Tuesday, January 5, 2010

वो सूखा पत्ता...



वो पत्ता जो डाली से टूट चुका है,
कल मेरी ढ्योढ़ी पर आ गया था
उड़ता-फिरता, गिरता-पड़ता।।
मैनें उसे उठा अपनी जेब में रख लिया
ताकि फिर कोई हवा,
इसे ना उड़ा ले जाए
इतनी दूर कि बड़ी दूर
मैं आ गया हूं,
अपने शाख से अगल होकर।।

8 comments:

देवेन्द्र पाण्डेय said...

नौकरी की तलाश में घर से बेघर हुए लोगों का भी यही दर्द शाख से टूटे पत्ते के समान ही है।
..सुंदर अभ‍िव्यक्त‍ि .

Rachana Srivastwa said...

पत्ते को आसरा देने के लिए शुक्रिय़ा...कई ऐसे पत्ते बिखरे पड़े हैं..किसी को नाम चाहिय़े तो किसी को पैसा... बस सही जगह की तलाश है.

Udan Tashtari said...

अच्छा किया...एक दर्द समेट लिया है इसमें.

स्मिता said...

मार्मिक प्रस्तुति सुंदर रचना के लिए शुभकामनायें।

shama said...

वो पत्ता जो डाली से टूट चुका है,
कल मेरी ढ्योढ़ी पर आ गया था
उड़ता-फिरता, गिरता-पड़ता।।

Ham sab apnee, apnee daalee se kabhi na kabhi alag ho hee jate hain..

Anonymous said...

अच्छा किया आपने। जाने फिर वो कहाँ उड जाता। अच्छी रचना मित्र।

हर्षिता said...

सुंदर अभ‍िव्यक्त‍ि,लिखते रहे।

seema gupta said...

" very beautiful and nice expressions"

regards