Friday, January 30, 2009

मन रे तू काहे ना धीर धरे

बहुत दिनों से सोच रहा था कि कुछ लिखूं पर क्या लिखू इस पर माथापच्ची कुछ अधिक ही थी। ऐसा नही था कि विषयों की कमी थी या फिर भावों की कमी थी। दरअसल होता ऐसा, कि एक ही क्षण में ढेरों भाव उमड़ आते, कई मुद्दे एक साथ मस्तिस्क का फाटक ठकठकाने लगते और समय भी इतना नही रहता कि मैं सबको लिख सकूं। क्योंकि देर रात जब में एक- आध घंटा खाली होता हूं तभी मैं विचारों को लिखने बैठता हूं...बहरहाल इस दरम्यान कई ऐसे मुद्दे आए और लिखने के लिए बेचैन किए। मसलन स्लमडॉग और ऑस्कर रुपी फसल पर अमिताभी वर्षा, मेरे मित्र की शादी और उसकी नई लुगाई, क्राइम ब्रांच और क्राइम शो, गणतंत्र दिवस  इत्यादि इत्यादि। और हां एक महत्वपूर्ण व्यक्ति छूट ही गए। उनको भूलना भी खुद से बेमानी होगी। मेरा इशारा पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी जी की ओर है....दरअसल आडवाणी जी पहुंचे थे एक न्यूज़ चैनल द्वारा आयोजित अवार्ड फंक्शन में, जहां उन्हे लाइफ टाइम एचिवमेंट अवॉर्ड से नवाजा भी गया। अब साहब अवॉर्ड का माहौल था। अकले आडवानी जी थोड़े ही थे। फिल्मी गीत लिखने वाले प्रसून जोशी को भी बेस्ट लीरिसिस्ट का अवॉर्ड मिला। इसी बीच प्रसून द्वारा लिखित गाना बज उठा " मैं कभी बतलाता नहीं पर अंधेरे से डरता हूं मैं मां, भीड़ में यू ना छोड़ों मुझे घर लौटके भी आना पाउंगा" फिर क्या था कैमरा आडवाणी जी पर केंद्रित हो गया। होंठ कपकपा रहे थे आडवाणी जी के, आंखे नम हो रही थीं, चेहरे का भाव गहराता जा रहा था। शायद हमारे आडवाणी जी को अपनी मां याद आ गई थीं।
पब्लिक भी बड़ी घनचक्कर चीज है। कहां तक उनके रोने पर लोग कुछ भावपूर्ण विचार व्यक्त करते, उल्टा प्रश्न वाचक और विस्मियादि वोधकपूर्ण विचारों से माहौल को पाट दिया। कहीं पर लोगों द्वारा ही सुना " अरे, लोकसभा चुनाव आ रहा है, हर चीज का ट्रेंड बदल गया है मार्केटिंग का जमाना है। आज अपने ऑर्गनाइजेशन की मार्केटिंग करने से पहले खुद की मार्केटिंग करनी पड़ती है । आडवाणी जी लोकसभा के लिए खुद की मार्केटिंग कर रहे हैं। सब पब्लिसीटी का फंडा है।" बेवकूफ लोग! भाई मुझे तो बड़ी तकलीफ हुई। आज ही थोड़े अपने आडवाणी जी इस तिकड़म में पहले से ही माहिर हैं। कहां भाजपा की लोकसभा सीटें इकाई में होती थीं। जब से 'जय श्रीराम कमल निशान' का नारा दिया, धड़ से सीटों की गिनती दहाई में पहुंच गई। और न और, बिना जाने बूझे लोग बात करते हैं पब्लिसीटी की।
उफ़्फ! क्या जमाना आ गया है। हमारे आडवाणी जी पब्लिक प्लेस में अपने ह्रदय के भाव भी नही व्यक्त कर सकते हैं। सबको अपनी भावनाओं को प्रदर्शित करने का अधिकार है। आखिरकार मनुष्य एक भावुक प्राणी है। और वैसे भी भावुकता की उनकी यह पहली मिसाल थोड़े ही है इससे पहले भी हिंदुत्व की रथयात्रा करते-करते पाकिस्तानी मज़ार पर अपना श्रद्धा सुमन अर्पित कर चुके हैं। अब दुनिया लाख बवाल मचाए तो मचाए। राजनीति के सियार गला फाड़ कर हुंआ-हुंआ करे तो करे। अरे कितना भी है तो भाव है, भाव को मस्तिस्क द्वारा थोड़े ही ट्रिट किया जा सकता है। ये अलग बात है कि भावाभिव्यक्ति कर देने के थोड़े ही देर बाद हमारे माननीय पीएम इन वेटिंग मस्तिस्काभिव्यक्ति कर बैठते हैं। और पब्लिक अभी तीर-तुक्का करती ही है कि.....नया भाव कूंलाचे मार ही देता है। मन रे तू कहा ना धीर धरे....मुआ मन जो ना सो कराए, अब पब्लिक 'पीएम इन वेटिंग' साहब को हलके में लेना शुरू कर दी है। सबसे पहले तो इन मीडिया वालों को ही लिजिए...समारोह में आमंत्रित करते हैं, फलान-ठेकान अवार्ड से नवाजते हैं और माननीय पीएम इन वेटिंग साहब पर खबर भी बना देते हैं।। मुझे तो डर था कहीं मीडिया वाले लोगों से sms मंगाना शुरू न कर दे, कि बताएं 'आडवाणी जी के आंसू नकली थे या असली' या फिर किसी स्व अनुशासित चैनल द्वारा दर्शकों की राय मांगी जाय कि " आडवाणी के आंसू---(a) नकली थे (b) असली थे (c) लोगों की संवेदना हांसिल करने का तरीका (d) मां वाला गीत सुनकर रुलाई आना स्वभाविक है
शुक्र है कि किसी ने ऐसा दुस्साहस नही किया। एक तो पहले से ही ब्ला ब्ला एक्ट बनाने की कवायद जोर शोर से चल रही है। लेकिन एक ज़रूर बात कहूंगा आडवाणी साहब की लोकप्रियता गिराने में कंबख्त मीडिया ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है, जब ना तब ले दे के हलकी ख़बर बना देती है। आज-कल उनकी खबरे एक बुलेटिन से दूसरे बुलेटिन तक ही सिमट कर रह गई हैं और उनके सामने ही उनकी पार्टी में राजनीति का ककहरा पढ़ने वालों की न्यूज़ दो-दो दिन तक अख़बारों और टीवी की सुर्खियां बनी रहती हैं। और ना तो और पता नही किस खुराफाती ने 'पीएम इन वेटिंग' नाम दे दिया। अब तो हर अखबार में, ख़बरिया चैनलों में नाम से पहले 'पीएम इन वेटिंग' लगाया जा रहा है। अब तो लगता है कि जनता कहीं
लालकृष्ण आडवाणी का नाम भूलकर सिर्फ पीएम इन वेटिंग ही याद न रखे। कहीं आगामी चुनाव में कार्यकर्ता 'आडवाणी जिंदाबाद' की जगह 'पीएम इन वेटिंग' जिंदाबाद नही करने लगे। अब तो ऐसा लगता है जीवन के अंत समय में कहीं पीएम इन वेटिंग बनकर ही नही रह जायें। दूसरों से तो खैर निपट भी लेते लेकिन मोदीवाद की बयार और राजनाथी पछुआ ने तो तूल मचा के रख दिया है। प्रभु इतनी सारी परेशानियां, इतने सारे मुदई। अब मां की याद तो आएगी ही....और याद आएंगी तो आंसू का छलकना लाजिमी है। हाय! मन रे तू काहे नही धीर धरे......

Thursday, January 15, 2009

कितना दूर.. है बचपन

मैं और मेरा दोस्त आदर्श दोनों ऑफिस के लिए निकले हुए थे चूकी रोज की तरह आज भी हम लोग लेट हो गए थे। कहने का मतलब यह नही कि हम लेट-लतीफे लोगों में से हैं बहरहाल एक गाने की लाइन याद आती है..कि .."मेरे जागने से पहले हाय रे मेरी किस्तमत सो जाती है,..मैं देर करता नहीं देर हो जाती है". जी यही सीन कम से कम मेरे साथ ज़रूर ही हो जाती है। खैर, हम लोग आगे बढ़ रहे थे तेज कदमों से। मुझे बस एक चीज ही दिखाई दे रहा था वो था मेरा ऑफिस...मन एक ही बात सोच रहा था कि कॉलेज से निकलते ही आर्थिक मंदी के इस दौर में नौकरी लगी है, और यही हालत रही तो टर्मिनेशन लेटर मिलने में देर नहीं है..। बस मस्तिस्क में ढेरों चिंतायें घुमड़ रहीं थी और कदम तेजी से बस स्टॉप के् तरफ बढ़े चले जा रहे थे। चलते-चलते सहसा आदर्श बोला, " अरे वो देखो गिलहरी.। वाह! क्या उछलकूद कर रही है। अहा..देखों ना कैसे घुचक-घुचक कर चल रही है.।" फिक्र के बादलों से मैंने देखा और बामुश्किलन एक पल का समय लगा होगा मेरी आंखों को नज़र मिल गई थी। वो नज़र जिससे मैं अपने बचपन के दिन को महसूस कर सकता था। सड़क पर गाड़ियों के शोरगुल विलुप्त हो चुके थे क्योंकि अब मेरा मन मेरे गांव में चला गया था। खेतों में, आम के बागिचों में, जिससे होकर मैं स्कूल जाया करता था।.मेरे घर के सामने अमरूद और आम के पेड़ जिसपे ढेरों चिड़ियों और गिलहरियों का बसेरा होता था।। उनकी हर गतिविधि को ध्यान से देखा करता था। और कई दफे हम और मेरे भईया इनको पकड़ने के प्लान बनाया करते। नंदन पंत्रिका को उनके बीच पढ़ता तो एक विचित्र सा अनुभव करता..मानों गांव के लोग हट गए है देवीलाल खरगोश लाल हो गए है..। रामनाथ बाबा की जगह भालू बाबा हो गए हैं, और गिलहरियों के झूंड तो मेरे साथी हो गए हैं अब मैं 'सोबई बांध' गांव में नही बल्की 'नंदन वन' में रहता हूं
फिर कई घंटे कोर्स की किताबों को दूर रख कल्पनाओं के आगोश पड़े-पड़े सो जाता था ।
ठीक मेरे गांव के गिलहरी जैसी थी वह गिलहरी जिसे आदर्श बड़े ही कौतुहल से दिखाया था..। उसकी चाल, उसकी हरकतें वैसी ही थीं जैसे मेरे घर के सामने गिलहरियां रहती थी। खुर से पेंड़ से उतरना, एक दम चौकन्ना होकर और जैसे ही कोई आहट पाए फट से उपर पेड़ पर चढ़ जाना। हर उछलकूद और रूक कर झ़टके से पलटकर देखना मानों हमें चिढ़ा रही हों "आबे दम है तो पकड़ के दिखा ना"। वह गिलहरी मेरे गांव की लग रही थी। मेरे घर सी लगा रही थी, हूं बहू वही लग रही थी। गिलहरी ही तो थी जब हम आम के दिनों में मुहल्ले के दोस्तों के साथ बागिचों में जाते थे आम खाते थे...और साथ में गिलहरी भगाओं अभियान चलाते थे। पड़ोस के 'दंतू' भईया गुट में खड़ा होकर चिल्लाते थे। " ये गिलहरिया हमारा आम खा जा रहीं हैं इन्हें यहां से भगाना होगा...आम को आधा खा रहीं है और बिगाड़ दे रही है, कहां पका हुआ आम हम लोग खाते ये सब चख-चखकर बर्बाद कर देती हैं" फिर गिलहरियों को भगाना, तपती दोपहरी में बागीचों में गिलहरियों के पीछे दौड़ना..और जब तक थक नहीं जाते तब तक हू..ले..ले..ले..करते रहना.। गिलहरियां भी पूरे बागिचे को अपना ही सम्राज्य समझती थीं कितना भी भगाओ पेड़ पर चढ़ जातीं और फिर नीचे उतर आतीं और फिर जब हमारा झूंड दैड़ता फिर पेड़ों पर चढ़ जाती.। शायद उन्हे यह खेल जैसा लगता था और हमे भी यह काफी रोचक लगता था।। अब तो रोज का काम हो गया था अब यह पूरी तरह से हमारे लिए और गिलहरियों के लिए खेल बन चूका था। एक दिन ऐसे ही खेल चला और खेल हिंसक बन गया। इस बार हम सबके हाथ में पत्थर थे और गिलहरिया हमेशा बाल-बाल बच रही थीं लेकिन दंतू भईया के हाथ से निकला पत्थर झूंड की एक गिलहरी को अपना शिकार बना बैठा...पत्थर लगते ही गिलहरी तड़फड़ाने लगी.। पहले तो हमलोगों की कोलाहल में कुछ पता नही चला फिर कुछ देर बाद सारे साथी शांत थे। बागीचा शांत हो गया था। गिलहरिया पेड़ों में विलीन हो गई थीं। सभी ने आरोपी ठहराती हुई नज़रों से एक साथ दंतू भईया को घूरे..। दंतू भईया भी पहले बात को हवा में उड़ाने की कोशिश किए और ही..ही..ही..हसकर घटना को कमतर करने का प्रयास करने लगे.। एक ने गिलहरी को को हाथ में उठा कर रख लिया..गिलहरी अभी भी छटपटा रही थी, मन में आ रहा था आह! मर जाए तो ही अच्छा। सभी का ह्रदय करूणा से भर गया था। लेकिन दिल का बोझ उतारने के लिए सभी को एक ही व्यक्ति मिला और वो थे दंतू भईया। हर तरफ से आवाजें उठ रही थीं। " हम लोग थोड़े ही मारे हैं, दंतू भईया मारे हैं। सारा पाप इन्ही पर जाएगा।" मैं भी अपने ग्लानी भरे ह्रदय को कुछ कम करने के लिए सफाई दिया, " मै तो गिलहरियों पर पत्थर नहीं मार रहा था। मैं तो इधर-उधर फेंक रहा था। एक दम गिलहरियों को बचाकर।" फिर किसी ने कहां नहीं जो रुखी (गिलहरी) मारता है, वह दु:खी हो जाता है हमेशा के लिए। हम सब मार रहे थे इसका पाप हम सब पर पड़ेगा.। लेकिन कुछ समझदार लड़को ने कहां" देखो भाई, गिलहरी मारे हैं दंतू भईया, हमें यह करने को कहे दंतू भईया और मारे भी दंतू भईया। इसलिए बड़ा सा पाप दंतू भईया को मिलेगा और जो थोड़ा- थोड़ा पाप हमें मिलेगा उसमें भी दंतू भईया की हिस्सेदारी होगी क्योंकि इन्होंने ही हमें उकसाया था"। अब हम सबको कुछ इतमिनान मिला, चलो दंतू भईया को ढेर सारा पाप मिलेगा और हम सबको थोड़ा-थोड़ा। लेकिन इसी दरम्यान सभी को रोने की कातर आवाज सुनाई दी सबने देखा पीछे दंतू भईया रो रहे थे। दोनों घुटनों में सिर को झुकाए बैठे रो रहे हैं। अब यह देख सभी पाप से मुक्ती पर विचार करना शूरू कर दिए। " दंतू भईया, आप रोईये मत आज के बाद से हम कभी भी गिलहरी नही मारेंगे जहां तक रही बात पाप की तो इस गिलहरी का दाह संस्कार कर देते हैं और भगवानजी से अपनी करतूत के लिए क्षमा मांग लेते हैं।" लगभग सभी की यही प्रितिक्रिया हुई कि गिलहरी का क्रियाकर्म कर दिया जाय और भगवान से मांफी मांग लिया जाय। अब हम सबने छोटी-छोटी लकड़ियों को जोड़ कार अर्थी बनाई और 'दंतू' भईया को आगे वाली लकड़ी पकड़ने को दिया गया। फिर गढ्ढा खोदकर उस गिलहरी को उसमें रख कर मिट्टी डाल दी गई। और उस पर एक बेहाया का फूल भी रख दिए। फिर सब खड़े होकर मौन धारण किए और गिलहरी की आत्मा से और भगवान से मांफी मांगे (दो मिनट का मौन धारण स्कूलों में बहुत बार कराया गया था )। उसके बाद कई दिनों तक उस बागिचे में गए लेकिन अब गिलहरिया हमें देखते ही पेड़ों में गायब हो जाती थीं। उसके बाद कई दिनों तक वहां जाना ही छोड़ दिए.। अब घर की गिलहरियों को पकड़ने का सपना भी मैं छोड़ दिया। बस देखकर एक चीज सोचता वो भी तब, जब मैं स्कूल जाने के लिए निकलता कि मैं गिलहरी क्यों नही हुआ कम से कम स्कूल तो नही जाना पड़ता। तभी भ्रम टूटा मैं गांव से दूर था, बचपन से दूर था, पश्चाताप के अनुभव से दूर था। क्योंकि आदर्श ने मेरा भ्रम तोड़ा, "चलो ऑफिस आ गया उतरते हैं"..।

Saturday, January 10, 2009

किसकी मानसिकता, किसकी पहचान




चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

ब्लांगिग के दुनियां में एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनका हर पोस्ट पढ़ने पर आदमी तरंग बन बहने लगता है। ज्यों-ज्यों पंक्तियों के भाव बनते निकलते जाते हैं त्यों त्यों आदमी तरंग बन उन पंक्तियों के साथ बहता चला जाता है। तरंग के भाव भी अलग-अलग होते हैं। कभी बिल्कुल ही करुण तो कभी हास तो कभी क्षोभ..। तरह-तरह भाव हर पो्स्ट में पढ़ने को मिलते हैं। दरअसल मैं प्रख्यात ब्लॉगर रवीशजी के बारे बात कर रहा हूं। आज उनका नया पोस्ट पढ़ा। फिल्म गजनी पर लिखा था उन्होंने। लेकिन पता नही कब और किस मानसिकता से लिख बैठे थे। वो तो गज़नी देखकर बिलबिला उठे थे, लेकिन पोस्ट पढ़कर मेरे अंदर तरह-तरह के सवाल बिना मतलब के घुमने लगे।
उनका कहीं ना कहीं आक्रोश था कि गज़नी एक हिंसक पटकथा है जो भारतीय मानसिकता को दर्शा रही है। इतिहास की हार को कुंठा बताकर लगे हाथ उन्होंने मस्जिद गिरोने वाली बात भी चेंप दी है। खैर ये सब उनके अपने विचार हैं। लेकिन हिंसा पर जो उन्होंने बात लिखी है शायद ओवर पाजेसिव हो गई है।
शायद कहीं ना कहीं वो हिंसा को लेकर चिंतित हैं, हिंसा क्यों...?????
तो भाई मानव सभ्यता का विकास ही हिंसा से हुआ है. पहले पेट भरने के लिए हिंसा किया, फिर सम्राज्य और फिर मान-अभिमान के लिए। इस बीच और भी कई जरूरत की चीजों के लिए मनुष्य प्रजाति हिंसक होता रहा है। अब जिसकी शुरूआत ही हिंसा से हो उसको आप अंहिसक कैसे बना सकते हैं। कैसे उसके गुंण-धर्म बदल सकते हैं, उसकी प्रकृति को कैसे बदला जा सकता है। शायद ही ऐसा कोई मनुष्य होगा जो गुस्सा नही होता होगा। गुस्सा होना भी तो एक तरह का हिंसा ही है। उस वक्त कहीं ना कहीं हम हिंसक बने रहते हैं ये अलग बात है कि उसका तमाश न दिखाएं। लेकिन प्रवृत्ति तो उभर आई।
दूसरा मुद्दा है सोचिए आपको कोई मारे तो आप चुप-चाप थोड़े ही रहेंगे। गरियायेगा, अपमान करेगा तो क्या सहन होगा? दरअसल सहन करना भी एक प्रकार से अपने अंदर पैदा हो रही हिंसक प्रवृत्ति को रोकना ही है। यानी कहीं ना कही हर किसी में हिंसक प्रवृत्ति थोड़ी या ज्यादा होती ही है।
एक मिनट लिए मान लेते हैं कि भारत और भारतवासी अहिंसक हो गए है,...लकिन ये क्या!! भारत तो तिब्बत की तरह हो गया है। चीन, पाकिस्तान, बांगलादेश और तो और नेपाल, भूटान भी भारत के अलग-अलग प्रांतों में राजकाज चला रहे हैं। गांधी की मूर्तियों को तोड़कर माओं जुंग और जिन्ना की मूर्तिया लगी हैं और आखिरकार 50 साल बाद भारतीय हिंसक प्रदर्शन कर स्वायत्ता की मांग कर रहे हैं।। मैं हिंसा को जस्टीफाई नहीं कर रहा हूं लेकिन अस्तीत्व को बचाए रखने के लिए हिंसक होना पड़ता है। चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर हो या फिर सामूहिक या फिर राष्ट्र स्तर पर। हिंसा एक तरह से हथियार की तरह है, जिसके द्वारा कोई भी प्राणी स्वयम् की रक्षा करता है। क्योंकि ऐसा कभी नही हो सकता कि पूरी दुनिया अहिंसक हो जाए। यह सोच केवल यूटोपिया मात्र है।
दूसरा चकरा देने वाला विषय था कि गांधी आदर्श क्यों और भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस वीर क्यों?पहले तो आदर्श और वीर इन दोनो शब्दों की तुलना करना ही खुद की मुर्खता समझता हूं। सिर्फ सोचने का अंतर है. अगर देखा जाय तो एक आदर्शवादी भी वीर है और एक वीर भी आदर्शवादी है। जहां तक गांधी और भगतसिंह की बात है तो दोनों ही आदर्श है दोनों ही वीर हैं।। दोनों ही पराक्रमी हैं...एक ने हिंसा को आधार न बनाकर इच्छाशक्ति से लड़ने की ठानी तो दूसरे ने विचारों को चिंगारी बनाकर लड़ने की ठानी। लेकिन हुआ क्या दोनों का अंत हिंसा से ही कर दिया गया।। कभी एक कहीं कवीता पढ़ी थी पूरी तरह याद नही आ रहा है...कवि कुछ ऐसे लिखा था...तलवार पर लाल रंग चढ़ आया....और योद्धा ही शूर वीर कहलाया ( कविता की पूरी लाइनें नही लिखने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं) कही ना कहीं वह कवि भी इसी झोलझाल में उलझे थे।
तमाम बातों का एक बात है अस्तीत्व में बने रहना है तो आत्मरक्षार्थ हिंसा की सवारी करती रहनी होगी। अत: केवल गजनी मात्र से भारत की मानसिकता को आंका नही जा सकता है। यहां पर गीता के श्लोक गुंजते है तो सूफियाना अंदाज की बयार भी बहती है। सिर्फ गोधरा और बाबरी विध्वंस ही भारतीय मानसिकता की पहचान नही हैं.....( जैसा की रवीशजी ने अपने ब्लॉग में इंगित किया हैं)।

Monday, January 5, 2009

खुली हुई तिजोरी!!!

घटना-1
कल्पना- मुझे यहीं रोक दो..मैं उतर कर चली जाउंगी।
कैब का ड्राइवर: क्या.. आप यहीं उतरेंगी ?
कल्पना: क्या करूं, बाकी लोग भी तो आपकी कैब में हैं, उन्हें भी तो देरी हो रही होगी..
अरे, रात का
समय हैं..और उपर से इतना भंयकर घना कोहरा..कोई उठा कर ले गया तो..। बचाने भी कोई नही आएगा...
हां भाई ड्राइवर इन्हें इनके घर तक ले चलों..वरना कुछ हो गया तो इसके गुनहगार हम लोग ही होंगे।- कैब में सवार लोगों ने बोलना शुरू किया

घटना-2.
कैब छूट गई है नर्गिस ट्रांसपोर्ट डिपार्टमेंट से बहस कर रही है..
नर्गिस-मेरे आने में सिर्फ दो मिनट की देरी हुई और आपने कैब जाने दिया...
मैडम, हम क्या करें. हमने तो रुकने को कहा था लेकिन कोई स्टाफ अंदर से आया और बताया कि नर्गिस मैडम कब की निकल चुकी हैं
और बड़ी देर से हम आपका फोन भी ट्राई कर रहे थे। कुछ रिस्पांस ही नही मिल रहा था। लगा कि शायद आप किसी के साथ निकल चुकीं होंगी।
नर्गिस- भईया मेरा फोन खो गया था, उसी को खोजने के लिए मारे-मारे फिर रही थी..अब आप ही बताइए अकेली लड़की इतनी आधी रात को कैसे जाएगी। अब तो आपकी ही ज़िम्मेदारी है कैसे भी मुझे मेरे घर तक छोड़ दो। मैं कुछ नही जानती।

उपर की दोनो घटनाओं को मित्रों से बताने पर:
तू भी यार, क्या चुतियापे वाली बातों पर गौर करता है, सुना नही है क्या... अकेली लड़की खुली हुई तिजोरी के समान होती है...
फिर जोरदारा ठहाके- हा...हा..हा..ही...ही..ही आ..ह.खी..खी..खिक्..ऊ....ऊ...एह..हा ..अरे यार..खु..खुली हुई तिजोरी....हांहाहाआआ..हा.. हा...................................