Thursday, January 15, 2009

कितना दूर.. है बचपन

मैं और मेरा दोस्त आदर्श दोनों ऑफिस के लिए निकले हुए थे चूकी रोज की तरह आज भी हम लोग लेट हो गए थे। कहने का मतलब यह नही कि हम लेट-लतीफे लोगों में से हैं बहरहाल एक गाने की लाइन याद आती है..कि .."मेरे जागने से पहले हाय रे मेरी किस्तमत सो जाती है,..मैं देर करता नहीं देर हो जाती है". जी यही सीन कम से कम मेरे साथ ज़रूर ही हो जाती है। खैर, हम लोग आगे बढ़ रहे थे तेज कदमों से। मुझे बस एक चीज ही दिखाई दे रहा था वो था मेरा ऑफिस...मन एक ही बात सोच रहा था कि कॉलेज से निकलते ही आर्थिक मंदी के इस दौर में नौकरी लगी है, और यही हालत रही तो टर्मिनेशन लेटर मिलने में देर नहीं है..। बस मस्तिस्क में ढेरों चिंतायें घुमड़ रहीं थी और कदम तेजी से बस स्टॉप के् तरफ बढ़े चले जा रहे थे। चलते-चलते सहसा आदर्श बोला, " अरे वो देखो गिलहरी.। वाह! क्या उछलकूद कर रही है। अहा..देखों ना कैसे घुचक-घुचक कर चल रही है.।" फिक्र के बादलों से मैंने देखा और बामुश्किलन एक पल का समय लगा होगा मेरी आंखों को नज़र मिल गई थी। वो नज़र जिससे मैं अपने बचपन के दिन को महसूस कर सकता था। सड़क पर गाड़ियों के शोरगुल विलुप्त हो चुके थे क्योंकि अब मेरा मन मेरे गांव में चला गया था। खेतों में, आम के बागिचों में, जिससे होकर मैं स्कूल जाया करता था।.मेरे घर के सामने अमरूद और आम के पेड़ जिसपे ढेरों चिड़ियों और गिलहरियों का बसेरा होता था।। उनकी हर गतिविधि को ध्यान से देखा करता था। और कई दफे हम और मेरे भईया इनको पकड़ने के प्लान बनाया करते। नंदन पंत्रिका को उनके बीच पढ़ता तो एक विचित्र सा अनुभव करता..मानों गांव के लोग हट गए है देवीलाल खरगोश लाल हो गए है..। रामनाथ बाबा की जगह भालू बाबा हो गए हैं, और गिलहरियों के झूंड तो मेरे साथी हो गए हैं अब मैं 'सोबई बांध' गांव में नही बल्की 'नंदन वन' में रहता हूं
फिर कई घंटे कोर्स की किताबों को दूर रख कल्पनाओं के आगोश पड़े-पड़े सो जाता था ।
ठीक मेरे गांव के गिलहरी जैसी थी वह गिलहरी जिसे आदर्श बड़े ही कौतुहल से दिखाया था..। उसकी चाल, उसकी हरकतें वैसी ही थीं जैसे मेरे घर के सामने गिलहरियां रहती थी। खुर से पेंड़ से उतरना, एक दम चौकन्ना होकर और जैसे ही कोई आहट पाए फट से उपर पेड़ पर चढ़ जाना। हर उछलकूद और रूक कर झ़टके से पलटकर देखना मानों हमें चिढ़ा रही हों "आबे दम है तो पकड़ के दिखा ना"। वह गिलहरी मेरे गांव की लग रही थी। मेरे घर सी लगा रही थी, हूं बहू वही लग रही थी। गिलहरी ही तो थी जब हम आम के दिनों में मुहल्ले के दोस्तों के साथ बागिचों में जाते थे आम खाते थे...और साथ में गिलहरी भगाओं अभियान चलाते थे। पड़ोस के 'दंतू' भईया गुट में खड़ा होकर चिल्लाते थे। " ये गिलहरिया हमारा आम खा जा रहीं हैं इन्हें यहां से भगाना होगा...आम को आधा खा रहीं है और बिगाड़ दे रही है, कहां पका हुआ आम हम लोग खाते ये सब चख-चखकर बर्बाद कर देती हैं" फिर गिलहरियों को भगाना, तपती दोपहरी में बागीचों में गिलहरियों के पीछे दौड़ना..और जब तक थक नहीं जाते तब तक हू..ले..ले..ले..करते रहना.। गिलहरियां भी पूरे बागिचे को अपना ही सम्राज्य समझती थीं कितना भी भगाओ पेड़ पर चढ़ जातीं और फिर नीचे उतर आतीं और फिर जब हमारा झूंड दैड़ता फिर पेड़ों पर चढ़ जाती.। शायद उन्हे यह खेल जैसा लगता था और हमे भी यह काफी रोचक लगता था।। अब तो रोज का काम हो गया था अब यह पूरी तरह से हमारे लिए और गिलहरियों के लिए खेल बन चूका था। एक दिन ऐसे ही खेल चला और खेल हिंसक बन गया। इस बार हम सबके हाथ में पत्थर थे और गिलहरिया हमेशा बाल-बाल बच रही थीं लेकिन दंतू भईया के हाथ से निकला पत्थर झूंड की एक गिलहरी को अपना शिकार बना बैठा...पत्थर लगते ही गिलहरी तड़फड़ाने लगी.। पहले तो हमलोगों की कोलाहल में कुछ पता नही चला फिर कुछ देर बाद सारे साथी शांत थे। बागीचा शांत हो गया था। गिलहरिया पेड़ों में विलीन हो गई थीं। सभी ने आरोपी ठहराती हुई नज़रों से एक साथ दंतू भईया को घूरे..। दंतू भईया भी पहले बात को हवा में उड़ाने की कोशिश किए और ही..ही..ही..हसकर घटना को कमतर करने का प्रयास करने लगे.। एक ने गिलहरी को को हाथ में उठा कर रख लिया..गिलहरी अभी भी छटपटा रही थी, मन में आ रहा था आह! मर जाए तो ही अच्छा। सभी का ह्रदय करूणा से भर गया था। लेकिन दिल का बोझ उतारने के लिए सभी को एक ही व्यक्ति मिला और वो थे दंतू भईया। हर तरफ से आवाजें उठ रही थीं। " हम लोग थोड़े ही मारे हैं, दंतू भईया मारे हैं। सारा पाप इन्ही पर जाएगा।" मैं भी अपने ग्लानी भरे ह्रदय को कुछ कम करने के लिए सफाई दिया, " मै तो गिलहरियों पर पत्थर नहीं मार रहा था। मैं तो इधर-उधर फेंक रहा था। एक दम गिलहरियों को बचाकर।" फिर किसी ने कहां नहीं जो रुखी (गिलहरी) मारता है, वह दु:खी हो जाता है हमेशा के लिए। हम सब मार रहे थे इसका पाप हम सब पर पड़ेगा.। लेकिन कुछ समझदार लड़को ने कहां" देखो भाई, गिलहरी मारे हैं दंतू भईया, हमें यह करने को कहे दंतू भईया और मारे भी दंतू भईया। इसलिए बड़ा सा पाप दंतू भईया को मिलेगा और जो थोड़ा- थोड़ा पाप हमें मिलेगा उसमें भी दंतू भईया की हिस्सेदारी होगी क्योंकि इन्होंने ही हमें उकसाया था"। अब हम सबको कुछ इतमिनान मिला, चलो दंतू भईया को ढेर सारा पाप मिलेगा और हम सबको थोड़ा-थोड़ा। लेकिन इसी दरम्यान सभी को रोने की कातर आवाज सुनाई दी सबने देखा पीछे दंतू भईया रो रहे थे। दोनों घुटनों में सिर को झुकाए बैठे रो रहे हैं। अब यह देख सभी पाप से मुक्ती पर विचार करना शूरू कर दिए। " दंतू भईया, आप रोईये मत आज के बाद से हम कभी भी गिलहरी नही मारेंगे जहां तक रही बात पाप की तो इस गिलहरी का दाह संस्कार कर देते हैं और भगवानजी से अपनी करतूत के लिए क्षमा मांग लेते हैं।" लगभग सभी की यही प्रितिक्रिया हुई कि गिलहरी का क्रियाकर्म कर दिया जाय और भगवान से मांफी मांग लिया जाय। अब हम सबने छोटी-छोटी लकड़ियों को जोड़ कार अर्थी बनाई और 'दंतू' भईया को आगे वाली लकड़ी पकड़ने को दिया गया। फिर गढ्ढा खोदकर उस गिलहरी को उसमें रख कर मिट्टी डाल दी गई। और उस पर एक बेहाया का फूल भी रख दिए। फिर सब खड़े होकर मौन धारण किए और गिलहरी की आत्मा से और भगवान से मांफी मांगे (दो मिनट का मौन धारण स्कूलों में बहुत बार कराया गया था )। उसके बाद कई दिनों तक उस बागिचे में गए लेकिन अब गिलहरिया हमें देखते ही पेड़ों में गायब हो जाती थीं। उसके बाद कई दिनों तक वहां जाना ही छोड़ दिए.। अब घर की गिलहरियों को पकड़ने का सपना भी मैं छोड़ दिया। बस देखकर एक चीज सोचता वो भी तब, जब मैं स्कूल जाने के लिए निकलता कि मैं गिलहरी क्यों नही हुआ कम से कम स्कूल तो नही जाना पड़ता। तभी भ्रम टूटा मैं गांव से दूर था, बचपन से दूर था, पश्चाताप के अनुभव से दूर था। क्योंकि आदर्श ने मेरा भ्रम तोड़ा, "चलो ऑफिस आ गया उतरते हैं"..।

3 comments:

Vinay said...

भई हम रोज़ पढ़े जा रहे हैं, दिल के आस-पास जो लिखते हैं

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गुलाबी कोंपलें

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आप भारतीय हैं तो अपने ब्लॉग पर तिरंगा लगाना अवश्य पसंद करेगे, जाने कैसे?
तकनीक दृष्टा/Tech Prevue

sandhyagupta said...

Bachpan to chala jata hai par us se judi khatti mithi yaden hamesha sath rehti hain.

Aadarsh Rathore said...

हमारे वहां गिलहरियां नहीं होतीं
लेकिन बचपन से जुड़ी कोई भी चीज़ जब सामने आती है तो एकदम बचपन में ही डूब जाता हूं।
मसलन कई प्रकार की गंध या मौसम का अहसास आदि।
अच्छी प्रस्तुति