Wednesday, December 24, 2008

हर दफा कुछ ऐसा ही

नेताओं के गुर्गे द्वारा किसी अधिकारी को मार दिया जाना यह कोई नई बात नही लेकिन इसका यह मतलब नही कि हम ऐसी घटनाओं के बार-बार साक्षी बने। हर दफे ऐसी घटनाएं अखबारों की सुर्खियां बने और चाय कि चुस्कियों में घुल जाएं। आज ही एक घटना सुबह-सुबह ही चौंका दी। खबर थी कि उत्तर-प्रदेश के ज़िला औरैया में नेताजी के गुंड़ों ने एक इंजीनियर की पीट-पीट कर हत्या कर दी। यह सारा वाकया उस इंजीनियर के घर पर ही हुआ। तब उस दौरान उसकी पत्नी ने खुद को बाथरुम में बंद करके जान बचाई और इस सारे मामले की गवाह बनी। यह घटना प्रकाश झा के फिल्मों से मेल खाती है लेकिन झा जी के फिल्मों का अंत बड़े ही खूबसरत तरीके से होता है और ऐसा करने वाले नेताओं को या तो हीरो मार देता है या फिर जनता दौड़ा-दौड़ा कर मारती है। यहां असल जिंदगी में तो लोग फिल्मी तरीके से जुल्म झेलते रहते हैं लेकिन यहां ना ही कोई हीरो होता है ना ही जनता फिल्मों के माफिक जागरुक होती है। बस यही वजह है कि बार-बार कभी सत्येद्र दूबे तो कभी मंजूनाथन के किस्से मीडिया में सूर्खियां बटोरते हैं और लाशों की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञ उनके नाम पर स्मारक बनवा देते हैं ताकि चुनाव प्रचार के समय यहां आकर उन्हे दो शब्द बोलने का आधार मिले। लोग तो ऐसे खामोश रहते है जैसे ये कोई मामूली वाकया हो। वैसे हो भी क्यों ना.....हमेशा से दंबगों का अत्याचार देखते आए हैं, कभी खुद की तीमारदारी देखे नही, हमेशा से देखेते आएं है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। आम जन के लिए तो लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक मूल्य तो सिर्फ किताबी बातें ही हैं। रामराज्य की कल्पना के समान हैं। फिर काहें का उन्माद, फिर काहें का रोष। जो भी क्षोभ होता है वह चुनाव की जातिगत लड़ाई में छू-मंतर हो जाता है। फिर तो रणभेरी बजने की देरी होती है फिर तो न जाने कितने ही समाज के मुखियाओं की चांदी हो जाती है। बोली लगने लगती है, बाभन समाज का समर्थन ब्ला पार्टी को, यादव समाज का ब्ला पार्टी को, हरिजन समाज का ब्ला पार्टी को, भूमिहार समाज का ब्ला पार्टी को इत्यादि इत्यादि। तब लोग भूल जाते हैं कि पांच साल में टूटी सड़कों पर फ्लां रिश्तेदार की दुर्घटना हुई थी। भूल जाते हैं कि यही वो नेताजी है जो दुवार पर जाने पर एक गिलास पानी तक नही पूछते उल्टा बड़े होने का धौंस जमाते हैं, खास तौर पर पढ़ा लिखा समझदार इंसान भूल जाता है कि तालाब खुदवाने में कितना घपला हुआ था, नरेगा के अंतर्गत कितना पैसा गबन किए थे, इंदिरा आवास योजना नेता जी के नए गैराज की दरों दिवारों में सांसें लेती है। कुल मिलाकर जनता पुवाल की तरह है, फन से जलती है और तुरंत राख में तब्दील हो जाती हैं। अगर टीवी पर आक्रोश जाहीर करते लोगों पर गौर करें तो पाएंगे की अधिकांश के चेहरे हंसते नज़र आते हैं मानों ये भी कोई चुनावी जुलूस हो। कितना बेहायाई की तरह दांत चियारते हैं। भगत सिंह ने कहा था कि यह मूल्क आज़ाद होगा लेकिन लोग आज़ाद नही होंगे। क्योंकि तब भी राज करने वाले यही ज़मीदार होगें। खैर ज़मीदारी का तो अंत हो गया लेकिन उसी की संतान बाहुबलीयों ने कमान संभाल ली। मतलब आम जनता जहां थी वह वही की रह गई। लोगों ने कभी भी दूसरे नज़रिये से नही सोचा कि उनका शोषण किस कदर किया जा रहा है। 'ख़लील ज़िब्रान' की कुछ लाइने याद आ रही है कि "लोग कहते है कि कोई ग़ुलाम सो रहा हो तो उसे मत जगाओं शायद वो आज़ादी का सपना देख रहा हो, मैं कहता हूं कि उसे जगाओं और आज़ादी के बारे में बाताओ।" लेकिन शायद ज़िब्रान जी का कथन उन लोगों के लिए था जो शारीरिक और मानसिक तौर पर ग़ुलाम होते हैं, जिनके खून में ही ग़ुलामियत हो उनके लिए नहीं।

Sunday, November 16, 2008

विराम के लिए क्षमा चाहता हूं

स्वास्थय संबंधी कारणों से सक्रिय नहीं रह पा रहा. इसलिए क्षमा चाहता हूं।
जल्दी ही ब्लॉगिंग करने लौटूंगा।
 
 
धन्यवाद


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Tuesday, November 11, 2008

ये हिंदूस्तानी लोकतंत्र है..बीड़ू

आज फिर मैंने एक खबर पढ़ी की मध्यप्रदेश के चुनावी बयार में वहां के पर्यटन मंत्री तुकोजीराव को चुनाव आयोग के आदेश पर गिरफ्तार कर लिया गया। मंत्रीजी पर आरोप है कि उन्होंने सरकारी कामकाज में बाधा पहुंचाई। दरअसल मंत्री महोदय सत्ता के रौब में पिछले 5 सालों से जीते आ रहे हैं, इस दरम्यान मजाल किसी की, कि मंत्रीजी किसी सरकारी दफ्तर में जाएं और कोई बाबू टाइप कर्मचारी इनसे सवाल पूछने का दुस्साहस करे। वैसे तो मंत्री लोगों को इतनी फुरसत कहां कि वो दफ्तरों में जायें। अधिक्तर काम तो पत्र व्यवहार और दूरभाष पर ही समपन्न हो जाते हैं। लेकिन कार्यकाल के अंतिम वर्षों में जब मत्रीजी लोग दफ्तरों के चक्कर लगाएं तो उनके आराम परस्त ज़िंदगी पर कितना आघात पहुंचता होगा इसका अंदाजा एक सामान्य आदमी भी लगा सकता है। बहरहाल मंत्री जी पहुंचे थे दफ्तर में, शायद कोई तफ्तीश करनी थी या...कुछ और ...यह कहना तो मुश्किल है, भाई बिना देखे आरोप मढ़ना बहुत बुरी बात होती है। वैसे वहां पर किसी सरकारी मुलाज़िम ने उनसे प्रश्न कर बैठा और जो मंत्री जी की ख्वाहीश/रिक्वेस्ट थी उसकों वह सिरे से खारिझ कर दिया। अब यह मंत्री महोदय को नागवार गुजरना लाज़मी था फिर क्या था धुआधार अपशब्दों का गोला दागना शुरु कर दिए। चिखने-चिलाने पर तो किसी का ध्यान ही नही गया। दरअसल मंत्री जी पांच सालों तक विधान सभा में रहे हैं। वहां की संस्कृति का रंग इतनी जल्दी थोड़े ही छूटने वाला है।
पता नही ये, इलेक्शन कमीशनर भी टी. एन. सेसन के धूर चेले हो गये हैं, कभी-कभार तो इनको अपने पावर का इस्तेमाल करने को मिलता है.. फिर आव में नही रहते। शायद इन्हें पता नही कि विधान सभा से लेकर संसद तक इन्ही की तूती बोलती है। किसी दिन ऐसा प्रस्ताव पास करायेंगे कि इनकी घिघ्घी बंध जाएगी। कोई जनकल्याण वाला बिल थोड़े ही होगा कि अधर में लटका रहे। यह तो नेताकल्याण बील होगा एक ही सत्र में कानून बना देंगे।
अब एक-आध कर्तव्य परायण कर्मचारियों को कौन समझाये कि संविधान की चीजे बस अतिश्योक्ति मात्र ही हैं, हवा की चीज है, ज़मीन पर तो हमारे राजनीतिकगण होतें हैं उनके आदेश और अनुकंपा होती है, वैसे आज़ाद हिंदुस्तान की बुनियाद ही कुत्सित राजनाति है। देश आज़ाद हुआ था लोग थोड़े ही हुए थे। इनकों समझना चाहिए कि अगर आज़ाद होता तो पाट्य पुस्तकों में क्यों नही भगत सिंह की सच्चाईयों को रखा जाता है? क्यों नहीं सुभाष चंद्र बोस को सही रुप में रखा जाता है? क्यों नही अंबेडकर के शिकायतों को भी रखा जाता है जो कि गांधी और नेहरु से थी। क्यों नहीं आपात काल का जिक्र और उसके उद्देश्य को बताया जाता है?

Sunday, November 9, 2008

कुछ बातें

महामहीम की कस्टम विभाग में नौकरी लगी है। लोग अक्सर सुनते ही बोल पड़ते हैं.."चलो अब चांदी काटेंगे, बहुत उपरवार कमा है"। ऐसी अनेकों बार घटनाएं हुई है जब इस पर लोगों ने सवाल किये हैं। पता नही खुशी से करते थे या फिर चुटकी लेने के लिए..."और, आईएस की तैयारी कहां तक पहुंची"? महामहीम तुरंत खुशी पूर्वक बताते ...."जी दरअसल तैयारी चल रही है..वैसे मैने अभी-अभी एक परीक्षा पास की है...कस्टम ऑफिसर का जॉब है"।।। फिर लोग तो इंतिहाई खुशी का सागर उड़ेलते हुए बोल देते..."वाह यार..अब तो खुब चांदी कटेगी..बहुत पैसा है"।। महामहीम का उस समय चेहरा कुछ स्प्ष्टीकरण नही दिया लेकिन एक भाव ज़रूर प्रदर्शित कर दिया कि....नहीं, आप के यह विचार एक बार भी मेरे व्यक्तित्व का खयाल नही किए कि मैं कैसा प्राणी हूं, मेरे ही समक्ष खड़े होकर मेरे ही सिद्धंतों पर शक जता रहे हैं.।। लेकिन महामहीम यह सब बातें शायद अंदर ही पी जाते। वैसे समय बढ़ता गया और ऐसी बातों कारवां भी बढ़ता गया। लेकिन उस दिन जब हम लोग 'मैं इस्तांबुल हूं' देखने गये थे तो उसी वक्त उनके जानने वाले ने कुछ कस्टमियां आचरण को उजागर किए। मुझे लगा अब महामहीम कुछ सार्थक जबाब देंगे, लेकिन ये क्या.. महामहीम एक दम बेचारे से दिखे, बोले...अच्छा तो यो बताइए कि इन सब घुस-घास के चक्कर से कैसे बचा जाय। उस समय ऐसा लगा मानो महामहीम थके-थके से लग रहे हों। वैसे महामहीम इंजिनियरिंग में बीटेक किये हुए थे लेकिन इंजिनियर की नौकरी नही कर वो सिविल सर्विसेज में जाना चाहते थे। उनके साथ के पास-आउट मोटी पगार पा रहे थे लेकिन महामहीम सिस्टम में जाकर बेहतर करना चाहते थे। पावर नही सेवा को तवज्जो देते थे। असूलन अब कस्टम अफ़सर होने पर भी अभिलाषा ईमानदारी की है। अगर इसी असूल की बात करू तो एक एक दिन मेरे सामने ही बस कंडक्टर से सीट के लिए भींड़ गये थे। दलील थी कि यह यात्री सीट है और मेरा अधिकार है कि मैं इस पर बैठूं, अंत में उस कंडक्टर को उठना ही पड़ा था। कई ऐसी वारदातें हैं जिनका वर्णन करू तो बहुत ही लंबा हो जायेगा। कहां नहीं महामहीम ने अपना लोहा नही मनवाया था। बिल्डिंग में समाजवाद की लहर को वो ही ज़िंदा रखे थे। कहीं भी राष्ट्रगान हो और महामहीम सावधान खड़े न हो या फिर क्षेत्रीय टिप्पणी भी किसी के मूंह से निकल जाती तो महामहीम गुस्से से आग बबूला हो जाते थे। एक दिन विनय ने कुछ लड़कियों को संबोधित करते हुए कहां कि ये जो चिंकी है....बस फिर क्या था महामहीम ने टप से आगे के वाक्य बीच में ही काट विनय को लपक लिए। "क्या वो भारतीय नही, सिर्फ तुम हो, सोचो तुम अगर नॉर्थ-इस्ट के किसी शहर या गांव में होते तो तुम्हें कैसा लगता। संबोधन करना ही था तो कोई और शब्द नही मिला था। दूर की छोड़ो जब तुम्हे कोई बिहारी बोलता है तो तुम कैसे बिफर पड़ते हो"....."विनय तुरत ही बोला...भईया मैं बिहारी नही झारखंड का हूं, महामहीम ने हल्की गंभीर मुस्कान लिए बोले....तो दोस्त तुम्हे तो इस दर्द का एहसास होना चाहिए। यदि इस टीस के बावजूद तुम ऐसी टिप्पणी करते हो तो इनका कोई दोष नही जो बिना किसी टीस के बिहारी बोलने में गुरेज नही करते"। अक्सर मेरी और महामहीम की बहस किसी विषय पर छिड़ ही जाती। याद है कि हम लोग रात के चार-चार बजे तक बहस करते। जातिवाद से लेकर,भ्रष्टाचार,पाखंडवाद, कुत्सित राजनीति, सिस्टम की खामियां और महत्ता, लोगों की लोकतंत्र में भागीदारी, मार्क्सवाद, पूंजीवाद, गांधीवाद इत्यादि, इत्यादि।।। कुछ लोग ऐसे भी थे जो कभी महामहीम को सुन लेते तो उनकी ही बातों को अपना बनाकर, आशय का स्वरूप बदलकर अपनी समझ के अनुसार दूसरे लोगों के सामने पेश करते। लोग भी बड़े चाव से सुनते थे।
शिक्षा में आरक्षण के वे धूर विरोधी हैं, कभी कहीं पढ़ लेते की फलां आदमी अपने पहले अटेंप्ट में ही आईएस क्वालिफाई कर लिया है तो इस बात को बड़े ही गर्व से बाताते मानों कहीं ना कहीं वह खुद को उसी आदमी के रुप में देख रहे हों। लेकिन दूसरे ही दिन घोर आपत्ती के साथ उसी घटनाक्रम में आगे वाक्य जोड़ते," यार वो जो लड़का क्वालीफाई किया है वह OBC से था। मैं उसे जानता हूं, बड़े ही सम्पन्न परिवार से है, कोचिंग पढ़ने खुद के कार से जाता है। अब इसे आरक्षण की क्या ज़रुरत??? मतलब मैं तो चुतिया हूं...मेरे पापा भी कहते हैं कि हमारी जाति विशेष के लोगों को बिहार में आरक्षण प्राप्त है, आने वाले पीसीएस में इसका लाभ उठाओ....लेकिन मैं ऐसा काम नही करता वगैरह..वगैरह........."।।
अब महामहीम सिस्सटम में घुस चुके हैं और उनके अंदर सिस्टम की बेबसी अभी से देख रहा हूं....इधर मैं भी पत्रकारिता के एक दुकान में सेल्समैंन हो गया हूं.। अब हमारे आक्रोश, परिवर्तन लाने की लहर, बेदाग़ आचरण की कामना जिंदगी की लहरों में डूब रहे हैं उतरा रहे हैं।

Friday, November 7, 2008

बहुत किया मतदान, बहुत दिया सम्मान

टीवी पर खबर देख रहा था कि अचानक एक ऐसी खबर सामने आई जिसको देख कर मुझे हंसी भी आई और बेतहाशा गुस्सा भी। दरअसल एक मंत्री महोदय चुनावी मान-मनौवल में पूर्व विधायक महोदया के पैरों पर गिरे हुए थे। मना रहे थे। कभी भी प्रत्यक्ष रुप से ऐसी चुनावी भक्ति नही देखा था। लोकतंत्र को नोटतंत्र बनते इसी वर्ष में देखा था अब चाटुकारीता तंत्र देख रहा हूं। ऐसा नही है कि पहले ऐसी घटनाएं नही होती थी। ज़रूर होती थीं लेकिन अब जो हो रहा है उसे क्या कहा जाय??? क्या भारतीय लोकतंत्र पहले से खहीं अधिक उदार हो गया है? या पहले से अधिक ढींठ हो गया है?
आज हम सबको दिख रहा है कि कैसे राजनीतिक टुच्चे टिकट पाने के लिए कहां और किस हद तक उतर रहे हैं। मैं इस भारत से और क्या अपेक्षा कर सकता हूं जहां पर चुनाव में प्रत्याशी बनने के लिए भी भाई-भतीजावाद का सहारा लेना पड़ता है। और महकमों की तो बात ही छोड़ दिजिए जिसमें मंत्री परस्त आदमी को धकाधक भर्ती किया जाता एवं पहले से पदासीन व्यक्ति को धमाकेदार पदोन्नति मिलती है। लेकिन आगामी चुनावों के मद्दे नज़र पार्टीयां और उनसे जुड़े नेतागण जिस तरीके से लोकतांत्रिक मूल्यों को तार-तार कर रहे हैं ...अफसोस, अफसोस कि जनता के तरफ से कोई सुगबुगाहट नही आ रही है। ना ही चर्चा में बने रहने वाले समाज सेवीयों के तरफ से कोई रुझान ही आ रहा है। वे भी जानते है कि पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नही किया जा सकता। इन चिरकूटों के ऐसे आचरण को देख कर कैसे कोई अपने मत का प्रयोग करे ? यहां तो सभी फटेहाल हैं। जिसके अंदर खुद के प्रति स्वाभिमान न हो वह देश के और देश की जनता के स्वाङिमान की रक्षा कैसे कर सकता है। मेरी राय में चुनाव का बहिष्कार करना चाहिए........

Monday, November 3, 2008


हमारा लोकतंत्र: कितने सवाल जो दबे पड़े हैं
अभी अमेरिका में चुनावी माहौल जोरों पर है। अखबार हो या टीवी हर जगह अमेरिकी की चुनावी गहमा-गहमी चल रही है। वैसे तो हमारे यहां भी आगामी लोक सभा चुनाव और विभिन्न राज्यों में होने वाले चुनावों की तैयारीयां उफ़ान पर हैं लेकिन एक चीज मुझे प्राय: ही दुविधा में डाल देतीं हैं। मुझे क्यों ऐसा लगता है कि हिंदुस्तानी लोकतंत्र बजाय समृद्ध होने के बर्बादी के गहरे अंधकार की तरफ रूख कर लिया है। 60 साल पुराना लोकतंत्र क्या इतना भी योग्य नही हुआ है कि यह राष्ट्रीय मुद्दों के उपर चुनाव लड़ सके हाल ही में मेरी नज़र अमेरिका में होने वाले चुनावी मुद्दे की तरफ गया। यहां पर पार्टीयों के मुद्दे विदेश नीति से लेकर देश के अंदर की सुरक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाएं प्रमुख रूप से छाये हुए हैं। अमेरिकी लोकतंत्र को शुरू से लेकर अब तक के सफर पर नज़र डालें तो यह हमेशा विचारोन्मुख होकर आगे ही बढ़ा है। अब्राहम लिंकन से लेकर रुजवेल्ट तक के सफर तक अमेरिकी जनता और यहां के नेताओं ने नये और अमेरीकी सरोकार से जुड़े मुद्दे को अपनाया है। आज भी अमेरिका में विचारों की लड़ाई कायम है। एक पक्ष ईराक हमले की निंदा करता है तो दुसरा वक़लत करता है, एक पक्ष यदी देश में स्वतंत्रता को हर पहलू पो चाहता है तो एक कुछ परीस्थितियों का हवाला देकर संपूर्ण स्वतंत्रता की मुखालफत करता है। अभी हाल ही में चुनाव में लोगों ने देश में लगे पेट्रिक एक्ट को खत्म करने की मांग की तो वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों ने इसे ज़रूरी बताया। इस एक्ट के तहत अमेरिका में रहने वालो लोगों के फोन की टैपिंग बिना सूचना दिए विशेष परिस्थितियों में की जा सकती है। आज कल लोगों ने तो विशेष स्थिती में गर्भपात कराने की माग कर रहे है और यह मुद्दा भी जोर शोर सो छाया हुआ है। आर्थिक बदहाली और विशेष पैकेज तो हाई रेटेड मुद्दों में हैं बल्कि यूं कहे की यही सबसे बड़ा मुद्दा है।
लेकिन वहीं इसके उलट हमारा लोकतंत्र ऐसा जान पड़ता है कि यह उलटी चालें चलना शुरू कर दिया है। यहां पर कई ऐसे मुद्दे हैं जो 60 सालों से भाषणबाजी के फ्लैश में आज भी घुट रहे हैं। हालांकी अब वो शब्द भाषणबाजी से भी दूर हो रहे है। मसलन ग़रीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी जो हमेशा हमें चुनावी मौसम में ही सुनाई पड़ते थे या फिर किसी नेता जी की सभा में। बचपन से लेकर आज तक यही सुनता आ रहा हूं। अब तो स्थिती और भी बद् से बद्तर हो गई है। आज तो कोई आतंकवाद की आड़ में हिंदू सरोकार का मुद्दा बना रहा है तो कोई मुस्लिम हिमायती होकर वोट बैंक की राजनीति कर रहा है, यहां तो कुछ ऐसे भी चुनावी नेता हैं जो क्षेत्रवाद का सहारा लेकर अपना चांदी कर रहे हैं। स्थिती तो और अब भयंकर मोड़ ले रही है अब तो रुख बड़े ही आवेग के साथ जाति की तरफ बढ़ चुका है। हमारे जाति का हमारा उम्मीदवार। अंबेडकर ने जाति विभाजनको जहां लोकतंत्र का सबसे बड़ा खतरा बताया था तो वही आज अंबेडकर को जाति विशेष का सिंबल बनाकर चुनावी मंसा सबल की जा रही है। राजस्थान के चुनाव में जाति वाला चुनावी फंडा ने तो यहां के बड़े से बड़े सियासतदानों की हवाईयां गुम कर दिया है। कहां वह पहले हिंदू और मुस्लिम करते थे अब तो मीणा और गुज्जर पर बात आ बनी है। ऐसा नही था कि पहले चुनावों में उस समीकरण का प्रयोग नहीं होता था लेकिन ऐसे भौंदेपन के साथ तो नही। सोच कर आक्रोश जागता है आखीर कितने टुकड़े और करेंगे? पहले ही हिंदू, मुस्लीम, क्रिशचियन में चुनाव बांटता था अब कही उत्तर भारतीय बनाम पश्चिम तो कही बाभन, चमार,अहीर,ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला ब्ला में बांट रहा है.। आश्चर्य जनता पर होती है कि आखीर क्यों वो ऐसा मानसिकता को और बल देते हैं? आखीर उन्हें क्यों समझ में यह बात नही आती कि इलेक्शन आते ही बुर्रहानपुर, कंधमाल जैसी घटनाएं सामने आने लगती हैं?? क्यों?????

Friday, March 21, 2008

आत्महत्या

सिंहसाहेब के कोठी पर कल रात खूब जलसा हुआ था।
लखनोऊ से बाई जी आई हैं।
पूरा जगरम था, खूब रेलम - पेलम था।

लेकिन देखो खेल तक़दीर का,
बुधना कोहार के घर भी आज मजमा लगा है,
गहमा - गहमी मची है ।
बुधना के घर जो भी नया रिश्तेदार जा रहा है dahad फाड़ते हुए रोने की आवाज़, अन्दर से औरतों की आ रही है।

दरोगा साहेब आए है लाश ले जाने के
लिए क्योंकि बुधना अब नही रहा।
गले में फसरी लगा लिया था, गले पे निशान साफ - साफ है।

दरोगा साहेब तुले हुए हैं, "ले चलो लाश का पंचनामा करना है"।
बुधना के माँई , राग पकडी पकडी के रो रही है।
" काहे ले जा रहे हो इस ठठरी को
हड्डी का ढाचा ही टू बचा है , बस बोल नही रहा है, चल- फ़िर nahi raha hai
पिछले आसाढ़ में मकई बोया था.
पांच सौ बिगहा लगान पर सोहिया- कोडिया किया, लेकिन
सब बर्बाद..
मकई के ठूठ में दाना नहीं, ठूंठे बचा था .

लड़की का इलाज करवाया
स्कूली खाना खाई के, अजलस्त पड़ गई.
दुहाई हो काली माई की, जम के मुंह से बची बिटिया

हामार बाबू,
अबगा के हडिया, पातुकी, बर्तन माटी के बनाये थे .
लगन का दिन आ रहा है, बिक जायगा , पैसे आ जाएंगे,
इस आस में, लेकिन आन्ही- बरखा में
सब हेनक- बेनक हो गया .

और हुज़ूर,
लोग तो बियाह- शादी में रेडिमेड बर्तन में खाते - पीते है,
माटी का क्या काम?
साहू जी , सिंघ्जी का कर्जा तो और आफत,
पाहिले ही सिकम भर सूद चढा था,
पुरखा का ज़मीन रेहन पर चला गया.
और कर्जा, पापी पेट, जाहिल जिनिगी
बाबू हमर फसरी नहीं लगते तो और क्या करते .

Amrit




Tuesday, March 18, 2008

Media and Misguidance

MEDIA AND MISGUIDANCE

In its beginning, it would be right to insure that it’s not for those few organisations who pursuing their towards best. But in the regard of many and many media is playing a role of misguidance. In its beginning it has been to known as a very credible and accountable organization which happens to lead the social and political activism. And that’s the reason people suppose it as a pillar of Indian democracy. A few people are able to understand that this time media has no accountability towards political, financial, and social activism. It goes, where it look profit.

Hypocrisy of News Channels- I think hypocrisy is correct word to use in the terms of news channels. Its hypocrite because it has no legitimacy in its work. It has no clear face whether it is for the people or for consumer. Well, in this time period, everything of world is flowing in the flow of consumerism. But every consumer has right to consume good things but media never accept that its shop of news which deliver according to the test of viewer ship.

Media is still running its shop with the mask of social and political reform. This word Reform had been the soul of it in its initial time when Raja Ram Mohan Roy started it as a weapon to cut the social taboo, when Hiqui Gadget was spreading view towards political aspect in 19th century. In 20th century it transformed its face in to activism. In this time reform had change into activism, because media had spread in large heterogeneous population and people also had started to take part in activism whether it had been for social causes or for political. In the time period of 1900 to 1947 media got a huge support and ideal of common people because of its credibility and truth- worthiness.

In the period of emergency some media organisation proved their mettle and made stress on current Prime Minister Indira Gandhi to lift article- 352 and had to come back democracy.
At that time media had no scope of plenty of money and a journalist or a media person had to work in a simple salary. In the decade of ninety, just because of globalisation, consumerism spread in all side and status of India and then media boom came into existence and extended vast scope of employment and revenue. Now people switch in to media not for social work but for name fame and money and youth are only thinking to achieve this by hook and crook. Such types of attitude and ambition of new-comers has distorted the ethics and values of news. As just in some month ago we got the case of Uma Khurana, a principal of a school was shown running sex racket on television in a fake sting operation.

Most striking thing should be noted that media organisations are running by industrialist and with share of politicians so definitely they would try to manipulate issues or news according to them. All of sudden, it’s for business cause and all though business demands profit and stability on pick in the market competition. So present media is responsible for profit of money and money comes through advertisement and advertisement-rate increase on basis of viewer ship.

News values- Leaving aside two or hardly three channels, so many channels are centralised at cricket, crime and cinema. You often come to watch about fitness of player while this is in not news, affair of players with actress. In crime khuni Darinda, Dil, Dosti aur Mohabbat. Some time watch Saas Saajish Bahu etc. it’s not enough at this place, some\news channels has bought the right of geography and Discovery coz they always come more time with snake, bear madaari and stunt. Those who seek to news often get annoyed and of course there are some Tantrik and mantra.

Suppressing the ethics of journalism- Khabaria channels are suppressing the ethics of journalism. Actually, they are running behind T.R.P. Well, I also don’t know deeply about this fundaa.

Somewhere I got and read the article of Shevanti Nainan she wrote “media has grown up but journalism left behind.” Of course she wrote complete and right things in a short and crispy line. This line delineates the several dimensions of argument and debate. Overall, here its make necessary to mention that journalism is not for those who work in news-paper and write journals. Though it to be admitted that some time ago it had been a matter of writing journals but if we go through the soul of this word definitely we find out that its call, it’s a rebellion task, it’s a mission, it’s an activism. It has been the representation of intellectuals. But our so called news channels have crackdown on this phenomena and demolished its fencing which was made of ethics, now they are dancing hip- hop on journalistic grasses. Now on its own property journalism is awaiting of will power.


Boosting capitalist society- 60% Indians struggling for their daily facilities and apart from their basic needs they merely come to spend on some extra expenditure like news- paper, magazine and other types of knowledgeable things. But now lower middle class are highly accessing to television sets and cable connections. After spending a important amount of their salary in cable they would merely able to access their money for journals, computer and internet connection for their child, of course not. So looking this condition I think the entire lower middle class of India which have a big share in population are totally depend on television for different types of information and knowledge. While I am not ignoring the radio which has vast coverage of audiences but how many of them would like to access radio if they have television. Possibly not because every one like visuals and think that whatever is being shown is correct.

But in other side those who have good facilities, abilities to expend on internet, journals, and magazine would be healthier with knowledge. They would be able to accumulate a pile of information. They would be aware with national and international affairs, problems, solutions, major issues and conflict of present and past scenario. They would have qualification with knowledge but a huge population would be delimited in qualification. Those who totally depend on channels would never be able to intensify their knowledge and never be able to assume right mentality. Because they often will have to come watch their nonsense program and inferior news values, if they would think news means gossips of film star, publicity of Rakhi Sawant, this player should be in or out, stunt and jaadu tonaa aur baba ka mantra, kiska bali maha Khali making sideline impotent and serious issues. And this particular class would destine to be ruled by those few people have vast intensified skills and knowledge. So there is no difference between pre-independence and post independence. Before 1947 a few people were able to understand and analyse the policy of British government and still the ratio is same in our own democracy.

Somewhere this is the matter of worry that India is loosing the number of intellectuals. Its also give the space of devils- politics and politician easily manipulate the citizen of India, just because of poor understanding of common people.

No doubt that media is playing a huge roll to manipulate and paralyse our lower middle class. It’s a kind poison which killing the norms of socialism.

Role of Government- The government of /India should take initiative to ban those channels who are not responsible to values of news or issue them as a entertainment channels so that a common person never come to assume their program as news. Most interesting thing is that there is no clause of media in our constitution. Media which is in the every corner of India and it has no place in our constitution. How funny is it? Anyway government should evolve a provision in constitution in the regard of media.

(Again I would like to mention that there are some certain news channels and they are doing good. My special thinks to them because they are running with values and credibility among the so called T.R.P rating)



AMRIT K. TIWARI

Friday, March 14, 2008

i was at home just spending my daily life. A friend came to me and offer to go along with him to smriti- van. I was not so bussy so i also think to take a round of smriti van so that i might be inspired to the ambience of Mahatma Gandhi. well i been there but with lots of question and experience of life. The things happen wsa that when i was enter in the memorial of M K Gandhi , i didn`t find any security there. in a huge hall which was copletely dark in lack of electricity n three staff were there in a corner. no body noticed us, no quarry, no facilitation. but we tried to read some letters and article of mahatma gandhi by ha4rd effort.
in gandhi smriti, any one can visit and can watch these nonsense4 phenomina of staff. its most attracting place for those who seek to assemble old memories or to sell them coz any one can still rare of the rarest memories of m. Gandhi. visit there and look the negligence of our father of nation`s meories.
Friends this is the india it beleives in inaguration, demonstration and and pplitics on the ground of agitation. our so called politicians are habitating in a grand royalism. we save the model`s mempories in a high profole ambience but we never come to save those who spent their life for nation. india is a hipocrat country. whts your poenion.

Thursday, March 13, 2008

पिछले साल ग्रोथ रेट आठ प्रतिशत रहा था
इस बार के बजट मे भी स्तिथि बरक़रार रही है।
चिताम्बरम साहब के झोले से जादुई जिन्न निकला,
और दे दिया घोंस्डाओ की झड़ी।

बस यही सवाल कर बैठा हूँ, सड़क पे
चलते आदमी से, किसान मजदूरों से
लाफंगई करते नौजवानों से।
जवाब था, दो टुक
कि,
दोस्त मुझे विकास का मतलब नही मालुम
कैपिटल इनवेस्टमेंट,मार्केट रेवेंनुए
ये सब बातें मेरे पल्ले नही पड़तीं।
डिस्को की ताता - थैया, फिल्मी सितारे
मुझे तो कोई इन्द्रलोक के वासी लगते है

आस्मान के उपर उड़ता विमान
आज भी मुझे चील- कौआ सा लगता है।

हां आपके विकास ने ये
मोबाइल फोन थमा दिया है
जिस पेर आते हैं, ढेरों फोन कॉल,

''सर मै फलां कंपनी से बोल रही हूँ,
नया conection सिर्फ़ ............ ...............
बैंकों से फोन आते हैं, लोन के लिए
इन सब की दरकार मुझे कहाँ,

कम से कम मेरा मजाक तो मत उड़ाओ ।
अब तो मुँह मोड़ लेता हूँ , क्योकि
मैं भी बदतामिज लोगो के मुँह नही लगता।

हाँ दोस्त मुझे विकास समझ मी नही आता
मुझे तो सिर्फ़ एक उपाय चाहिए,
जिससे, मैं दोनों वक्तअपने पेट भर सकूं ,
एक छत बना सकूं।
बारीश की चंचल बूंदे, मेरी नींद ख़राब न कर सके।
ठंढी का कोहरा कपकपी न दे सके ।
गर्मी की लू, दीवारों से टकराकर बाहर ही रह जाए।
इसके बाद भी अगर कुछ बचे करने के लिए
तो एक अच्छी शिक्षा- व्यवस्था दे देना । । । । ...............

-अमृत