Wednesday, January 19, 2011

कृषि का राजनीतिकरण


आंखों में तैरता गर्द सदियों से साफ नहीं हुआ...
तुम्हारे नसीब की तरह...
तुम्हारे हासिए का धार भी भोथरा हो गया है।
किसानी के गीत...बुआई के बाद आंगन से निकलता
पकवनों की खुशबू काफी दूर हो चुकी है..
तुम्हारी हर घुंटती सांस पर लिखी है राजनीति का ककहरा
जिसे कोई ना कोई चुतिया उसे अपने जीभ पर रखकर तोड़ता है...मरोड़ता है।
फिर फिर अपनी राजनीति की फैक्टरी में..
उसे पॉलिश कर पैकेट बनाता है और सप्लाई कर देता है....


देश में सबसे ज्यादा फजीहत किसानों की है...किसान अपनी लागत से कहीं अधिक पैसे लगाकर खेती का जुआ खेलता है। मौसम की मेहरबानी रही...तो फसल निकल आएगी..अगर मौसम थोड़ा भी बेइमान निकला तो फिर किसानों पर तो आफत ही है। कुल मिलाकर आजादी के बाद से देखा जाए तो किसान आमद की दृष्टिकोण से जहां था वहीं पर है। उसका काम करने का तरीका थोड़ा सा बदला है। कुछ कल- पुरजे उसकी हाथों में आ गए हैं। खेतों में बैल की जगह ट्रैक्टर ने ले लिया है। सिचाई की पारंपरिक व्यवस्था की जगह ट्यूबवेल और कहीं- कहीं नहरों ने ले लिया है....फसलों की कटाई के लिए हारवेस्टर और तमाम तरह के महंगे उपकरण खेतों में आ गए हैं। इनमें से अधिकांश की खरीददारी करने से पहले अच्छा- अच्छा किसान अपना हाल- मउवत दस बार सोच लेता है। छोटे- मोटे किसानों की तो बाद ही छोड़ दिजिए। बहरहाल किसान की औकात खेती के लिहाज से जो रही है वो आज भी वैसी ही है। अन्नदाता पहले भी कर्ज में डूबा रहता था और आज भी सिर से लेकर नाक तक कर्ज में डूबा है। हमारे देश की लगभग 70 फीसदी आबादी कृषि पर परोक्ष या फिर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर है। लेकिन देश की बाकी कमाऊ सेक्टर के मुकाबले कृषि क्षेत्र बिल्कुल उपेक्षित है। सरकार की तरफ से जो स्नेह और सहूलियत इस सेक्टर को मिलनी चाहिए थी वो नहीं मिल पा रही है।
नतीजा किसान औकात से अधिक की लागत लगाकर खेती करता है, लेकिन बाजार की बदतमीजी के आगे पस्त हो जाता है। उसकी लागत भी शुद्ध रूप से निकल नहीं पाती। लिहाजा ऐसे में किसान के पास आत्महत्या ही एक मात्र चारा बचता है। अभी हाल ही में नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने साल 2009 का एक आंकड़ा पेश किया है। आंकड़े के मुताबिक साल 2009 में 17, 368 किसानों ने आत्महत्या की है। ये संख्या साल 2008 के मुकाबले सात फिसदी अधिक है। यानी साल दर- साल किसानों की आत्महत्या की घटना बढ़ती ही जा रही है। अगर इस त्रासदी को दिन के ग्राफ में बांटकर देखा जाए तो प्रत्येक दिन 47 किसान आत्महत्या कर रहे हैं। किसानों के आत्महत्या की सबसे अधिक मामले महाराष्ट्र से हैं। यहां पर एक साल में 2,872 किसानों ने आत्महत्या की है। ये आंकडा सिर्फ साल 2009 का है। सरकारी आंकड़े ये भी बताते हैं कि साल 2003 से 2007 के बीच अकेले महाराष्ट्र में 12,000 किसानों ने आत्महत्या की हैं। महाराष्ट्र का विदर्भ इस मामले में सबसे अधिक त्रासदी झेल रहा है। केंद्र और राज्य सरकार से योजनाए तो मिली हैं...लेकिन वो भी ऊंट के मूंह में जीरा के बराबर हैं। सरकार किसानों की समस्याओं का स्थाई निदान ढूंढने के बजाय अल्प- कालिक कारणों पर ध्यान दे रही है...जिसका नतीजा है कि किसानों के खुदकुशी का मामला लगाता बढ़ता जा रहा है। महाराष्ट्र के बाद क्रमश: आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्यों में किसानों के खुदकुशी की घटनाओं में लगातार इजाफा हुआ है। यद्यपि देश के 28 राज्यों में 18 राज्य ऐसे हैं जहां से किसानों की आत्महत्याओं का मामला उजागर हआ है। ऐसे में सरकार की कृषि- नीतियों पर सवाल जरूर खड़े होते हैं। आधे से अधिक राज्य में कृषि बदहाली के दौर से गुजर रहे हैं...और दिनो- दिन ये मामला काफी गंभीर होती जा रहा है। कृषि और किसान को लेकर राज्य तथा केंद्र सरकरों का रवैया एक जैसा है।

किसानों की आत्महत्या राजनेताओं के लिए राजनीतिक हथियार के तौर पर काम आ रहा है। बजाय इसका निदान ढूंढने के राजनेता इस मसले को राजनीतिक रंग दे रहे हैं। अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री का बयान सूर्खियों में रहा। मध्यप्रदेश के कृषि मंत्री रामकृष्ण कुसमरिया ने आत्महत्याओं का ठिकरा उल्टे किसानों पर फोड़ दिया। उनका कहना था कि अधिक फर्टिलाईजर्स के इस्तेमाल से जमीन की उर्वर्ता कम हो गई है। जिसके चलते फसलों की पैदावार घट गई है और किसान उसी की भरपाई कर रहा है। उनके इस गैर जिम्मेदाराना बयान को विपक्ष ने हाथों- हाथ लिया और फिर राजनीति गरमा गई। आरोप और प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। लेकिन किसी ने भी मध्यप्रदेश किसानों की बदहाली को दूर करने के उपायों पर ध्यान नहीं दिया। अखबारों में आए दिन मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्याओं का मामला सामने आ रहा है। बीते एक महीने में ही इस राज्य के 8 किसानों ने आत्महत्या की है। जबकि तीन अभी भी अस्पताल में हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर गौर करें तो साल 2009 में मध्यप्रदेश के 1,395 किसानों ने आत्महत्या की है। यही हालत देश के 18 राज्यों की भी है...लेकिन इनमें सबसे अधिक पांच राज्य महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़ की है। नेशनल क्राइम ब्यूरो के मुताबिक सिर्फ साल 2010 में आंध्र प्रदेश में 2,414, कर्नाटक में 2,282 और छत्तीसगढ़ में 1,802 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। ये आंकड़े सही मायने में हमारे कृषि प्रधान देश होने की गाथा को बयां कर रहे हैं।

इन आंकड़ों से परे होकर किसानों की मजबूरियों पर अगर नज़र गड़ाएं तो स्थिति और भी भयानक दिखाई देगी...हमारे देश का किसान साहूकारों के चंगुल में फंसा है या फिर सरकारी बैंकों का चक्कर लगाकर गस खा गया है। कर्ज का बोझ ऐसा की एक- एक सांस भारी मालुम पड़ रही है। सरकारी अमले का हमेशा से तर्क रहा है कि किसान सरकारी बैंकों की बजाय साहूकारों का रुख करते हैं...लिहाजा उन्हें घोर मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ता है। लेकिन इन हाकिमों को कौन बताए कि जहां से पैसे उधार लेने का सुझाव ये देते हैं असर में किसान वहीं पर आधा लूट लिया जाता है। सहकारी बैंक का अधिकारी लोन पास करने से पहले उसमें अपना अनैतिक हिस्सा पहले ही पेश कर देता है। अगर उसे उसका हिस्सा मिल गया तो एक- आध महीने में किसान का लोन पास हो जाता है...अगर कहीं किसान ज्यादा सिद्धांतवादी बना तो फिर वो लोन जैसे शब्द को भूल ही जाए।

भारत शुरू से ही कृषि आधारित देश रहा है। इतिहास को खंगाले तो  देश की आर्थिक और आधारभूत ढांचा कृषि था। बल्कि कहा जाए कि भारत की संस्कृति ही कृषि रही है। बिना कृषि के भारत वैसे ही जान पड़ेगा जैसे बिना आत्मा के शरीर...। कृषि इस देश की पहचान है। अंग्रेजों के इस देश में आने तक भारतीय सभ्यता मौलिक रूप से कृषि- कार्य पर ही निर्भर थी। उपनिवेश बनने के बाद यहां कि खेती में आमूल- चूल परिवर्तान आया। चूंकि अंग्रजों को रॉ मैटेरियल की ज्यादा जरूरत थी लिहाजा उन्होंने भारत में उन उस उत्पादन पर ज्यादा ध्यान दिया जिससे उनको फायदा पहुंचे...लिहाजा नील, चाय और मसालों की पैदावार काफी होने लगी। इससे पहले किसान सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। किसान होने का एक अलग ही स्वाभिमान था। लेकिन अंग्रेजों के काल में भारत का किसान शोषण का केंद्र बना गया और फिर आज तक ये परिपाटी चली आ रही है। हालांकि हरित क्रांति जैसे शब्द कृषि इतिहास में गुंजयमान होते हैं...लेकिन ये सिर्फ क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रहे। पंजाब और हरियाणा कृषि लैब के रूप में तो स्थापित हो गया लेकिन बाकी के राज्यों और उनकी फसलों के तरफ किसी भी सरकार का ध्यान नहीं गया।

कृषि को लेकर सरकार का रवैया अगर कहा जाए कि सौतेला रहा है तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। जीडीपी में अगर प्रमुख सेक्टरों का जिक्र करें तो कृषि की हालत मरियल जैसी है। जबकि इसके ऊपर देश की आधे से अधिक आबादी निर्भर है। लेकिन जब बजट बनता है तो इस सेक्टर सिर्फ साढ़े तीन फीसदी की बैसाखी दे दी जाती है। वहीं सर्विस सेक्टर और इंडस्ट्रीयल सेक्टर जैसे कमाऊ पूत हैं...के लिए सरकार खजाना खोल देती है। सरकार अगर बाकी क्षेत्रों की तरह ही कृषि क्षेत्र को भी सब्सिडी दे तो निश्चित रूप से इस देश की किसानी और किसान दोनों मजबूत होगा। खाद और बीज की कीमतों पर सरकार की थोड़ी सी रहमो-करम हो जाए तो फिर हालात जरूर ही बेहतर होंगे। किसानों का बाजार से सीधा संपर्क हो....किसान खुद का आउटलेट लागाए...और...उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया जाए....तो जरूर ये क्षेत्र पैसा देना शुरू कर देगा।
लेकिन अफसोस कि आम भारतीय जनता के मन में विकास का खांका बड़ी- बड़ी इमारतों, शॉपिंग कॉंप्लेक्स, चौड़ी- चमचमाती सड़कें और लाइट्स की चकाचौंध है। लेकिन इस पर ध्यान किसी का नहीं जाता है...कि जिस शिशानुमा रेंस्तरां में बैठकर लजीज भोजन का आनंद लिया जाता है...उसकी पैदावार गांवों में होती है। दुख है कि पैदावार को विकास के दर्शन से जोड़कर नहीं देखा गया है। महात्मा गांधी के रास्ते- कदम पर चलने का दावा करने वाली कांग्रेस ने ही उनके विचारों को तिलांजलि दिया है। महात्मा गांधी के मुताबिक देश का विकास गांवों से होना चाहिए....लेकिन विकास की गंगा खेत- खलिहानों से न बहकर शहर की धुआं फेंकती आबादी से बह निकली। आज के दौर में पलायन का कुरुप चेहरा आप सभी देख रहे होंगे।

1 comment:

Anonymous said...

किसान अगर आत्मनिर्भर होगा..तो देश का बाकी आम आदमी आराम से खा- पी सकेगा...