Saturday, January 10, 2009

किसकी मानसिकता, किसकी पहचान




चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

ब्लांगिग के दुनियां में एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनका हर पोस्ट पढ़ने पर आदमी तरंग बन बहने लगता है। ज्यों-ज्यों पंक्तियों के भाव बनते निकलते जाते हैं त्यों त्यों आदमी तरंग बन उन पंक्तियों के साथ बहता चला जाता है। तरंग के भाव भी अलग-अलग होते हैं। कभी बिल्कुल ही करुण तो कभी हास तो कभी क्षोभ..। तरह-तरह भाव हर पो्स्ट में पढ़ने को मिलते हैं। दरअसल मैं प्रख्यात ब्लॉगर रवीशजी के बारे बात कर रहा हूं। आज उनका नया पोस्ट पढ़ा। फिल्म गजनी पर लिखा था उन्होंने। लेकिन पता नही कब और किस मानसिकता से लिख बैठे थे। वो तो गज़नी देखकर बिलबिला उठे थे, लेकिन पोस्ट पढ़कर मेरे अंदर तरह-तरह के सवाल बिना मतलब के घुमने लगे।
उनका कहीं ना कहीं आक्रोश था कि गज़नी एक हिंसक पटकथा है जो भारतीय मानसिकता को दर्शा रही है। इतिहास की हार को कुंठा बताकर लगे हाथ उन्होंने मस्जिद गिरोने वाली बात भी चेंप दी है। खैर ये सब उनके अपने विचार हैं। लेकिन हिंसा पर जो उन्होंने बात लिखी है शायद ओवर पाजेसिव हो गई है।
शायद कहीं ना कहीं वो हिंसा को लेकर चिंतित हैं, हिंसा क्यों...?????
तो भाई मानव सभ्यता का विकास ही हिंसा से हुआ है. पहले पेट भरने के लिए हिंसा किया, फिर सम्राज्य और फिर मान-अभिमान के लिए। इस बीच और भी कई जरूरत की चीजों के लिए मनुष्य प्रजाति हिंसक होता रहा है। अब जिसकी शुरूआत ही हिंसा से हो उसको आप अंहिसक कैसे बना सकते हैं। कैसे उसके गुंण-धर्म बदल सकते हैं, उसकी प्रकृति को कैसे बदला जा सकता है। शायद ही ऐसा कोई मनुष्य होगा जो गुस्सा नही होता होगा। गुस्सा होना भी तो एक तरह का हिंसा ही है। उस वक्त कहीं ना कहीं हम हिंसक बने रहते हैं ये अलग बात है कि उसका तमाश न दिखाएं। लेकिन प्रवृत्ति तो उभर आई।
दूसरा मुद्दा है सोचिए आपको कोई मारे तो आप चुप-चाप थोड़े ही रहेंगे। गरियायेगा, अपमान करेगा तो क्या सहन होगा? दरअसल सहन करना भी एक प्रकार से अपने अंदर पैदा हो रही हिंसक प्रवृत्ति को रोकना ही है। यानी कहीं ना कही हर किसी में हिंसक प्रवृत्ति थोड़ी या ज्यादा होती ही है।
एक मिनट लिए मान लेते हैं कि भारत और भारतवासी अहिंसक हो गए है,...लकिन ये क्या!! भारत तो तिब्बत की तरह हो गया है। चीन, पाकिस्तान, बांगलादेश और तो और नेपाल, भूटान भी भारत के अलग-अलग प्रांतों में राजकाज चला रहे हैं। गांधी की मूर्तियों को तोड़कर माओं जुंग और जिन्ना की मूर्तिया लगी हैं और आखिरकार 50 साल बाद भारतीय हिंसक प्रदर्शन कर स्वायत्ता की मांग कर रहे हैं।। मैं हिंसा को जस्टीफाई नहीं कर रहा हूं लेकिन अस्तीत्व को बचाए रखने के लिए हिंसक होना पड़ता है। चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर हो या फिर सामूहिक या फिर राष्ट्र स्तर पर। हिंसा एक तरह से हथियार की तरह है, जिसके द्वारा कोई भी प्राणी स्वयम् की रक्षा करता है। क्योंकि ऐसा कभी नही हो सकता कि पूरी दुनिया अहिंसक हो जाए। यह सोच केवल यूटोपिया मात्र है।
दूसरा चकरा देने वाला विषय था कि गांधी आदर्श क्यों और भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस वीर क्यों?पहले तो आदर्श और वीर इन दोनो शब्दों की तुलना करना ही खुद की मुर्खता समझता हूं। सिर्फ सोचने का अंतर है. अगर देखा जाय तो एक आदर्शवादी भी वीर है और एक वीर भी आदर्शवादी है। जहां तक गांधी और भगतसिंह की बात है तो दोनों ही आदर्श है दोनों ही वीर हैं।। दोनों ही पराक्रमी हैं...एक ने हिंसा को आधार न बनाकर इच्छाशक्ति से लड़ने की ठानी तो दूसरे ने विचारों को चिंगारी बनाकर लड़ने की ठानी। लेकिन हुआ क्या दोनों का अंत हिंसा से ही कर दिया गया।। कभी एक कहीं कवीता पढ़ी थी पूरी तरह याद नही आ रहा है...कवि कुछ ऐसे लिखा था...तलवार पर लाल रंग चढ़ आया....और योद्धा ही शूर वीर कहलाया ( कविता की पूरी लाइनें नही लिखने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं) कही ना कहीं वह कवि भी इसी झोलझाल में उलझे थे।
तमाम बातों का एक बात है अस्तीत्व में बने रहना है तो आत्मरक्षार्थ हिंसा की सवारी करती रहनी होगी। अत: केवल गजनी मात्र से भारत की मानसिकता को आंका नही जा सकता है। यहां पर गीता के श्लोक गुंजते है तो सूफियाना अंदाज की बयार भी बहती है। सिर्फ गोधरा और बाबरी विध्वंस ही भारतीय मानसिकता की पहचान नही हैं.....( जैसा की रवीशजी ने अपने ब्लॉग में इंगित किया हैं)।

2 comments:

sarita argarey said...

बेहतरीन ..।

Aadarsh Rathore said...

सही कहा
मैंने भी इस विषय में कुछ लिखा है
गजब संयोग है
प्याले को ज़रूर चखना