नहीं अभी मैंने निश्चय नहीं किया है.. खैर अगर कहे हो तो दो चार अक्षर लिख ही देता हूं...। अर्से से मैं भी सोच रहा था कि कुछ लिखा जाय, शायग ब्लागिंग से मोह भंग हो गई थी. कंप्यूटर के की-बोर्ड की अपेक्षा मेरी कलम और डायरी अच्छी लग रही थी। शायद मैं ब्लागिंग का चरित्र भी उसी तरह बना रखा था.. जैसा कि आज से तीन साल पहले पत्रकारिता की थी। मुर्ख था....हां दोस्त, निहायत ही चु....किसम का आदमी था, जो भोथरी कलम और कपकपाई आवाज़ से इंकलाब लाने की सोचता था। खबरों के शॉपिंग मॉल से विरक्ति भाव ने ब्लॉग को संतुष्टि का माध्यम बनाना चाहा लेकिन पहले से चिन्हित अपेक्षा की रेखाओं तक न पहुंचना भी एक प्रकार से कष्टदायक ही रहा। जबकि सोच रखनी चाहिए थी मात्र अपनी भड़ासों को, अपने हास-परिहास को यहां पर लिख कर कुछ आनंनद बटोरना है। कुछ सुकून लेना है।
दोस्त एक लेखक की बात लिखते वक्त सदा याद आ जाती हैं कि 'किनारे पर बैठकर लहरों को गरियाने से क्या फायदा'। जब कभी भी कुछ लिखना चाहता हूं लगता है किनारों पर बैठ कर लहरों को गरिया रहा हूं। जबकि मन आतुर होता है कि उन लहरों पर खेलूं....अटखेलियां लूं। खूंखार लहरों को चुनौती दूं., शांत लहरों को मन के अंत: तक समाहित कर लूं। कुछ महीने पहले ही एक फिल्म भी आई थी...गुलाल। साहिल लुधियानवी की ही कलम जैसे आगे बढ़ गई थी...' ये शायर के फीके लबों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है। ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।'
5 comments:
बहुत भावमय रचना है इस जिन्दगी मेादमी को चैन कहाँ दुनिया मिल भी जाये तो आकाँक्षायें और बढ जाती है और आदामी फिर वहीं का वहीं असंतुश्ट ना मिले तो भी---- खैर बहुत सुन्दर रचना के लिये बधाई
Aapke man ki halchal ne prabhaavit kiya.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
प्रसन्नता हुई एक लंबे समय बाद आपके ब्लॉग पर नई पोस्ट देखकर
अपने आप को जानना सबसे बड़ी बात है
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'विज्ञान' पर पढ़िए: शैवाल ही भविष्य का ईंधन है!
akhir aaj maine tumhe dhoond hi nikala. tumhari lekhani ki to kayal pahale se hi hoon rahi is lekh ki baat to ye lekh nahi hai
dil se nikali awaj hai or dil se niklane wali baat ki anpni hi sundarta hai. kalam ke sath ungliyan bhi chalate raho.
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