भारत ने महात्मा गांधी की पुण्यतिथि मनाया है। आला नेताओं और अफसरशाहों ने अपने बेइमान दिल को मज़बूत करके नम आंखों से श्रद्धांजलि दी है। बेइमान लोग गांधी को श्रद्धांजलि देते वक्त डरते तो ज़रूर होंगे। लेकिन ये बात सोचता हूं तो हंसी आती हैं। दरअसल डर तो कब का खतम हो जाता है। गांधी के फोटो के सामने आत्मग्लानि इन अफसरशाहों की कब कि मर चुकी रहती है। क्योंकि गांधी के फोटो के आगे ही तो सारा गोरखधंधा होता है। फिर डर कैसा और आत्मग्लानि कैसी। भ्रष्टाचार का रगड़ से इनकी चमड़ी बेहद सख्त हो जाती है।
महात्मा का अंत कैसे हुआ ये सभी जानते हैं और किसने किया ये भी मालुम है। लेकिन मैं इसका विवरण देकर उस शख्स को अमर नहीं करना चाहता जिसने गांधी को मारा। लेकिन मुझे बार-बार उन ढोंगियों का जिक्र करना पड़ता है जो गांधी की खादी में छुपकर गांधीवाद का बलात्कार करते रहते हैं। अगर कोई गांधीवाद से इत्तेफाक नहीं रखता है तो इससे कोई शिकायत नहीं है। क्योंकि गांधीवाद एक विचारधारा है और विचारधारा सबकी एक हो ये मुमकिन भी नही है। लेकिन विचारधारा से ताल्लुक रखते हुए उसी के उपर नंगा नाच करना, ये शोभा नहीं देता। हमारे देश की अधिंकांश सरकारें या यूं कहें नेतागण गांधी के विचारों से बड़े ही प्रभावित नज़र आते हैं। उच्च कोटि की महंगी खादी कपड़े पहनते हैं औऱ अहिंसा कि बाते करते हैं। मोटे तौर पर अगर देखा जाए तो गांधी के रहते हुए भी और गांधी के इस दुनियां से चले जाने के बाद भी सियासत करने वाले उनकी बातों से तील मात्र भी इत्तेफाक नहीं रखे। हां, उन्होंने गांधी के चरित्र का जमकर उपयोग ज़रूर किया। गांधी को जनता के बीच अपनी हेठी बनाने के लिए उपयोग किया। राजनीति की धुरी पर गोल-गोल घुमते हुए वे गांधी को महान बताए, क्योंकि लोग गांधी को महान सुनना चाहते थे। गांधी को पथप्रदर्शक बताए, क्योंकि जनता चाहती थी कि नेता गांधी के बते रास्ते पर चलें। नि;संदेह गांधी जनता के प्रिय थे। लेकिन पॉलिटिकल लोगों के लिए मात्र साधन थे जिसे अपने साध्य पर वे साधते थे और कुछ नहीं। इतिहास में झांकता हूं तो गांधी लीगी और कांग्रेसियों में फंसे नज़र आते हैं। मृत्यु के बाद बड़े-बड़े अक्षरों में महिमा- मंडित नज़र आते हैं।
लेकिन गांधी की बातों पर हिंदुस्तान की सरकारों ने थोड़ा सा भी इल्म किया होता तो राज्यों की असमानता नहीं रहती। गांव और शहरों के बीच खाई नहीं पनपी होती। साल 1937 को 'हरिजन' में छपे एक लेख में गांधी ने कहा था कि "असली भारत इसके सात लाख गांवों में बसता है और विकास की गंगा गांवों से बहेगी तभी देश का निस्तार हो पाएगा।" लेकिन दुख है कि आजादी के बाद से ही बड़े-बड़े शहरों को कारोबारों से लैस किया जाने लगा। विकास की गंगा गांव से नहीं शहर से चल पड़ी। आज हम देख सकते हैं कि शहर से महज पचास मील बाहर निकलने पर लोग किस कदर बुनियादी सुविधा से महरूम हैं। गांवों में उद्योग नहीं होने के चलते शहर के तरफ पलायन हो रहा है।
किसानों के देश में ही किसान कहीं भूख से मर रहा है तो कहीं आत्महत्या करने के लिए मज़बूर हो रहा है। लोगों को 25 रुपया में सिम कार्ड मिल जा रहा है लेकिन 25 रुपया में भर पेट खाना नहीं मिल रहा। किसानों के लिए बीज की कीमतों की बात ही छोड़ दें। दो बिघा जमीन की जोत के लिए किसान कहां से पैसा जुटाता है, ये किसान ही जानता है। खाद से लेकर सिचाई का खर्चा उठाने के बाद पैदावार की उचित कीमत नहीं मिलने पर सरकारें उनके लिए कोई बेल-आउट पैकेज की घोषणा नहीं करती हैं। बस बयानबाजियां करके जमाखोरी को बढ़ावा देती हैं।
लेकिन जहां पर गांधी मार दिये गये हों...वहां कि हुकूमत से उनके विचारों की अपेक्षा करना बेमानी ही लगता है।
5 comments:
सही ही कह रहे हैं..क्या अपेक्षा की जाये.
bilkul theek kah rahe ho...
नए बदलाव नए तरीके से ही आते हैं। उसमें पुराने का अंश हो सकता है लेकिन उसका मौलिक स्वरूप सर्वथा नवीन प्रतीत होता है। गाँधी हो या कोई और आने वाली पीढ़िया उनकी कृत्यों और विचारों का लाभ लेते हुए अपने समय के लिए माकूल दर्शन का निर्माण करती है। अतः गाँधी जी या किसी और के प्रति मोहासक्त होना उचित नहीं प्रतीत होता।
ravish ji ke post pe aakpa comment accha laga. Badhiya aur santulit soch hai aapki. Samajh nahin aata ki ravish ji jaise suljhe hue patrakar kaise aisi uthli baatein kar sakte hain. Asha hai, aap, rangnath ji aur hum ek santulan ki rekha banane mein kamyab honge...
.... प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!
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