Thursday, September 16, 2010

ये सवाल बड़ा बेचैन करता है...


कश्मीर में शांति बहाली की दिशा में जिस तरह की कोशिशें की जा रही हैं, उसको देखकर मन में संदेह पैदा होता है। क्या सरकार इतनी बेचारी है कि कोई ठोस निर्णय नहीं ले सकती? सर्वदलीय बैठक का परिणाम ये रहा कि एक ऑल पार्टी डेलिगेशन को कश्मीर के दौरे पर भेजा जा रहा है। लेकिन क्या ये प्रयास काफी है? क्या इससे समस्या का समाधान हो जाएगा? घाटी का दौरा करने से राजनीतिक दल वहां के लोगों की कौन सी साईकॉलजी समझ लेंगे ये समझ के परे है। ये दौरा मुझे चाय- बिस्कुट के नाश्ते से ज्यादा कुछ नहीं नज़र आ रहा है। नेतागण घाटी का उस वक्त दौरा करेंगे जब कर्फ्यू लगा रहेगा, कोई घर के बाहर नहीं होगा, बाजार, स्कूल और कॉलेज बंद रहेंगे। फिर वहां की आवाम से बिना इंटरेक्शन किए बगैर हालात को कैसे समझ लेंगे?? बिना जनता के स्टेट कि परिकल्पना ही बेमानी है और जो हालात है वो जनता के द्वारा ही तो हैं। ये बात समझ में नहीं आ रही कि क्या सिर्फ नदिया पहाड़ और झरनों से बतिया लेने भर से कश्मीर के हालात को समझा जा सकता है? हां हमारे सुरक्षाबल किस अवस्था में वहां पर काम कर रहे हैं इसको समझा जा सकता है और एएफएसपीए पर एक आम राय बन सकती है। लेकिन मात्र एएफएसपीए ही कश्मीर का मात्र उपाय नहीं हो सकता। ढेरों कारण हैं और ऐसा भी नहीं सरकार अगर ठान लें तो उन कारणों का निवारण नहीं हो सकता। फिर क्या वजह हो सकती है कि सरकार कोई ठोस रोडमैप नहीं बना पा रही है? अगर आप लोगों के पास कोई उत्तर हो इन सवालों के तो जरूर बताने का कष्ट करें। अभी मेरे एक मित्र से बात हो रही थी..उनका तर्क था कि सरकार इंसरजेंसी को कायम रखना चाहती है। भला इंसरजेंसी सरकार को फायदा कैसे पहुंचा सकती है...इस सवाल का तो सीधा- सीधा मित्र महोदय ने जवाब तो नहीं दिया हां एक पक्ष रखकर जस्टिफाई करने की कोशिश जरूर की। उनका कहना था कि जब स्वामी अग्निवेश नक्सलियों से बातचीत के लिए मिडिएटर की भूमिका निभा रहे थे, तो सरकार ने ही उसमे रोड़े अटकाए। स्वामी अग्निवेश नक्सली नेता आजाद से बातचीत के लिए बात किए और आजाद तैयार भी हो गये। इसके कुछ ही देर बाद अग्निवेश इस बात को प्रधानमंत्री तक पहुंचाए। लेकिन अगले ही कुछ दिनों बाद आजाद का एनकांउटर हो गया। जिसके बाद काफी बवाल भी हुआ औऱ राजनीतिक कशमकश का माहौल भी बना रहा। खैर अपने मित्र के इस पक्ष को यहीं पर विराम देता हूं और ये समझने की कोशिश की जाए कि क्या इस घटना को कश्मीर के हालात से जोड़ा जा सकता है। मतलब अगर मान लिया जाए कि सरकार नक्सल इंसरजेंसी बरकार रखना चाहती है तो भला कश्मीर में इसे जिंदा रखने में क्या भलाई है। फिलहाल तो ये बिना सिर और पैर वाली बात लग रही है। लेकिन दाल में कुछ काला ज़रूर है कि सरकार कोई ठोस कार्रवाई नहीं कर पा रही है। उमर अब्दुल्ला की कशमकश भी बेचरगी की श्रेणी खड़ी है। गलियों में पत्थर लेकर जो युवा निकल रहे हैं, उन्हें संगीनों का कोई डर नहीं है। वे इसी माहौल में पले- बढ़ हैं और गोलियों की तड़तड़ाहट से वे अंजान नहीं है। ऐसे में वे कर्फ्यू तोड़ बाहर आते हैं तो कोई आश्चर्य भी नहीं है। तो क्या उन नौजवानों के जहन में जमे जहर को निकाला नहीं जा सकता? अगर सरकार को माइल्ड स्टेप्स लेने ही है तो आखिर देरी किस बात की है? जब घाटी में कुछ और लाशें गिर जाएंगी और बवाल पहले से ज्यादा उफान मारने लगेगा तब सरकार स्टेप्स लेगी। सवाल काफी हैं...जवाब देने वाला कोई नहीं मिलता। घाटी का इतिहास पता है। विलय कैसे हुआ ये भी पता है। वर्तमान कैसे ठीक हो...और भविष्य कैसे दुरूस्त हो इसकी टीस है।

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