Saturday, July 9, 2011

तेलंगाना: केंद्र की सुसुप्त ज्वालामुखी


तेलंगाना मसले पर श्रीकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद भी केंद्र सरकार का कोई ठोस निर्णय नहीं लेना संदेह पैदा करता है। आखिर क्या मज़बूरी है कि सरकार कोई बोल्ड डीसिजन नहीं ले रही? क्यों नहीं वो श्रॉकृष्ण कमेटी की सुझावों में से किसी एक पर स्पष्ट रवैया अपना रही है? संसद का मानसून सत्र शुरू होने वाला है, कई मुद्दों को लेकर लोगों की निगाहें केंद्र सरकार पर टीकी हैं...फिर सरकार जल्द से जल्द तेलंगाना का निपटारा क्यों नहीं कर रही?
असल में लीक से थोड़ा हटकर सोचा जाए तो सरकार की मंशा को कुछ हद तक भांपा जा सकता है। सत्ता में आने के पूर्व कांग्रेस का तेलंगाना राज्य बनाने का वादा अब अवसरवाद के एक अचूक हथियार साबित हो रहा है। कांग्रेस की नेतृत्व वाली यूपीए सरकार इसी वादे के सहारे उन तमाम मुद्दों को साइड लाइन कर रही है, जो उसके गले की फांस बने हुए हैं। सरकार की सबसे बड़ी फजीहत भ्रष्टाचार और एक के बाद एक मंत्रियों के उपर लग रहे घपले और घोटालों के आरोप हैं। इसके साथ ही लोकपाल बिल की चुनौती सरकार के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द है। ऐसे में तेलंगाना का तीर ऐसा है जिसके सहारे सरकार इन मसलों से लोगों का ध्यान हटा सकती है।
तेलंगाना के संदर्भ में कांग्रेस की पॉलिसी हमेशा से ढुलमुल रही है। तेलंगाना का मसला कोई नया नहीं है। हैदराबाद के निजाम से हैदराबाद को भारत में शामिल करने के बाद भाषा के आधार पर यूनाइटेड आंध्रप्रदेश का खाका खिंचा गया। तब भी तेंलगाना के लोगों ने आंध्रप्रदेश में तेलंगाना के विलय को खारिज कर दिया और इसके लिए कई आंदोलन भी हुए। यहां तक कि दिसंबर 1953 में गठित स्टेट रिऑर्गेनाइजेशन कमेटी ने भी तेलंगाना को आंध्रप्रदेश में शामिल नहीं करने का सुझाव दिया। लेकिन केंद्र में बैठी कांग्रेस की सरकार ने तेलंगाना के नेताओं पर दबिश डाली और एक संपूर्ण तेलगू भाषी आंध्रप्रदेश अस्तित्व में आया। 20 फरवरी 1956 को तेलंगाना और बाकी आंध्र के नेताओं के बीच करार हुआ कि तेलंगाना को सभी क्षेत्रों में प्राथमिकताएं दी जाएंगी। लेकिन तेलंगाना के लोग काफी वक्त बीत जाने के बाद भी खुद को उपेक्षित ही महसूस किए। 1956 से लेकर इस क्षेत्र के लोगों का विद्रोह कई बार सामने आया और हर बार सरकार इस विद्रोह को कोरे आश्वासन से शांत करती रही। कहना ग़लत नहीं होगा कि तेलंगाना को कांग्रेस समर्थित सरकारों ने एक तरह सुसुप्त ज्वालामुखी का तकदीर दे दिया। जो समय- समय पर फूटता रहता है और सरकारें इसे अपने एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती रहती हैं।
साल 1969 में तेलंगाना की मांग को लेकर छात्रों का विद्रोह हो और फिर इंदिरा गांधी का तेलंगाना से आने वाले नरसिम्हा राव को मुख्यमंत्री बनाया जाना। 1972 में मुल्की आंदोलन शुरू होना और फिर नरसिम्हा राव का मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना जिसके बाद तेलंगाना में आगजनी और विद्रोह जिस स्तर पर हुआ उसका गवाह पूरा देश बना। 1973 में गंभीर हालात को देखते हुए 6 सूत्रीय फार्मूला लाया गया, जिसमें राज्य के भीतर ही लोकल सीटिजन को लाभ देने से लेकर पिछड़े इलाकों के विशेष सहूलियत देने की बात थी। हालांकि 6 सूत्रीय फार्मुला भी फ्लॉप साबित हुआ। गौरतलब है कि 70 के दशक में इंदिरा गांधी और कांग्रेस की साख डावांडोल थी। इसी दशक में देश कई हिस्सों में बदलाव की आंधी चली थी और सोशलिस्ट मुवमेंट का आगाज पूरे देश भर में था। इस दौरान भी तेलंगाना और आंध्रा का मुद्दा गर्माया रहा।
तेलंगाना का मसला एक बार फिर एक दशक लिए आश्वासन और उपेक्षा के बस्ते में बंद हो गया। 1990 में जब देश आर्थिक तंगी से जूझने लगा। बड़ी- बड़ी कंपनिया दीवालिया होने के कागार पर आ पहुंची और जब देश का सोना गिरवी रखना पड़ गया तो एक बार फिर केंद्र सरकार लोगों के निशाने पर आ गई। हालांकि इस दौरान उदारीकरण का फार्मूला अपनाया गया और स्थिति यहां से सुधरने लगी। लेकिन इस दौरान भी तेलंगाना का मुद्दा भी जोर- शोर से गरम हो गया।
असल में तेलंगाना के लोग कभी सरकार की नीतियों को स्वीकार किए ही नहीं थे। उनके ऊपर तो सिर्फ थोपा गया था। ऐसे में जब ना तब उनके आक्रोश का लावा फूटता रहा। जब एनडीए की सरकार सत्ता में आई तो उसने अपने कार्यकाल में तीन नए राज्यों का निर्माण किया और मध्यप्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़, बिहार से अलग होकर झारखंड और उत्तरप्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आए। इसी दौरान एनडीए सरकार ने अलग तेलंगाना राज्य बनाने की भी पहल की, लेकिन टीडीपी के विरोध के चलते तेलंगाना राज्य को एनडीए ने बस्ते में डाल दिया..टीडीपी उस वक्त एनडीए को बाहर से समर्थन दे रही थी। लिहाजा सत्ता एनडीए ने तेलंगाना राज्य का गठन नहीं कर टीडीपी का साथ हासिल करने में ही खुद की भलाई समझी। इसके बाद के. चंद्रशेखर राव ने 2001 में अलग तेलंगाना की मांग को लेकर एक अलग राजनीतिक पार्टी बनाई तेलंगाना राष्ट्र समति। टीआरएस साल 2004 में कांग्रेस के साथ इस शर्त पर चुनाव लड़ी कि अगर उनकी सरकार बनती है तो अलग तेलंगाना राज्य का गठन होगा। टीआरएस कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के साथ सरकार में शामिल भी हुई, लेकिन 2006 में आंध्रप्रदेश के कद्दावर नेता और मुख्यमंत्री वाईएसआर राजशेखर रेड्डी ने अलग तेलंगाना राज्य के फार्मुले को खारिज कर दिया। जिसके बाद टीआरएस सरकार से समर्थन वापस ले ली और के चंद्रशेखर राव कई दिनों तक भूख हड़ताल पर भी रहे। आंध्रप्रदेश के बंटवारे को लेकर श्रीकृष्ण कमेटी का भी गठन किया गया...कमेटी ने बकायदा अपनी रिपोर्ट भी सौंप दी...लेकिन फिर भी सरकार कोई ठोस निर्णय नहीं ले रही। फिलहाल के परिदृश्य को देखकर तो यही लगता है..कि सरकार इस मसले को लटकाए रखने में ही अपनी भलाई समझ रही है। चाहें वो संसद में जवाब देही का हो या फिर संपूर्ण आंध्रप्रदेश की राजनीति का। क्योंकि रायलसीमा और सिमांध्रा के लोग आंध्रप्रदेश के बंटवारे के खिलाफ हैं। केंद्र सरकार के लिए अलग तेलंगाना का मुद्दा सिर्फ मुद्दा भर है जिसे वो हर पहलू पर भुनाना चाह रही है।

अमृत कुमार तिवारी

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