Thursday, October 22, 2009

मेरा सबेरा कहां है?

शायद मैं नहीं ठहरा था तुम्हारे बातों पर..
जो शीतकाल की धुंध थी.
अधिक थीं अपार थीं...
शायद कुछ दिनों तक मैं वो धुंध ही देखता रहा
अब नज़रे तब्दील हो चुकी हैं..
धुंध से अब छंटा दिख रही है।
उबासी लेते हुए..लजाते हुए
ओस से नहाये हुए सुबह देख रहा हूं...
कुछ धुंधला.....कुछ ठंठा सा

ना जाने कितने दिन हुए ओस से नहाए हुए सुबह को देखे। नाइट लाइफ की जिंदगी कब अहम हिस्सा बन गई, पता ही नहीं चला। रात की शिफ्ट...रात की आवारगी...और रात का विरानापन। स्ट्रीट लाइट की लालीमा....दुधिया रौशनी में नहाईं सड़के अक्सर मेरे से बातचीत कर लेती हैं। जब कभी जिक्र करता हूं...सुबह की छंटा के बारे में। उसकी प्रकृतिक सौंदर्य के बारे में। शहरों की रातों को मेरी बातें बोरिंग लगती हैं। लेकिन शहरों की रातें क्या जाने कि रात का मतलब। यहां पर बस चुके हमारे आप जैसे क्या समझेंगे क्षितिज से फूंटते सूरज की बेचैनी। बात सिर्फ सबेरा का नहीं है। बात रात की भी है। क्योंकि सबेरा तब और प्यारा लगता है जब काली रात कुंडली मारकर बैठ चुकी हो। रात में झिंगूरों की आवाजें तो न जाने सुने हुए कितने दिन हो गए। भोर की अल्लहड़ हवाएं जो पूरे बदन को सिहरा देती थीं। वो अब कहां? रात में ठकाठक नान स्टाप काम। कभी शाम की शिफ्ट तो कभी मार्निंग की। सोचता हूं किस चीज के पीछे भागते हुए दिल्ली पहुंच गया हूं। जिंदगी शिफ्टों में और किश्तों में बच के रह गई है। धत्....।%%%%@@@@##

5 comments:

अजय कुमार said...

जिंदगी शिफ्टों में और किश्तों में बच के रह गई है।
aaj ke daur ka sahi khaakaa

Aadarsh Rathore said...

मालिक सभी की यही दशा है.......
:(

Aadarsh Rathore said...

मालिक सभी की यही दशा है.......
:(

कडुवासच said...

....जिंदगी शिफ्टों में और किश्तों में बच के रह गई है। धत्............. bahut khoob !!!!!

जोगी said...

:)