की बात थी। हालांकि 6 सूत्रीय फार्मुला भी फ्लॉप साबित हुआ। गौरतलब है कि 70 के दशक में इंदिरा गांधी और कांग्रेस की साख डावांडोल थी। इसी दशक में देश कई हिस्सों में बदलाव की आंधी चली थी और सोशलिस्ट मुवमेंट का आगाज पूरे देश भर में था। इस दौरान भी तेलंगाना और आंध्रा का मुद्दा गर्माया रहा।
तेलंगाना का मसला एक बार फिर एक दशक लिए आश्वासन और उपेक्षा के बस्ते में बंद हो गया। 1990 में जब देश आर्थिक तंगी से जूझने लगा। बड़ी- बड़ी कंपनिया दीवालिया होने के कागार पर आ पहुंची और जब देश का सोना गिरवी रखना पड़ गया तो एक बार फिर केंद्र सरकार लोगों के निशाने पर आ गई। हालांकि इस दौरान उदारीकरण का फार्मूला अपनाया गया और स्थिति यहां से सुधरने लगी। लेकिन इस दौरान भी तेलंगाना का मुद्दा भी जोर- शोर से गरम हो गया।
असल में तेलंगाना के लोग कभी सरकार की नीतियों को स्वीकार किए ही नहीं थे। उनके ऊपर तो सिर्फ थोपा गया था। ऐसे में जब ना तब उनके आक्रोश का लावा फूटता रहा। जब एनडीए की सरकार सत्ता में आई तो उसने अपने कार्यकाल में तीन नए राज्यों का निर्माण किया और मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़, बिहार से अलग होकर झारखंड और उत्तरप्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आए। इसी दौरान एनडीए सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य बनाने की भी पहल की, लेकिन टीडीपी के विरोध के चलते तेलंगाना राज्य को एनडीए ने बस्ते में डाल दिया..टीडीपी उस वक्त एनडीए को बाहर से समर्थन दे रही थी। लिहाजा सत्ता एनडीए ने तेलंगाना राज्य का गठन नहीं कर टीडीपी का साथ हासिल करने में ही खुद की भलाई समझी। इसके बाद के. चंद्रशेखर राव ने 2001 में अलग तेलंगाना की मांग को लेकर एक अलग राजनीतिक पार्टी बनाई तेलंगाना राष्ट्र समति। टीआरएस साल 2004 में कांग्रेस के साथ इस शर्त पर चुनाव लड़ी कि अगर उनकी सरकार बनती है तो अलग तेलंगाना राज्य का गठन होगा। टीआरएस कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के साथ सरकार में शामिल भी हुई, लेकिन 2006 में आंध्रप्रदेश के कद्दावर नेता और मुख्यमंत्री वाईएसआर राजशेखर रेड्डी ने अलग तेलंगाना राज्य के फार्मुले को खारिज कर दिया। जिसके बाद टीआरएस सरकार से समर्थन वापस ले ली और के चंद्रशेखर राव कई दिनों तक भूख हड़ताल पर भी रहे। आंध्रप्रदेश के बंटवारे को लेकर श्रीकृष्ण कमेटी का भी गठन किया गया...कमेटी ने बकायदा अपनी रिपोर्ट भी सौंप दी...लेकिन फिर भी सरकार कोई ठोस निर्णय नहीं ले रही। फिलहाल के परिदृश्य को देखकर तो यही लगता है..कि सरकार इस मसले को लटकाए रखने में ही अपनी भलाई समझ रही है। चाहें वो संसद में जवाब देही का हो या फिर संपूर्ण आंध्रप्रदेश की राजनीति का। क्योंकि रायलसीमा और सिमांध्रा के लोग आंध्रप्रदेश के बंटवारे के खिलाफ हैं। केंद्र सरकार के लिए अलग तेलंगाना का मुद्दा सिर्फ मुद्दा भर है जिसे वो हर पहलू पर भुनाना चाह रही है।

अमृत कुमार तिवारी

Sunday, July 3, 2011

आर्थिक लोकतंत्र की ज़रूरत

भारत में दो वर्गों के बीच खाई लगातार बढ़ रही है। अमीरी और ग़रीबी के पाट में एक अजीब सा आक्रोश सुलग रहा है, लेकिन इसको महसूस करने के बाद भी हमारे नीति- निर्धारक सुस्त नज़र आ रहे हैं। अगर हाल के परिदृश्य को देखकर ये कहा जाए कि आने वाले दिनों में भारत सिविल वॉर की पीड़ा से गुजर सकता है..तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कहने को तो गरीबी उन्मूलन और रोजगार के कई योजनाएं सरकार के द्वारा चलाई जा रही हैं, लेकिन उसका वास्तविक चरित्र क्या है, ये सभी को मालुम है। कहने को तो देश में लोकतांत्रिक सरकार है, जो लोकतांत्रिक तरीके से देश को चला रही है, लेकिन ज़हन में सवाल उठता है कि अगर वाकई में देश लोकतांत्रिक ढर्रे पर चल रहा है, तो फिर विकास के मानक अलग- अलग क्यों हैं? क्यों एक तरफ दुनिया के करोड़पतियों की लिस्ट में भारतीयों की संख्या बढ़ती जा रही है, जो कि देश की आबादी का बहुत ही कम हिस्सा है। वहीं दूसरी ओर एक बड़ी आबादी रोजमर्रा की जिंदगी में तबाह है। इस आबादी को ऊपर उठने का मौका ही नहीं मिल रहा। इसके अलावा जिन परिवारों को रोजगार में बढ़ोतरी हो रही है, उसका एक बड़ा हिस्सा बाजार का भेंट चढ़ जा रहा है।
असल में जब हमारे देश का डेमोक्रेटिक खाका खिंचा जा रहा था, तब आर्थिक पक्ष को उतना तवज्जों नहीं मिल, जितना कि राजनीतिक पक्ष को दिया गया। राजनीति में आम आदमी की कुछ हद तक तो भागीदारी है, लेकिन आर्थिक मामलों में वो आश्रित है। ऐसे में ये कहना सही होगा कि देश को राजनीतिक लोकतंत्र तो कुछ हद तक हासिल हुया लेकिन आर्थिक लोकतंत्र का सपना साकार नहीं हो पाया। आजादी से पहले आम आदमी सामंतो के चंगुल में रहता था, आज बाजार और इसके पूंजीपतियों के चंगुल में फंस कर रह गया है। देश की नीतियां बाजार के रुख पर निर्भर करती है..ना कि जनता की बेबसी को देखकर। पहले सामंतो के शोषण से जनता त्राही- त्राही करती थी..आज बाजार खूबसूरत चाबुक से कराह रही है, जिसके पीछे हमारी सरकार का योगदान सबसे ज्यादा है। हालांकि किसी भी देश को आगे ले जाने में बाजार का होना अनिवार्य शर्त है, लेकिन सभी नीतियां बाजार को ख्याल में रखकर बने ये सरासर गलत है। किसी भी देश के नियम, कायदे- कानून वहां की जनता की सहूलियत के लिए बनाए जाते हैं, लेकिन हमारे देश की व्यवस्था जनता के विपरीत ही है...इसमें से आर्थिक व्यवस्था आम जनता के तो बिल्कुल विपरीत है।
वैसे तो सरकारें हमेशा से आम जनता की हितैसी बनने का ढोंग करती रही हैं, लेकिन वास्तविकता है कि किसी भी सरकार ने आर्थिक पहलू को ध्यान में रखकर आम भारतीय नागरिकों के बारे में नहीं सोचा है। भारत का मीडिल क्लास कहने को तो बूम कर रहा है, लेकिन जिस तरह से उसके जेब में पैसे आ रहे हैं, दूसरे रास्ते से बाजार उससे डेढ़ गुना वसूल ले रहा है। फिर ये आंकड़ों में ये दर्शाया जाता है कि आम भारतीय की क्रय शक्ति बढ़ी है और भारत में ग़रीबी रेखा से नीचे लोगों की संख्य घटी है। सरकार के गरीबी के निर्धारण का पैमाना ही काफी वाहियात है, जिस पर सुप्रीम कोर्ट भी आश्चर्य जता चुका है। पीडीएस प्रणाली के सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट में योजना आयोग की दलील काफी संदिग्ध है। गरीबी रेखा को सत्यापित करने का उसका मानक काफी चौंकाने वाला है। योजना आयोग के मुताबिक शहरों में गरीब वो है, जिसकी खर्च करने की शक्ति 20 रुपये से कम है और ग्रामीण इलाकों में गरीबी वो शख्स है जिसकी खर्च करने की शक्ति 13 रुपये से कम है। मतलब अगर 20 रुपये जो व्यक्ति खर्च करता है तो उसे गरीबी रेखा के ऊपर माना जाएगा। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने काफी तल्ख तेवर अपनाया और सरकार से यहां तक कहा कि आप एक देश में दो भारत नहीं रख सकते। आम भारतीय की न्यूनतम क्रय शक्ति पर कोर्ट ने सरकार से बड़ा ही सटीक प्रश्न पूछा कि क्या अगर एक रिक्शा वाला बिसलेरी की बोतल खरीद लेता है, तो उसे अमीर मान लिया जाएगा? सुप्रीम कोर्ट के फटकार के बावजूद भी सरकार इन्हीं आकंड़ों के साथ हर पेशी में हाजिर हो जाती है। मसलन अगर सरकार आम भारतीयों की क्रय शक्ति को बढ़ाएगी, तो गरीबी का ग्राफ उसे उठाना पड़ेगा और ऐसे में उसकी पोल भी खुल जाएगी। सरकार किस तरह से आम आदमी के साथ मजाक कर रही है, इसका अंदाजा अब आप खुद लगा सकते हैं। अगर इन आंकड़ों की सच्चाई को और गौर से परखें तो, देश की राजधानी दिल्ली में एक मजदूर की दैनिक मजदूरी 265 रुपये है। अब एक दिन की उस मजदूर के खर्च का ब्यौरा दें, तो अगर उसके परिवार में उसको मिलाकर सिर्फ तीन सदस्य हैं और कम से कम दो बार भोजन करते हैं....तो उन्हें आटे, दाल और ईंधन मिलाकर कम से कम 130 से 140 रुपये का खर्च आएगा। यानी उसकी आधी कमाई सिर्फ पेट भरने में खत्म हो जाती है। ख्याल रहे इसमें संपूर्ण आहार ( complete diet) नहीं पा रहा है। इसके अलावा तमाम रोजमर्रा के खर्च हैं..। मसलन वर्किंग प्वांइट पर जाना, बीमार होने पर दवाईंया, मकान का किराया इत्यादि। इससे भी ज्यादा गुरबत उन मजदूरों की है जो गांवों में रह रहे हैं। अगर हम मनरेगा के द्वारा वितरित पैसे को आधार माने तो एक दिन कि मजदूरी कम से कम 130 रुपये हैं। ऐसे में खर्च तो यहां भी जुल्म ढाएगा। ख्याल रहे, चाहे शहर हो या गांव प्रोडक्ट्स के कीमत में ज्यादा का फर्क नहीं होता। इस हालत में अगर सरकार गरीबी रेखा के लिए क्रय शक्ति का निर्धारण 13 और 20 रुपया क्रमश: ग्रामीण और शहर के लिए रखती है तो निश्चित तौर पर वो अपने नागरिकों को धोखा दे रही है। उनका शोषण कर रही है और आंकड़ों में दिखाती है कि हमारे देश में गरीब महज 36 फीसदी ही हैं। इसी 36 फीसदी को आधार मानकर योजनाएं बनाती है और उनका वितरण खुद ही वाह- वाही लूटती है। ये सरासर जनता के साथ धोखा है।
देश में मिडिल क्लास को लेकर तरह- तरह की भ्रांतियां फैलाई गई हैं। मसलन हमारे देश में मीडिल क्लास बूम कर रहा है। वो तरक्की की राह पर अग्रसर है। देश में कारों, घरों और फूड मार्केट का व्यापार बढ़ा है, क्योंकि इसके पीछे देश का उभरता मीडिल क्लास है। ये सही है कि देश में मीडिल क्लास की भागीदारी काफी अहम है। लेकिन जिस शर्त पर उसे चीजे मुहैया कराई जा रही हैं, वो सरासर उनके साथ जुल्म है। हालांकि अभी ये विवादित है कि मीडिल क्लास में किस स्तर के आय के श्रोत वाले लोग जगह रखते हैं। इसका कोई खाका नहीं है। फिर भी अगर मीडिल क्लास को जिस पैमाने पर रखकर उसका आंकलन किया जाता है, तो उसके मुताबिक भी मीडिल क्लास भी इस आर्थिक व्यवस्था में मजदूर से ज्यादा कुछ नहीं है। मजदूर से ज्यादा इस क्लास को बंधुआ मजदूर की श्रेणी में रखा जाए तो भी गलत नहीं होगा, क्योंकि इस क्लास से जुड़े लोगों को अपने खान- पान के अलावा और भी दूसरे चीजों के लिए काफी कुछ बलिदान करते रहना पड़ता है। खाद्य सामग्री के अलावा, पेट्रोल, डीजल, शिक्षा, नौकरी आदि जिस कदर महंगी हुई उससे इस क्लास का चैन लुट गया है। इस श्रेणी के युवाओं में सबसे अधिक चिंता यूनिवर्सिटी और कॉलेजों में दाखिले से लेकर नौकरी को लेकर है। अगर भूले- भटके नौकरी इनकी झोली में गिर भी जाती है, तो उसका शोषण बाजार जमकर कर लेता है। महानगरों में घर लेना एक सपना सरीखे है। अगर साहस करके कोई शख्स महंगा घर खरीद भी लिया तो देश की आर्थिक नीतियों का भार उसे ही चुकाना पड़ता है। आजकल अधिकांश लोग मकान या फिर कार बैंक लोन से आसानी से ले लेते हैं, लेकिन बाद में उनसे जिस तरह से पैसा ऐंठा जाता है, उससे उनकी जान पर बन आती है। साल 2010 के बाद से मुद्रास्फिति को नियंत्रण में लाने के लिए रिजर्व बैंक ने 10 बार प्रमुख दरों में वृद्धि किया है, जिसका सीधा असर लोगों को लोन मुहैया कराने वाले बैंकों पर पड़ा है और बैंक उसकी कीमत लोगों से वसूल रहे हैं। तेल कंपनियां अपने घाटे पूरा करने के लिए इसका सारा जिम्मा आम नागरिक पर फोड़ देती हैं। अभी हाल ही में सरकार के द्वारा डीजल में बढोत्तरी की बात कई बड़े अर्थशास्त्रियों के गले नहीं उतरी। जब विश्व- बाजार में डीजल के दाम घट रहे थे, फिर भी सरकार ने डीजल का दाम बढ़ाया। सरकार की मंशा साफ थी, मतलब पुराने जितने भी घाटे है जनता की जेब से पूरे कर लिए जाएं। एक और अहम बात है कि जब भी सरकार किसी भी कंपनी पर टैक्स बढ़ाती है या फिर नए टैक्स सिस्टम लागू करते है...कस्टम पर सरचार्ज लगाती है, तो कंपनियां अपने प्रोडक्ट्स के दाम बढ़ाकर अपने मुनाफा कायम रखती हैं। यानी यहां भी जनता को कंपनियों के घाटे को अपने जेब से भरना पड़ता है। सरकार भी उद्योगपतियों की तरह जनता के साथ व्यवहा कर रही है। पिछले महीने पेट्रोल की कीमतों में इजाफे पर सरकार के एक मंत्री की दलील थी कि सरकार जनता के लिए कई योजनाओं को चला रही है, लिहाजा उन योजनाओं का खर्च उठाने के लिए ऐसे कदम उठाने पड़ रहे हैं। उन्होंने इस क्रम में मनरेगा का उदाहरण दिया।
मनरेगा सरीखे तमाम सभी योजनाओं का क्या हश्र है ये सभी को पता है। भ्रष्टाचार इन योजनाओं का किस कदर दोहन कर रहा है ये सभी को मालुम है। मनरेगा में धांधली को लेकर केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री सीपी जोशी का बयान काफी निराश करने वाला था। जोशी का कहना था कि "गांव स्तर पर मनरेगा अभी अकुशल हाथों से संचालित हो रही है। योजना की 6 प्रतिशत राशि की व्यवस्था प्रशासनिक खर्चों के लिए है, लेकिन राज्य सरकारें इसके लिए अलग से कर्मचारियों की व्यवस्था नहीं कर पा रही है। इस कारण योजना के क्रियान्वयन में कठिनाईयां आ रही हैं।" अब आप मनरेगा यानी महात्मा गांधी रोजगार राष्ट्रीय ग्रमीण रोजगार गांरटी योजना पर खर्च होने वाली राशि पर भी जरा एक नज़र डाल लें। मनरेगा का उद्देश्य देश के 4.5 करोड़ गरीब जनता को 100 दिन का रोजगार मुहैया कराना है। साल 2009- 10 में इस योजना पर सरकार ने 39, 100 करोड़ रुपये खर्च किए। वहीं साल 2010-11 में इस योजना पर खर्च होने वाली राशि को बढ़ाकर 40, 100 करोड़ रुपये कर दी गई है। अब हमारे माननीय ग्रामीण मंत्री क्या जवाब देंगे कि आखिर बिना रिसर्च के...बिना तैयारी के वो क्यों आम जनता के पैसे को पानी में बहा रहे हैं। अगर उनके पास प्रॉपर तैयारी नहीं थी, तो क्यों देश की जनता की गाढ़ी कमाई को भ्रष्टाचार के हाथों में सौंप दिए। देश में ऐसी ही तमाम योजनाएं है जो भ्रष्टाचार को फलिभूत करने के लिए चलाई जा रही हैं। एक मामूली आदमी भी अपना सौ रुपया किसी चीज में लगाने से पहले दस बार विचार करता है...लेकिन सरकार इतने बड़े मद को कैसे बिना सोचे- समझे खर्च कर सकती है। ये सवाल परेशान जरूर कर सकते हैं, लेकिन सोचने का विषय है।
देश में कंपनियों मुनाफा पे मुनाफा कमा रही हैं। लेकिन आम आदमी तो मारा जा रहा है। आखिर क्या सरकार की सारी नीतियां देश के उद्योग घरानों के लिए है? एक डेमोक्रेटिक सिस्टम में सरकार के लिए तो सभी जनता एक समान है। सभी नीतियों का संचालन जनता की खुशहाली के लिए किया जाता है। लेकिन हमारे देश में सभी नीतियां वास्तव में यहां के कुलीन वर्गों के लिए ही क्यों हैं और आम वर्ग सरकार की कुनीतियों को ढोने के लिए बाध्य क्यों है? असल में देश में आर्थिक समीकरण ठिक करने के लिए कोई नीति ही नही है। इससे भी खास बात है कि ये हुक्मरान इसे ठीक भी नहीं करना चाहते। क्योंकि चुनावों में मोटे चंदे यही कॉरपोरेट घराने मुहैया कराते हैं। आम जनता तो बस नारा लगाने के लिए होती है।
अगर पेट्रोल की कीमतो में 5 रुपये का इजाफा हो जाता है, अगर डीजल में 3 रुपये की बढ़ोतरी हो जाती है, अगर खाद्य सामग्री का मूल्य 20 रुपये बढ़ जाता है तो इससे ऊंचे तबके को कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला। क्योंकि वो तो एक रात में हजारों रुपये फालतू में फूंक देता है। लेकिन देश की अधिकांश अबादी इससे पीड़ित हो जाती है...उसका चूल्हा- चौका गड़बड़ा जाता है और सरकार कहती है कि देश में लोगों की क्रय शक्ति बढ़ी है, क्योंकि अधिकांश लोग रेस्तारां में भोजन करने आते हैं..लिहाजा फूड चेन खुल रहा है, अधिकांश लोग घर, गाड़ी और लग्जरियस समान खरीद रहे हैं। लेकिन एक वक्त का महंगे रेस्तरां में भोजन करने के बाद आम भारतीय दस दिन तक अपनी जेब को बांध कर घुमता- फिरता है। एक एलसीडी खरीदने के लिए वो इंस्टॉलमेंट करवाता है और कई महिनों तक अपनी बुनियादी जरूरतों को मारता है। लिहाजा उसमें कुंठा घर करती रहती है। उसकी कुंठा तब और उछाल मारती है, जब सरकार बिना- सोचे समझे रोजमर्रा की जरूरी चीजों की कीमतें बढ़ा देती है।
ऐसे में सरकार कहे कि क्रय शक्ति बढ़ रही है, तो ये भी सोचना होगा कि किस शर्त पर क्रय शक्ति बढ़ रही है। देश आर्थिक स्तर पर तो अमीर हो रहा है, लेकिन आम जनता दरिद्र होती जा रही है। एक तरफ देश के गोदामों में अनाज ठूसे पड़े हैं...लाखों टन अनाज सड़ जाते हैं। लेकिन दूसरी ओर एक बहुत बड़ी आबादी भूख से दम तोड़ती है। एक तरफ हमारे देश के रईस लोग एक रात में हजारों- लाखों ऐश- मौज में उड़ा देते हैं, वहीं दूसरी तरफ सरकार आम आदमी के शादी- विवाह में खाने- पिने का हिसाब मांगने लगती है। एक तरफ देश के अमीरों के करोंड़ों- अरबों रुपये विदेशी बैंकों में हिफाजत झेल रहे हैं और दूसरी तरफ आम आदमी का पैसा लोन और इंस्टॉलमेंट के चक्रव्यूह में खत्म हो रहा है। ऐसे में देश में दो धड़ा है...एक तरफ परेशान और कुंठित लोगों की भींड़ है जो सरकार के हर नीतियों को ढो रहा है...दूसरी तरफ एक छोटा और संपन्ना जमात है जो सरकार की नीतियों का मौज काट रहा है। जिस दिन ये बातें आम जनता के दिमाग में ठनक गई तो फिर सिविल वॉर की आशंका को खरिज नहीं किया जा, सकता। ऐसे में जरूरत है आर्थिक लोकतंत्र की भी है.।
--------------अमृत कुमार तिवारी

Thursday, February 10, 2011

ज़िदंगी मेरी जान

उम्र का ऐसा पड़ाव जहां रिश्ते
छोड़ जाते हैं, कुछ तफ्सील से..
तो कुछ बेचैनी के साथ
फिर मतलब गिरेबान पकड़ कर
चिखने लगती है..गरियाने लगती है।
बचे- खुचे रिश्ते अपने पास बुलाते हैं,
गले से लगाते हैं, और फिर
अपने होने का हिसाब मांगने लगते हैं

Wednesday, February 2, 2011

मिस्र में आंदोलन और विश्व का स्वार्थ


एक फरवरी को कहिरा के 'तहरीर स्क्वायर' पर हजारों की संख्या में लोगों का हुजूम 'मुबारक देश छोड़ो' का नारा लगा रहा था। मिस्र के सभी प्रमुख शहरों काहिरा, अलेक्जेंड्रिया, अस्वान और शर्म-अलशेख में आंदोलनकारी जमकर प्रदर्शन कर रहे थे...और एक ही आवाज गुंज रही थी...मुबारक देश छोड़ो। जैसे- जैसे भीड़ की उग्रता बढ़ रही थी...वैसे- वैसे मिस्र के राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक की चिंताएं भी बढ़ती जा रही थीं। उसी रात मुबारक ने सरकारी टीवी चैनल पर मिस्र की जनता को संबोधित किया और सितंबर में चुनाव कराने और खुद को सक्रीय राजनीति से अलग करने का एलान कर दिया....इस दौरान उन्होंने ये भी स्पष्ट कर दिया कि वे देश छोड़ कर नहीं जाने वाले। उनके इस संबोधन को तहरीर स्कवॉयर पर मौजूद हजारों प्रदर्शनकारियों ने जूता लहराकर स्वागत किया।
प्रदर्शनकारियों की मानसिकता दर्शाती है कि वे अब ज्यादा दिनों तक हुस्नी मुबारक और उनकी सरकार को झेलने को तैयार नहीं है। लिहाजा वे हुस्नी मुबारक को जल्द से जल्द गद्दी और देश छोड़ने की बात पर अड़े हैं। प्रदर्शनकारियों कि स्थिति रोज- बरोज मजबूत होती जा रही है। वहीं मिस्र की सेना भी हथियार छोड़ आंदोलन कर रहे लोगों के साथ मिल गई है। सेना ने सत्ता परिवर्तन और लोकतंत्र की बहाली की मांग कर रही जनता पर बल प्रयोग करने से भी इंकार कर दिया है। ऐसी स्थिति में मिस्र के राष्ट्रपति की मुश्किलें काफी बढ़ गई हैं। जो हालात मिस्र में पैदा हुए हैं...उससे ना सिर्फ मिस्र का सत्ता वर्ग बल्कि यूरोप, अमेरिका और दक्षिण एशिया के देश भी चिंतित हैं। इनकी चिंताए पूरी तरह अपने स्वार्थों को लेकर है। शुरू- शुरू में सभी देश मिस्र की घटना पर नज़र बनाए हुए थे, लेकिन जैसे ही मिस्र में स्थिति बदतर हो गई तब इस पर सबसे पहले विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका ने सबसे पहले पहल शुरू की। आनन- फानन में मिस्र में अमेरिकी खुफिया एजेंसियों को पहले के मुकाबले ज्यादा सक्रीय कर दिया गया। अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने पूर्व डिप्लोमेट फ्रैंक वाइजनर को मिस्र का विशेष राजदूत न्यूक्त कर उन्हें काहिरा रवाना कर दिया और स्थिति को सामान्य बनाने की कवायद तेज कर दी। तब लेकर अब तक अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा लगातार मिस्र के राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक से जुड़े हुए हैं।
मिस्र के संदर्भ में अमेरिका की चिंता कई वजहों महत्वपूर्ण है। इस पूरे प्रकरण के चलते मिस्र में अमेरिका की सामरिक और आर्थिक नीतियां दांव पर लगी है। क्योंकि अगर सत्ता परिवर्तन होता है, तो उसका स्वार्थ सबसे पहले मारा जाएगा। हुस्नी मुबारक अमेरिका के नजदिकियों में से एक हैं और मिस्र की अर्थव्यस्था की बुनियाद वहां का तेल के व्यापार पर आधारित है। अमेरिका मिस्र के साथ पेट्रोलियम पदार्थों की खरीद- बिक्री में भी काफी हद तक सहभागी है। मिस्र के बाजार में अमेरिका का बहुत बड़ा हिस्सा है। लिहाजा अमेरिका भी हुस्नी मुबारक से कहीं ज्यादा चिंतिंत दिख रहा है। इराक में पैर जामाने के बाद कुटनीतिक तौर पर मिस्र अमेरिका के लिए पहले से और भी अहम हो गया है। अगर मिस्र की भौगोलिक दशा का अध्ययन किया जाए तो ये यूरो, अफ्रिका और एशिया को जोड़ने का काम करता है। यूरोप और एशिया के बीच व्यापार का भी बड़ा माध्यम है। अगर अमेरिका की पैठ मिस्र में रहती है, तो वो आसानी से इन क्षेत्रों की गतिविधियों पर नज़र रख सकता है। साथ ही इससे सटे इस्राइल, फिलिस्तीन, जॉर्डन, सीरिया, सूडान और लीबिया का भी हिसाब- किताब रख सकता है। अमेरिका के अलावा दक्षिण एशिया के देशों का भी स्वार्थ मिस्र की वर्तमान सरकार पर टिका है। स्वेज नहर यूरोप और एशिया के बीच सबसे बड़ा व्यापारिक चैनल है। जिसके माध्यम से दोनो महाद्वीपों से अरबों डॉलर का व्यापार होता रहता है। साथ ही मिस्र में पेट्रोलियम पदार्थों का भंडार भी एक अहम वजह है। अगर मिस्र में सत्ता परिवर्तन होता है तो इसका प्रत्यक्ष असर भारत की अर्थव्यवस्था पर देखने को मिलेगा। क्योंकि मिस्र और इसके पड़ोसी देशों से भारत पेट्रोलियम पदार्थों का आयात करता है...अगर नई सरकार की नीतियां भारत के खिलाफ रहीं तो हो सकता है..आने वाले दिनों में भारत में महंगाई और बढ़े।
असल में मिस्र को लेकर अमेरीका और बाकी देशों की चिंता खास तौर पर ब्रदरहुड को लेकर है। ब्रदरहुड मिस्र में कट्टरपंथी विचारधारा की मुख्य विपक्षी पार्टी है। अगर मिस्र में ब्रदरहुड सत्ता में आती है..तो मिस्र का प्रो- अमेरिकन नीति को धक्का पहुंचेगा और अमेरिका का मिस्र पर से प्रभाव खतम हो जाएगा। साथ ही उदारीकरण पर भी ये पार्टी नकेल कसने से गुरेज नहीं करेगी। ब्रदरहुड को लेकर अमेरिका की चिंता सिर्फ यहीं तक सिमित नहीं है। ब्रदरहुड ना सिर्फ मिस्र में बल्कि इस पार्टी का अस्तीत्व मिडिल ईस्ट के कई देशों में है। अफगानिस्तान का मोस्ट वांटेड तालिबानी नेता मोहम्मद अल जवाहिरी ब्रदरहुड का सदस्य है। इस पार्टी का आतंकी संगठन अलकायदा से भी लिंक होने का शक है। ऐसे में ये कयास भी काफी जोर पकड़ रहा है कि अगर ब्रदरहुड सत्ता में आती है तो मिस्र की कुटनीति और राजनीतिक उद्देश्य अमेरिका के खिलाफ हो सकता है...साथ ही उन देशों के खिलाफ भी होगा जो अमेरिका के साथ कदम- ताल करते हैं। और जिस रफ्तार से आंदोलन तेज हो रहा है, उसमें ब्रदरहुड एक मजबूत ताकत के तौर पर उभर कर आई है। इस पार्टी को लोगों को समर्थन भी खूब मिल रहा है। मिस्र में जो कुछ हो रहा है..उसमें प्रजातांत्रिक सरकार की मांग के साथ धार्मिक कट्टरवाद ने भी घुसपैठ कर लिया है। वर्तमान राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक की नज़दीकी इस्राइल से भी छुपी नहीं है। अरब के लगभग सभी देश इस्राइल के खिलाफ हैं, जबकि फिलहाल मिस्र का संबंध इस्राइल से काफी अच्छा है। दुनिया के मुस्लिम समुदाय में इस्राइल एक खलनायक की तरह है। मिस्र में चूंकि मुस्लिम आबादी काफी अधिक है..लिहाजा यहां कि आवाम इस्राइल से बढ़ती नज़दिकियों से भी नाराज थी...और ब्रदरहुड इसकी मुखालफत करने वाली मुख्य पार्टी थी। ऐसे में अधिकांश लोगों का सरोकार और ब्रदरहुड का सरोकार एक जैसा प्रतीत हो रहा है...लिहाजा ब्रदरहुड मिस्र में पहले के मुकाबले काफी शक्तिशाली दिख रही है और सत्ता की प्रमुख दावेदार भी।
लेकिन मिस्र के इस आंदोलन को एक ही नज़रिए से देखना कतई उचित नहीं होगा...मिस्र में जो आज हालात उत्पन्न हुए हैं.उसमें उपरोक्त बातें अहम हो सकती हैं...लेकिन और भी कुछ मुद्दे और भी हैं जिन्हें खंगालने की जरूरत है। मिस्र में शासन तंत्र के खिलाफ लोगों का गुस्सा एक दिन में नहीं फूटा है। इसके लिए कुछ हद तक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं...तो काफी हद तक हुस्नी मुबारक की दमन-कारी नीतियां भी। वर्तमान में समूचे विश्व की अर्थव्यवस्था महंगाई के बुखार से तप रही है और मिस्र इससे अछूता नहीं है। मिस्र की अर्थव्यवस्था की बात की जाए तो 1990 से पहले यहा कि आर्थिक व्यवस्था पब्लिक सेक्टर के हाथ में थी। 1990 से मिस्र में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ। मिस्र ने अपने बाजार को दुनिया के देशों के लिए खोल दिया। एफडीआई में बेतहाशा बढ़ोतरी होनी शुरू हो गई। विश्व की तमाम मशहूर कंपनियों ने मिस्र में निवेश किया। पब्लिक सेक्टर का प्राइवेटाइजेशन होने लगा और देखते ही देखते मिस्र आर्थिक रूप से अफ्रीका का सबसे समृद्ध देश बन गया। लेकिन बाजारवाद के इस दौर में मिस्र की सरकार ने कृषि क्षेत्र पर खासा ध्यान नहीं दिया। नतीजा लागातर खाद्य- सामग्री की कमी होनी शुरू हो गई।
वैसे देखा जाए तो मिस्र के कुल भूभाग का सिर्फ तीन प्रतिशत हिस्सा ही कृषि योग्य है। अधिकांश कृषि- कार्य नील नदी के डेल्टा वाले क्षेत्रों में किया जाता है। लेकिन इतिहास गवाह है कि नील नदी के किनारे धरती इतनी समृद्ध है कि वो मिस्र के लोगों का भेट भर सके। 90 के बाद से कृषि क्षेत्र उपेक्षा का शिकार हो गया। साल 2008 में मिस्र में खाद्यान संकट पैदा हो गया। देश की 40 प्रतिशत गरीब जनता भूखमरी के कगार पर आ गई। इसी साल वैश्विक आर्थिक मंदी ने भी यहां की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। लिहाजा बेरोजगार और भूखे मरने वाले लोगों की जमात अधिक हो गई। गरीबी और अमीरी के बीच की खाई पहले से और भी ज्यादा हो गई। ऐसे में जनता के भीतर बौखलाहट लाजमी है। भूख से तिलमिलाई जनता का गुस्सा तब और फूट पड़ा जब उसका मुठभेड़ वहां कि तानाशाही से हुआ। वैसे तो नौकरशाही का अत्याचार तो मिस्रवासी काफी वक्त से भुगत रहे थे। लेकिन भूख से विचलित जनता पर जब प्रशासन ने जुल्म के कोड़े बरसाने शुरू किए तो जनता का विद्रोह सामने आ गया।
इन दिनों फेसबुक पर 'वी आर ऑल खालेद सईद' नाम की क्मयुनिटी काफी चर्चा में है। ये कम्युनिटी मिस्र के आंदोलन को देश के बाहर बैठे लोगों के जोड़ रही है। इसमें को संदेह नहीं कि वर्तमान में सोशल नेटवर्किंग साइट विद्रोह को प्रसारित करने में अहम रोल अदा कर रही हैं। इसी का परिणाम है कि दुनिया में जहां कहीं भी तानाशाही है..ट्यूनिशिया और मिस्र की घटना को देखते हुए उन्होंने सबसे पहले अपने यहां सोशल नेटवर्किंग साइट्स को बैन कर दिया है। दरअसल ' वी आर ऑल खालेद' कम्युनिटी उस शक्स के नाम पर बनाई गई जो पुलिस जुल्म का शिकार हो गया। काहिरा में खालेद सईद नाम के नौजवान को पुलिस ने बिना बात के गिरफ्तार कर लिया और उसे तब तक टॉर्चर करती रही, जब तक की उसकी जान नहीं चली गई। खालेद का जुर्म बस इतना था कि उसने पुलिस वालों से जुबान लड़ाई थी। ज़ाहिर है इस घटना से वहां के शासन की निरंकुशता सामने उभर कर आती है। ऐसे में जनता के पास सिवाय विद्रोह के और कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता। लेकिन विद्रोह वही कर सकता है, जो सिस्टम की खामियों को समझ सकता हो...जिसे अपने राजनीतिक अधिकारों का पता हो। बीते दशकों में मिस्र की जनता के शिक्षा के स्तर पर विकास हुआ है। लोगों में जैसे ही शिक्षा का स्तर बढ़ा वैसे ही उन्होंने खुद के हालातों की आर्थिक और राजनीतिक समीक्षा शुरू कर दी। मिस्र की इकॉनमी में पेट्रोलियम पदार्थों का सबसे बड़ा योगदान है...और पेट्रोलियम बाजार अमेरिका और यूरोप के हाथ में है। मिस्र के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कोई और मुल्क करे अब यहां कि जनता को इस बात को पचाने में काफी दिक्कत होने लगी है। अगर ये कहा जाए कि मिस्र के लोगों का ये आंदोलन अपने देश के बाजार पर अधिकार की मांग है तो भी गलत नहीं होगा। समग्र रूप से देखा जाए तो इस आंदोलन में हर वर्ग जुड़ा है...चाहे वो यहां कि इंटेलिजेंसिया हो या फिर नीचले वर्ग की शोषित जनता। सभी अपने हक़ और हकूक की मांग कर रहे हैं।

Wednesday, January 19, 2011

कृषि का राजनीतिकरण


आंखों में तैरता गर्द सदियों से साफ नहीं हुआ...
तुम्हारे नसीब की तरह...
तुम्हारे हासिए का धार भी भोथरा हो गया है।
किसानी के गीत...बुआई के बाद आंगन से निकलता
पकवनों की खुशबू काफी दूर हो चुकी है..
तुम्हारी हर घुंटती सांस पर लिखी है राजनीति का ककहरा
जिसे कोई ना कोई चुतिया उसे अपने जीभ पर रखकर तोड़ता है...मरोड़ता है।
फिर फिर अपनी राजनीति की फैक्टरी में..
उसे पॉलिश कर पैकेट बनाता है और सप्लाई कर देता है....


देश में सबसे ज्यादा फजीहत किसानों की है...किसान अपनी लागत से कहीं अधिक पैसे लगाकर खेती का जुआ खेलता है। मौसम की मेहरबानी रही...तो फसल निकल आएगी..अगर मौसम थोड़ा भी बेइमान निकला तो फिर किसानों पर तो आफत ही है। कुल मिलाकर आजादी के बाद से देखा जाए तो किसान आमद की दृष्टिकोण से जहां था वहीं पर है। उसका काम करने का तरीका थोड़ा सा बदला है। कुछ कल- पुरजे उसकी हाथों में आ गए हैं। खेतों में बैल की जगह ट्रैक्टर ने ले लिया है। सिचाई की पारंपरिक व्यवस्था की जगह ट्यूबवेल और कहीं- कहीं नहरों ने ले लिया है....फसलों की कटाई के लिए हारवेस्टर और तमाम तरह के महंगे उपकरण खेतों में आ गए हैं। इनमें से अधिकांश की खरीददारी करने से पहले अच्छा- अच्छा किसान अपना हाल- मउवत दस बार सोच लेता है। छोटे- मोटे किसानों की तो बाद ही छोड़ दिजिए। बहरहाल किसान की औकात खेती के लिहाज से जो रही है वो आज भी वैसी ही है। अन्नदाता पहले भी कर्ज में डूबा रहता था और आज भी सिर से लेकर नाक तक कर्ज में डूबा है। हमारे देश की लगभग 70 फीसदी आबादी कृषि पर परोक्ष या फिर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर है। लेकिन देश की बाकी कमाऊ सेक्टर के मुकाबले कृषि क्षेत्र बिल्कुल उपेक्षित है। सरकार की तरफ से जो स्नेह और सहूलियत इस सेक्टर को मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिल पा रही है।
नतीजा किसान औकात से अधिक की लागत लगाकर खेती करता है, लेकिन बाजार की बदतमीजी के आगे पस्त हो जाता है। उसकी लागत भी शुद्ध रूप से निकल नहीं पाती। लिहाजा ऐसे में किसान के पास आत्महत्या ही एक मात्र चारा बचता है। अभी हाल ही में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने साल 2009 का एक आंकड़ा पेश किया है। आंकड़े के मुताबिक साल 2009 में 17, 368 किसानों ने आत्महत्या की है। ये संख्या साल 2008 के मुकाबले सात फिसदी अधिक है। यानी साल दर- साल किसानों की आत्महत्या की घटना बढ़ती ही जा रही है। अगर इस त्रासदी को दिन के ग्राफ में बांटकर देखा जाए तो प्रत्येक दिन 47 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। किसानों के आत्महत्या की सबसे अधिक मामले महाराष्ट्र से हैं। यहां पर एक साल में 2,872 किसानों ने आत्महत्या की है। ये आंकडा सिर्फ साल 2009 का है। सरकारी आंकड़े ये भी बताते हैं कि साल 2003 से 2007 के बीच अकेले महाराष्ट्र में 12,000 किसानों ने आत्महत्या की हैं। महाराष्ट्र का विदर्भ इस मामले में सबसे अधिक त्रासदी झेल रहा है। केंद्र और राज्य सरकार से योजनाए तो मिली हैं...लेकिन वो भी ऊंट के मूंह में जीरा के बराबर हैं। सरकार किसानों की समस्याओं का स्थाई निदान ढूंढने के बजाय अल्प- कालिक कारणों पर ध्यान दे रही है...जिसका नतीजा है कि किसानों के खुदकुशी का मामला लगाता बढ़ता जा रहा है। महाराष्ट्र के बाद क्रमश: आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों में किसानों के खुदकुशी की घटनाओं में लगातार इजाफा हुआ है। यद्यपि देश के 28 राज्यों में 18 राज्य ऐसे हैं जहां से किसानों की आत्महत्याओं का मामला उजागर हआ है। ऐसे में सरकार की कृषि- नीतियों पर सवाल जरूर खड़े होते हैं। आधे से अधिक राज्य में कृषि बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं...और दिनो- दिन ये मामला काफी गंभीर होती जा रहा है। कृषि और किसान को लेकर राज्य तथा केंद्र सरकरों का रवैया एक जैसा है।

किसानों की आत्महत्या राजनेताओं के लिए राजनीतिक हथियार के तौर पर काम आ रहा है। बजाय इसका निदान ढूंढने के राजनेता इस मसले को राजनीतिक रंग दे रहे हैं। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री का बयान सूर्खियों में रहा। मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया ने आत्महत्याओं का ठिकरा उल्टे किसानों पर फोड़ दिया। उनका कहना था कि अधिक फर्टिलाईजर्स के इस्तेमाल से जमीन की उर्वर्ता कम हो गई है। जिसके चलते फसलों की पैदावार घट गई है और किसान उसी की भरपाई कर रहा है। उनके इस गैर जिम्मेदाराना बयान को विपक्ष ने हाथों- हाथ लिया और फिर राजनीति गरमा गई। आरोप और प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। लेकिन किसी ने भी मध्यप्रदेश किसानों की बदहाली को दूर करने के उपायों पर ध्यान नहीं दिया। अखबारों में आए दिन मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्याओं का मामला सामने आ रहा है। बीते एक महीने में ही इस राज्य के 8 किसानों ने आत्महत्या की है। जबकि तीन अभी भी अस्पताल में हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर गौर करें तो साल 2009 में मध्यप्रदेश के 1,395 किसानों ने आत्महत्या की है। यही हालत देश के 18 राज्यों की भी है...लेकिन इनमें सबसे अधिक पांच राज्य महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़ की है। नेशनल क्राइम ब्यूरो के मुताबिक सिर्फ साल 2010 में आंध्र प्रदेश में 2,414, कर्नाटक में 2,282 और छत्तीसगढ़ में 1,802 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। ये आंकड़े सही मायने में हमारे कृषि प्रधान देश होने की गाथा को बयां कर रहे हैं।

इन आंकड़ों से परे होकर किसानों की मजबूरियों पर अगर नज़र गड़ाएं तो स्थिति और भी भयानक दिखाई देगी...हमारे देश का किसान साहूकारों के चंगुल में फंसा है या फिर सरकारी बैंकों का चक्कर लगाकर गस खा गया है। कर्ज का बोझ ऐसा की एक- एक सांस भारी मालुम पड़ रही है। सरकारी अमले का हमेशा से तर्क रहा है कि किसान सरकारी बैंकों की बजाय साहूकारों का रुख करते हैं...लिहाजा उन्हें घोर मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ता है। लेकिन इन हाकिमों को कौन बताए कि जहां से पैसे उधार लेने का सुझाव ये देते हैं असर में किसान वहीं पर आधा लूट लिया जाता है। सहकारी बैंक का अधिकारी लोन पास करने से पहले उसमें अपना अनैतिक हिस्सा पहले ही पेश कर देता है। अगर उसे उसका हिस्सा मिल गया तो एक- आध महीने में किसान का लोन पास हो जाता है...अगर कहीं किसान ज्यादा सिद्धांतवादी बना तो फिर वो लोन जैसे शब्द को भूल ही जाए।

भारत शुरू से ही कृषि आधारित देश रहा है। इतिहास को खंगाले तो  देश की आर्थिक और आधारभूत ढांचा कृषि था। बल्कि कहा जाए कि भारत की संस्कृति ही कृषि रही है। बिना कृषि के भारत वैसे ही जान पड़ेगा जैसे बिना आत्मा के शरीर...। कृषि इस देश की पहचान है। अंग्रेजों के इस देश में आने तक भारतीय सभ्यता मौलिक रूप से कृषि- कार्य पर ही निर्भर थी। उपनिवेश बनने के बाद यहां कि खेती में आमूल- चूल परिवर्तान आया। चूंकि अंग्रजों को रॉ मैटेरियल की ज्यादा जरूरत थी लिहाजा उन्होंने भारत में उन उस उत्पादन पर ज्यादा ध्यान दिया जिससे उनको फायदा पहुंचे...लिहाजा नील, चाय और मसालों की पैदावार काफी होने लगी। इससे पहले किसान सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। किसान होने का एक अलग ही स्वाभिमान था। लेकिन अंग्रेजों के काल में भारत का किसान शोषण का केंद्र बना गया और फिर आज तक ये परिपाटी चली आ रही है। हालांकि हरित क्रांति जैसे शब्द कृषि इतिहास में गुंजयमान होते हैं...लेकिन ये सिर्फ क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रहे। पंजाब और हरियाणा कृषि लैब के रूप में तो स्थापित हो गया लेकिन बाकी के राज्यों और उनकी फसलों के तरफ किसी भी सरकार का ध्यान नहीं गया।

कृषि को लेकर सरकार का रवैया अगर कहा जाए कि सौतेला रहा है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। जीडीपी में अगर प्रमुख सेक्टरों का जिक्र करें तो कृषि की हालत मरियल जैसी है। जबकि इसके ऊपर देश की आधे से अधिक आबादी निर्भर है। लेकिन जब बजट बनता है तो इस सेक्टर सिर्फ साढ़े तीन फीसदी की बैसाखी दे दी जाती है। वहीं सर्विस सेक्टर और इंडस्ट्रीयल सेक्टर जैसे कमाऊ पूत हैं...के लिए सरकार खजाना खोल देती है। सरकार अगर बाकी क्षेत्रों की तरह ही कृषि क्षेत्र को भी सब्सिडी दे तो निश्चित रूप से इस देश की किसानी और किसान दोनों मजबूत होगा। खाद और बीज की कीमतों पर सरकार की थोड़ी सी रहमो-करम हो जाए तो फिर हालात जरूर ही बेहतर होंगे। किसानों का बाजार से सीधा संपर्क हो....किसान खुद का आउटलेट लागाए...और...उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया जाए....तो जरूर ये क्षेत्र पैसा देना शुरू कर देगा।
लेकिन अफसोस कि आम भारतीय जनता के मन में विकास का खांका बड़ी- बड़ी इमारतों, शॉपिंग कॉंप्लेक्स, चौड़ी- चमचमाती सड़कें और लाइट्स की चकाचौंध है। लेकिन इस पर ध्यान किसी का नहीं जाता है...कि जिस शिशानुमा रेंस्तरां में बैठकर लजीज भोजन का आनंद लिया जाता है...उसकी पैदावार गांवों में होती है। दुख है कि पैदावार को विकास के दर्शन से जोड़कर नहीं देखा गया है। महात्मा गांधी के रास्ते- कदम पर चलने का दावा करने वाली कांग्रेस ने ही उनके विचारों को तिलांजलि दिया है। महात्मा गांधी के मुताबिक देश का विकास गांवों से होना चाहिए....लेकिन विकास की गंगा खेत- खलिहानों से न बहकर शहर की धुआं फेंकती आबादी से बह निकली। आज के दौर में पलायन का कुरुप चेहरा आप सभी देख रहे होंगे।

Thursday, January 13, 2011

महंगाई: कौन तलाशे उपाय????


देश की जनता महंगाई की मार से सिसकियां ले रही है तो वहीं दूसरी तरफ हमारे नेता वाक युद्ध में मशगूल हैं। आरोप और प्रत्यारोपों के तीर एक दूसरे पर साधे जा रहे हैं। इससे किसी के इगो को ठेस पहुंच रहा है तो किसी को गठबंधन की मर्यादा का खयाल आ रहा है। कोई सरकार में स्थाईत्व की बात कर रहा है तो कोई सरकार की नाकामियों की उधेड़- बुन में लगा है। लेकिन किसी भी राजनेता की नज़र आम आदमी की थाली पर नहीं जा रही है। लोगों का एक- एक निवाला कितना महंगा हो गया है...इससे बेफिक्र हमारे राजनेता एक- दूसरे पर छिटाकशी करने में लगे। जितना दिमाग वे एक दूसरे कि आलोचना में खपा रहे हैं शायद वो इतना दिमाग अगर जनता की सुध लेने में लगाते तो आज महंगाई से निजात पाने में कुछ हद तक कामयाबी मिल गई होती। एक जनवरी को खत्म हुए सप्ताह में महंगाई दर भले ही नीचे आ गई हो लेकिन अभी भी आम आदमी की थाली से खाने- पीने की जरूरी चीजें बहुत दूर हैं। सरकार की सभी कोशिशों की बैंड बज गई है। लेकिन बावजूद इस पर और संजीदगी से विचार करने के हमारी राजनीति के धुरंधर अपनी- अपनी पार्टी की मयार को बचाने में लगे हैं। एक तरफ एनसीपी राहुल गांधी के उस बयान पर उन्हें इगोइस्ट करार दे रही है..जिसमें उन्होंने महंगाई पर काबू न पाने के लिए गठबंधन की राजनीति का रोना रोया था। तो वहीं दूसरी तरफ महाराष्ट्र की सरकार राहुल के बचाव में कशीदे पढ़ रही है। विरोध पार्टी बीजेपी को झंडा यात्रा से फुर्सत मिले तो वो कहीं जाकर आम आदमी की बात करे। दलगत राजनीति और शिर्ष नेताओं की चापलुसी के चकोह में आम जनता तिनके की भांति चक्कर काट रही है..। कैबिनेट की एक के बाद एख बैठकें हो रही हैं....लेकिन परिणाम कुछ भी निकल कर नहीं आ रहा। आज भी प्रधानमंत्री के आवास पर कैबिनेट की बैठक हुई लेकिन मंत्रियों ने बजाय मंहगाई पर कोई ठोस उपाय जताने के एक दूसरे- पर ही छिटाकशी शुरु कर दिए। नीतीजा ये रहा कि बैठक असफल रही। बैठक में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और कृषि मंत्री शरद पवार के बीच चीनी की कीमतों को लेकर तनातनी हो गई। नौबत ये आ गई कि प्रणव दा को मीटिंग छोड़ कर जाना पड़ा। हालांकि ये बात नहीं है कि महंगाई पर नियंत्रण नहीं लगा है लेकिन ये पहल ऊंट के मूंह में जीरा के बराबर है। पिछले पांच सप्ताह से जारी खाद्य मुद्रास्फीति की तेजी पर ब्रेक लगा है। एक जनवरी को खत्म हुए सप्ताह के दौरान दाल, गेहूं और आल के दामों में पौने दो फीसदी तक की गिरावट आई, लेकिन सब्जियों मे प्याज और दूध और अंडे की कीमतों में कोई फर्क नहीं आया। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने प्रेस कांफ्रेंस में खाद्यान्न महंगाई की दर को लेकर दहशत नहीं फैलाने को कहा और ये आश्वासन दिया कि महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार जल्द ही ठोस उपायों की घोषणा करेगी। लेकिन सरकार ऐसी पहले भी कई घोषणाएं कर चुकी हैं। ऐसे में जनता धर्य कैसे बनाए रखे। जिस ठोस उपाय की सरकार बात कर रही है उसे वो आखिर कब तक लागू करेगी??? वैसे सीधे तौर पर देखा जाए तो खाद्य महंगाई को कंट्रोल में लाने की जिम्मेदारी कृषि और खाद्य आपूर्ति मंत्री शरद पवार की है। लेकिन पवार महोदय पहले ही अपने हाथ खड़े कर चुके हैं और इसके लिए सरकार की सामूहिक जिम्मेदारी बता रहे हैं। एक तरफ जनता महंगाई से त्राहि- त्राहि कर रही है तो वहीं दूसरी तरफ मंत्री जिम्मेदारी किसकी इस पर बहस कर रहे हैं।