Sunday, September 26, 2010

जीत या हार

" रघुवीर पहलवान जिंदाबाद...रघु भईया जिंदाबाद.. बोले बोले--बजरंगबली की जय"

सोबईबांध गांव की गलियां नारों से गूंज गई। गांव के नौजवान ढोल नगाड़े बजा रहे थे...। महावीरी झंडा में रघुवीर ने बनारसी पहलवान को पछाड़ा था। 19 साल के रघुवीर को उसके दोस्त कंधे पर उठाए हुए थे। रघुवीर की आंखे श्रीवास्तव जी की कोठी की तरफ देख रही थीं। जिन नजरों की वाह- वाही वो चाह रहा था वो कोठी से निहार रही थी। ममता सखियों के साथ छिटा- कशी कर रही थी। "उम्ह! ...बनारसी पहलवान कौनो भीम के खानदान के थोड़े होते हैं ..जिन्हें हराने के बाद इतना हंगामा मचाया जा रहा है। पांच हजार का इनाम मिल गया सो कौन सी बड़ी बात है??" इन सबसे बेपरवाह रघु का काफिला उसके घर की तरफ बढ़ता है। " धा धिक् धिक् धमा धम..धा धिक धमा धम...बोले बोले बजरंग बली की जय!..... रघु भईया जिंदाबाद......जिंदाबाद जिंदाबाद।"  यादव टोला में रघु के जीत खासा चर्चा में थी.... "अरे भाई... जगेसर का लौंडा तो कमाल कर दिया... बनारसी पहलवान को हराया है। अब आस- पड़ोस के गांवो को पता चल गया होगा कि सोबईबांध में कौनो खर- पतवार नहीं रहते हैं। इन नौ जवानों को तो करनई गांव तक डंका पीट के आना चाहिए था। बड़ा फजीहत किए रहे सब। हम तो कहते हैं कि एक- एक कहतरी (दही रखने वाला मिट्टी का पात्र) दही उसके घर भेजवा देते। आखिर मूंछ पे ताव लाया है लड़का। अभी 19 साल में इ हाल है...जवानी तो अभी इंतजार कर रही है।" इधर ढोल नगाड़ों पर थिरकते नौ- जवानों का हुजूम रघु के घर पर आ पहुंचा। सभी रघु का खासम- खास बनने के लिए बेधड़क उसके घर में घुस रहे थे। " ऐ चाची देखो...इ तोहार लड़का क्या कर दिया है। पूरे गांव में रघु के नाम का डंका बज रहा है।"... रघु के घर के सामने लोगों का लब्बो- लोआब सिर चढ़ के बोल रहा था। आनन- फानन में झमन डीजे कंपनी आ गई। " रे छौड़ा..धत्त पवन सिंह के गाना बजाऊ..." और डीजे की गूंज से आस- पास के घरों के बर्तन खनखनाने लगे। " टुगडूम..टुगडूम.. ए मुखिया जी मन होखे त बोलीं...ना ही त रऊआं खाईं बरदास्त वाला गोली।" मलखान तो हरनाथ के लौंडा को नचा- नचा के पानी पिला दिया था। दुआर नाच की चौकड़ी के चलते अखाड़ा में तब्दील हो गया था।
दूसरी ओर घर के भीतर रघु की मां रघु पर बरस पड़ीं थी। " एह जुता पिटऊ के कौन सिखाए... पहलवानी से घर- बार का खर्चा ना चले। तुम्हारे बाप भी पहलवानी करते- करते इहे दिए है सिन्होरा...और तुम ये पांच हजार के इनाम से न जाने कौन सा राज दे दोगे। अरे कौनो रोजगार करोगे या नहीं। जिंदगी का खर्चा- पानी कैसे चलेगा। एक- आध साल में तुम्हारी जोरू आएगी तो क्या दोगे अपने बाप जइसा ही सिन्होरा?? काठ काहे मारा है तोहके? पढ़ाई छोड़ के अखाड़ा में पड़े रहते हो। अरे इ ताकत...इ जवानी हमेशा नहीं रहती काहें नहीं समझते। बाहर मजमा लगाये हो... कल घर में खर्ची खत्म हो जाए तो एक छटाक तक कोई नहीं देगा। चले आए हो दंगल जीत के। अरे जिंदगी का दंगल इससे कहीं अधिक चुनौती वाला है।" रघु हमेशा की तरह इस बार भी अपनी मां की फटकार सुन रहा था।

1 comment:

गजेन्द्र सिंह said...

शानदार प्रस्तुति .......

पढ़िए और मुस्कुराइए :-
आप ही बताये कैसे पर की जाये नदी ?