Saturday, September 18, 2010

बेहाल मन


जलते दीए पर, अब हवाओं ने नज़र डाली है
लव सिसकियां ले रहा है...दीवार की ओट अब नकाफी है
बयार के थपेड़ों से कोई कब जीता है???
उंघते हुए दीए को अब ये बात समझ आई है।
पूरवा- पछुआ हो देख लिया जाता
ये हवा नौटंकीबाज है...दीए की जान पर बन आई है।
सूत सी लव अब लड़खड़ा गई है
सांसे छूट गई हैं...रौशनी हार गई है।
अब तो निपट अंधेरा और मैं अकेला
बिन रौशने के बैठा हूं..
सिसकारती... फूफकारती चांडाल हवाओं ने,
मेरे हौसले को गिला कर दिया है...
काश के कोई चिंगारी उधार मिल जाती
अट्ठास होता मेरा और हवाएं सिहर जातीं
फिर तो एक नहीं सैकड़ों लौ की लड़ियां होतीं
सपने मेरे सुबह होते... और निराशा रातें होतीं।।

5 comments:

वीना श्रीवास्तव said...

अट्ठास होता मेरा और हवाएं सिहर जातीं
फिर तो एक नहीं सैकड़ों लौ की लड़ियां होतीं
सपने मेरे सुबह होते... और निराशा रातें होतीं।।

अच्छी रचना है..पर निराशा रातें क्यो होती...निराशा के भाव क्यों...आशा होनी चाहिए...या मैं समझ नहीं पाई

http://veenakesur.blogspot.com/

alka mishra said...

आशाओ के इस जंगल मे तूने क्या सहर निकाली है .............

दीपक बाबा said...

दुखी मन मेरे ..... सुन मेरे कहना........
जयादा भावुक मत होना
नहीं पड़ेगा पछताना .........

Anamikaghatak said...

achchha likha hai aapne........sundar

अमृत कुमार तिवारी said...

आप सभी की ब्लॉग पर पधारने के लिए धन्यवाद।
@वीना जी--
निराशा के बादल जब घिर जाते हैं...तो रात के चांद तारे भी दिखाई नहीं देते। जिस रात की कल्पना मेरी रचना मे है..वो अनंत जान पड़ती है। इसलिए हताशा और बढ़ रही है। दम तोड़ते सपनों को फिर से जिंदा करने की अकांक्षा है।