Thursday, December 3, 2009

पहले हम काहें ????

ग्लोबल वार्मिंग पर पूरी दुनियां चिंतित है। सभी को लग रहा है कि अब विश्व खतम होने ही वाला है। जिस तरह की भयावह स्थिति पैदा की जा रही है उससे हर कोई सकते में है। हॉलीवुड ने तो बकायदा फिल्म बना दिया है। 2012 नाम से शायद। जिसमें पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग के चलते डूब जाती है। इस फिल्म के देखने के बाद कुछ बच्चे तो यहां तक पूछ दिए कि क्या सच में दुनिया साल 2012 में खतम हो जएगी? उनकी आंखों में साफ-साफ भय के बादल तैर रहे थे। शायद पूरी दुनिया के सारे देश ग्लोबल वार्मिंग से होने वाली विभिषिका को उसी नज़रिये से भांप गए हैं। यही वजह है कि दुनिया के तमाम देश कोपेनहेगन में इस मसले पर ठोस कदम उठाने के लिए 7 दिसंबर को बैठक कर रहे हैं। इसमें सबसे अधिक फीक्रमंद विकसित देश दिखाई दे रहे हैं। वहीं विकासशील देश पशोपेश में हैं। हाल ही में तो उनके विकास की रफ्तार पटरी पर आई थी तभी ग्लोबल वार्मिंग का हवाला देकर वे अपने विकास की रफ्तार को क्यों रोक दें। लेकिन दूसरी तरफ अपने विकास का फूल पैरामीटर हांसिल कर चूके विकसित देशों का फिकराना रवैया भी विकासशील देशों को तंग किए जा रहा है।
कोपेनहेगन में होने वाली बैठक से पहले ही भारत ने अपना रुख साफ कर दिया है। और यकीनन ऐसा होना भी चाहिए था। क्योंकि विकासशील देशों को अपना शाख बचाने का यही एक मौका है कि वो खुलकर सामने आएं और जवाब मांगे कि जब वो अभी विकास की राह पर हैं तो उनसे क्यों ग्लोबल वार्मिंग का चंदा मांगा जा रहा है। डोनेशन तो उसे देना चाहिए जो पहले ही प्राकृतिक संसाधनों का जमकर इस्तेमाल कर चुका है और अपने को विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा कर लिया है। भारत सरीखे तमाम विकासशील देश तो अभी डेवलेपमेंट के लकीर पर चलना शुरू किए हैं फिर विकसित देश अपनी करतूत इन देशों पर क्यों लाद रहे हैं? भारत के असल में ये सवाल अमेरिका सरीखे विकसित देशों से पहले पूछना चाहिए। ये क्या मतलब बनता है? गलती कोई और करे और भरे कोई और।
ऐसा भी नहीं कि भारत को पर्यावरण जैसी समस्याओं को नजरअंदाज कर दिया जाए। कार्बन-उत्सर्जन के साथ-साथ भारत के सामने कई ऐसी चुनौतियां हैं जिससे उसे पहले निपटना चाहिए। मसलन शहरों की गंदगी। लगातार हो रहे वनों का नाश। हमारा भारत इन प्राथमिकताओं से कोसो दूर है। लगातार वनों की कटाई हो रही है। एक फारेस्ट ऑफिसर नौकरी में रहते-रहते ही करोड़ों का मकान खड़ा कर लेता है। पूंजी बना लेता है। ये सब कैसे होता है, ये बात सभी जानते हैं। एक आंकड़े के मुताबिक किसी भी देश के उसके पूरे क्षेत्रफल के कम से कम 40 फिसदी हिस्से में वनों का विस्तर होना चाहिए लेकिन दुख है कि भारत में मात्र लगभग 19 फीसदी हिस्से में ही जंगल हैं। मेरा खुद का मानना है कि हमे विकसित देशों से ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण पर डिबेट करने से पहले अपने देश के भीतर बेसिक पर्यावरण समस्याओं पर पहल करनी चाहिए। संसद में पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश जी ने मानसून का ऐसे जिक्र किया मानों विश्व स्तर पर पर्यावरण में होने वाली उठापटक ही केवल इसके बदलाव का कारण है। आरे, साहब आप कितना नुकसान किए हैं जंगलों का, पेड़-पौधों का ये भी तो देखें। आज इस देश के क्षेत्रफल का 25 फीसदी हिस्सा भी जंगलों से नहीं भरा है। ऐसे में अगर जयराम रमेश जी कहें की मानसून ने अपना रुख बदल लिया है। तो क्या मानसून प्राशांत महासागर से उठकर आता है।
पर्यावरण पर भारत को दो स्तर पर पहल करनी होगी। एक तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और दूसरा राष्ट्रीय स्तर पर। चूंकि पर्यावरण पर अंतर्राष्ट्रीय माहौल डिप्लोमेटिक हो चला है। इसलिए भारत को इस मामले में डिप्लोमेटिक ट्रिटमेंट लेकर ही चलना होगा। लेकिन जहां तक बात राष्ट्रीय स्तर की है तो बदलते मौसम का मिजाज दुरुस्त करने के लिए यहां प्राकृतिक माहौल को और ज्यादा बल और स्ट्रांग विजिलेंस मुहैया कराने की ज़रूरत है। तब जाकर हम विकास के साथ-साथ अपने प्राकृति के साथ छेड़-छाड़ में भी कम योगदान करेंगे।
अगर भारत ने 2020 तक एमिशन-इटेंसिटी में 20 से 25 फीसदी तक कटौती की बात कहा है तो दूसरी तरफ उसे जंगलों और प्राकृतिक श्रोतों को भी बढ़ावा देने के प्रति प्रतिबद्ध होना होगा। तभी वह विकसित देशों के सामने बल पूर्वक कह सकेगा कि उनकी मर्जी भारत पर नहीं थोपी जा सकेगी।
बहरहाल मैं जिस एंगल पर विचार रखने वाला था उससे भटक गया हूं लेकिन क्या करें दूसरे को धकियाने से पहले खुद आस-पास स्पेस पहले तो बनाना ही पड़ेगा। लिहाजा भारत को कोपेनहेगन में अपना स्टैंड रखने के साथ-साथ आतंरिक स्तर पर भी पर्यावरण के दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। मेरा कहने का मतलब साफ है कि हम खुद को विकसित देशों की कतार में खड़ा होने के लिए अपने सयंत्रों का प्रयोग तो करे ही साथ ही प्राकृतिक संसाधनों और साफ-सफाई पर भी उतना ही ध्यान दे। इसके लिए भारतीय जनता को भी क्रांतिकारी पहल करनी होगी। आम शहरी और ग्रामीण को छोटी-छोटी बातों का ध्यान देना होगा। ताकि कहीं भी ये लिखा दिखाई न पड़े कि देखो ‘गदहा मूत रह है/? या फिर ‘डोंट स्पाइट”, सेव इलेक्ट्रसिटी, सेव वाटर ..ब्ला..ब्ला जैसी सूक्तियां नज़र न आएं।

2 comments:

पत्रकार said...

लिखने के बाद और पोस्ट करने से पहले एक बार देख लिया करो। बिहारी और यूपी वाली टोन लिखने में नहीं चलती। इस से पार पाओ जल्दी...। तुम्हारी पोस्ट का तो शीर्षक ही गलत है...।

Razi Shahab said...

achchi jankari