Thursday, December 31, 2009
अब मैं उजड़ गया हूं..
साख से बिखर गया हूं
तीतर-बितर हो गया हूं...
चाहता हूं पा लू वो हौसला एक बार फिर से
जिसे कहीं दूर खुद दफन कर चुका हूं।।
मुझे याद है, वो हवन के मंत्र- जाप अभी भी
जब मैने अपने सारे धूप-कपूर स्वाहा कर दिए थे
उस अग्निकुंड में...
मैं उस राख को भभूति बना माथे पर लगाना चाहता हूं।।
ढूंढता फिर रहा हूं पैरों के निशान..इन सूखे पत्तों पर..
जिनके गिलेपन से गुजरा था रहगुजर बनकर
मैं फिर से उस दुत्कारे हुए मंजिल को पाना चाहता हूं।।
Wednesday, December 16, 2009
तात्कालिक स्वार्थ बनाम जलवायु संकट
आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्लाइमेट चेंज पर बैठक में हिस्सा लेने के लिए कोपेनहेगेन रवाना हो रहे हैं। हालांकि प्रधानमंत्री कोपेनहेगन जा तो ज़रूर रहे हैं लेकिन जानकारों के मुताबिक बैठक की सफलता पर सवालिया निशान जस का तस बना रहेगा। पर्यावरण संकट के इस सम्मेलन में शामिल राष्ट्र इसे एक पॉलिटिकल मुद्दा बनाकर चल रहे हैं। लिहाजा इस सम्मेलन का कोई सकारात्मक हल नहीं निकल पा रहा। विकसित देश जलवायु संबंधी सारे गिले-सिकवे विकासशील देशों पर थोप रहे हैं। जो शर्त विकसित देश विकासशील देशों पर लागू करने की जिद ठाने हैं..उन्हें वे खुद के ऊपर लागू करना ही नहीं चाहते । भारत और चीन सरीखे विकासशील देशों पर ये दबाव बनाया जा रहा है कि वे कार्बन कटौती के लिए कानूनी तौर पर हस्ताक्षर करें ताकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उसकी जांच होती रहे। विकसित देशों का सौतेला व्यवहार भारत और चीन को रास नहीं आ रहा। जिसके चलते सम्मेलन के असफल होने की गुंजाइश कहीं अधिक बढ़ गई है। मूलत: देखा जाए तो विकसित देश विकासशील देशों की अपेक्षा इस बैठक के नाकाम होने में सबसे बड़ा किरदार निभा रहे हैं। पृथ्वी महाविनाश के तरफ अग्रसर है। एक लंबे समय से पर्यावरण के जानकार गला फाड़कर चिल्ला रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्लेसियर पिघल रहे हैं और सागरों का पानी बढ़ता जा रहा है। हालात इस मोड़ पर आ पहुंचे हैं कि द्वीपों के डूबने का खचरा मडराने लगा है। ग्लोबल वॉर्मिंग का असर आज हर कोई अपने आस-पड़ोस में देख सकता है। कुछ ही दिनों पहले एक विश्वसनीय समाचार चैनल पर ख़बर देख रहा था जिसमें एक फुटेज में दिखाया गया कि कैसे ग्लेशियर में रहने वाला भालू आज अपने ही बच्चे को खाकर भूख मिटाने के लिए बाध्य है। कहीं ऐसा ना हो कि ये सिर्फ ध्रुवीय भालुओं की हालत आगे चलकर पूरे विश्व के जानवरों की आप बीती बन जाए और कहीं इंसान की भी नहीं। अगर दुनिया की सरकारों की बात छोड़ दें तो आम नागरिक, एक आम शहरी कार्बन एमिशन में अहम भूमिका अदा करता है। छोटी सी दूरी के लिए लोग गाड़ियों का प्रयोग करते हैं। बेतरतीब गीजर और एसी का इस्तेमाल करते हैं। बहरहाल इलक्ट्रॉनिक साजो-सामान बड़े पैमाने पर कार्बन पुट प्रिंट छोड़ रहे हैं। अब ऐसी हालत में वातावरण गर्म रहेगा ही। ग्लेसियर पिघलेंगे ही और बेमौसम आम के फल डालियों में लगेंगे ही।
पृथ्वी महाविनाश के तरफ अग्रसर है लेकिन विकास की आकाश गंगा बना चुके देश अपनी आंखे मूंदे हुए है। कोपेनहेगन में दुनिया भर से लोग पर्यावरण को बचाने की मुहीम लेकर पहुंचे हुए हैं। आए दिन रैलियां निकाली जा रही हैं। आए दिन पुलिस और प्रदर्शनकारियों में झड़पें हो रही है। कोपेनहेगन में एक तरफ लोगों का हूजूम है जो पर्यावरण को हर हालत में बचाने की मांग कर रहा है वही दूसरी तरफ उन राष्ट्रों का समूह है जो पर्यावरण समस्या को दरकिनार कर तात्कालिक स्वार्थ के तरफ ध्यान दे रहे हैं।
पृथ्वी महाविनाश के तरफ अग्रसर है लेकिन विकास की आकाश गंगा बना चुके देश अपनी आंखे मूंदे हुए है। कोपेनहेगन में दुनिया भर से लोग पर्यावरण को बचाने की मुहीम लेकर पहुंचे हुए हैं। आए दिन रैलियां निकाली जा रही हैं। आए दिन पुलिस और प्रदर्शनकारियों में झड़पें हो रही है। कोपेनहेगन में एक तरफ लोगों का हूजूम है जो पर्यावरण को हर हालत में बचाने की मांग कर रहा है वही दूसरी तरफ उन राष्ट्रों का समूह है जो पर्यावरण समस्या को दरकिनार कर तात्कालिक स्वार्थ के तरफ ध्यान दे रहे हैं।
Sunday, December 13, 2009
पीएम भी पिटता है!
पीएम भी पिटता है। ये बात मैं आज ही जान पाया हूं। आज ही टीवी पर देखा कि इटली के प्रधानमंत्री सीलिवियो बर्लुस्कॉनी एक रैली में ऐसे पिटे की उनके जबड़े हिल गए। जनाब जबड़े ही नहीं बल्कि उनको दो दांत भी टूट गए और बेचारे पीएम साहब लहूलुहान हो गए। उनको मारने वाले कोई बीस पच्चीस भी नहीं थे। महज एक शख्स था। उस शख्स ने ऐसा घूसा जमाया कि पीएम बर्लुस्कॉनी दो दांत कड़ाक से टूट गए। लेकिन वो जो भी शख्स है..मानना पड़ेगा। ज़रूर ही उसका हाथ ढाई किलो वाला होगा। तभी तो महज एक शॉट और पीएम लहूलुहान। वैसे महामहीम बर्लुस्कॉनी मीडिया में अक्सर अपने विवादित बातों के लिए जाने जाते हैं। आए ना आए दिन कोई ऐसी बात कह देते हैं जो मीडिया कि सुर्खियां बन जाती हैं। लेकिन पहले वो अपनी बातों से चर्चा में रहते थे अब पिटाई के चलते उनका हाल चर्चा-ए-आम है।
भाई अब इस इंसानी जहन में कुलेली मची हुई है। क्या कारण रहा होगा कि कोई शख्स पीएम साहब की ही धुनाई कर दिया। वो भी खूनी धुनाई। क्या पीएम साहब उसके बारे में भी कुछ अंट-शंट बोले थे? या फिर पीटने वाला शख्स देशभक्ति के इमोशन में आके घूसा जड़ दिया हो। क्या पता कोई गुप्त घोटाले का पता चल गया हो। हो सकता है पीएम साहब कोई दुर्व्यवहार कर बैठे हों। तभी जनता के बीच गए पिट गए। आखिरकार लोकतंत्र जनता का ही तो शासन है। लेकिन एक और चीज खटक रही है। सुन रखा हूं कि वेस्ट की सुरक्षा व्यवस्था बड़ी ही चाक-चौबंद है। फिर कैसे पीएम साहब की पिटाई हो गई? इससे अच्छा तो हमारे देश की सुरक्षा व्यवस्था है। मधु कोड़ा सरीखे न जाने कितने नेता जनता के कोप से दूर हैं। मंदिर-मस्जिद पर राजनीति करने वाले कितने सुरक्षित हैं। जाति-पात पर राजनीति करने वालों पर मजाल की कोई हवा का झोंका भी असर डाल सके। क्षेत्रवाद की राजनीति करने वालों को प्रशासन कितना प्रोटेक्शन मुहैया करती है। लेकिन एक बात और खटक रही है। कहीं हमारे यहां सिर्फ गुलाम तो पैदा नहीं होते………….
भाई अब इस इंसानी जहन में कुलेली मची हुई है। क्या कारण रहा होगा कि कोई शख्स पीएम साहब की ही धुनाई कर दिया। वो भी खूनी धुनाई। क्या पीएम साहब उसके बारे में भी कुछ अंट-शंट बोले थे? या फिर पीटने वाला शख्स देशभक्ति के इमोशन में आके घूसा जड़ दिया हो। क्या पता कोई गुप्त घोटाले का पता चल गया हो। हो सकता है पीएम साहब कोई दुर्व्यवहार कर बैठे हों। तभी जनता के बीच गए पिट गए। आखिरकार लोकतंत्र जनता का ही तो शासन है। लेकिन एक और चीज खटक रही है। सुन रखा हूं कि वेस्ट की सुरक्षा व्यवस्था बड़ी ही चाक-चौबंद है। फिर कैसे पीएम साहब की पिटाई हो गई? इससे अच्छा तो हमारे देश की सुरक्षा व्यवस्था है। मधु कोड़ा सरीखे न जाने कितने नेता जनता के कोप से दूर हैं। मंदिर-मस्जिद पर राजनीति करने वाले कितने सुरक्षित हैं। जाति-पात पर राजनीति करने वालों पर मजाल की कोई हवा का झोंका भी असर डाल सके। क्षेत्रवाद की राजनीति करने वालों को प्रशासन कितना प्रोटेक्शन मुहैया करती है। लेकिन एक बात और खटक रही है। कहीं हमारे यहां सिर्फ गुलाम तो पैदा नहीं होते………….
Thursday, December 3, 2009
पहले हम काहें ????
ग्लोबल वार्मिंग पर पूरी दुनियां चिंतित है। सभी को लग रहा है कि अब विश्व खतम होने ही वाला है। जिस तरह की भयावह स्थिति पैदा की जा रही है उससे हर कोई सकते में है। हॉलीवुड ने तो बकायदा फिल्म बना दिया है। 2012 नाम से शायद। जिसमें पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग के चलते डूब जाती है। इस फिल्म के देखने के बाद कुछ बच्चे तो यहां तक पूछ दिए कि क्या सच में दुनिया साल 2012 में खतम हो जएगी? उनकी आंखों में साफ-साफ भय के बादल तैर रहे थे। शायद पूरी दुनिया के सारे देश ग्लोबल वार्मिंग से होने वाली विभिषिका को उसी नज़रिये से भांप गए हैं। यही वजह है कि दुनिया के तमाम देश कोपेनहेगन में इस मसले पर ठोस कदम उठाने के लिए 7 दिसंबर को बैठक कर रहे हैं। इसमें सबसे अधिक फीक्रमंद विकसित देश दिखाई दे रहे हैं। वहीं विकासशील देश पशोपेश में हैं। हाल ही में तो उनके विकास की रफ्तार पटरी पर आई थी तभी ग्लोबल वार्मिंग का हवाला देकर वे अपने विकास की रफ्तार को क्यों रोक दें। लेकिन दूसरी तरफ अपने विकास का फूल पैरामीटर हांसिल कर चूके विकसित देशों का फिकराना रवैया भी विकासशील देशों को तंग किए जा रहा है।
कोपेनहेगन में होने वाली बैठक से पहले ही भारत ने अपना रुख साफ कर दिया है। और यकीनन ऐसा होना भी चाहिए था। क्योंकि विकासशील देशों को अपना शाख बचाने का यही एक मौका है कि वो खुलकर सामने आएं और जवाब मांगे कि जब वो अभी विकास की राह पर हैं तो उनसे क्यों ग्लोबल वार्मिंग का चंदा मांगा जा रहा है। डोनेशन तो उसे देना चाहिए जो पहले ही प्राकृतिक संसाधनों का जमकर इस्तेमाल कर चुका है और अपने को विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा कर लिया है। भारत सरीखे तमाम विकासशील देश तो अभी डेवलेपमेंट के लकीर पर चलना शुरू किए हैं फिर विकसित देश अपनी करतूत इन देशों पर क्यों लाद रहे हैं? भारत के असल में ये सवाल अमेरिका सरीखे विकसित देशों से पहले पूछना चाहिए। ये क्या मतलब बनता है? गलती कोई और करे और भरे कोई और।
ऐसा भी नहीं कि भारत को पर्यावरण जैसी समस्याओं को नजरअंदाज कर दिया जाए। कार्बन-उत्सर्जन के साथ-साथ भारत के सामने कई ऐसी चुनौतियां हैं जिससे उसे पहले निपटना चाहिए। मसलन शहरों की गंदगी। लगातार हो रहे वनों का नाश। हमारा भारत इन प्राथमिकताओं से कोसो दूर है। लगातार वनों की कटाई हो रही है। एक फारेस्ट ऑफिसर नौकरी में रहते-रहते ही करोड़ों का मकान खड़ा कर लेता है। पूंजी बना लेता है। ये सब कैसे होता है, ये बात सभी जानते हैं। एक आंकड़े के मुताबिक किसी भी देश के उसके पूरे क्षेत्रफल के कम से कम 40 फिसदी हिस्से में वनों का विस्तर होना चाहिए लेकिन दुख है कि भारत में मात्र लगभग 19 फीसदी हिस्से में ही जंगल हैं। मेरा खुद का मानना है कि हमे विकसित देशों से ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण पर डिबेट करने से पहले अपने देश के भीतर बेसिक पर्यावरण समस्याओं पर पहल करनी चाहिए। संसद में पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश जी ने मानसून का ऐसे जिक्र किया मानों विश्व स्तर पर पर्यावरण में होने वाली उठापटक ही केवल इसके बदलाव का कारण है। आरे, साहब आप कितना नुकसान किए हैं जंगलों का, पेड़-पौधों का ये भी तो देखें। आज इस देश के क्षेत्रफल का 25 फीसदी हिस्सा भी जंगलों से नहीं भरा है। ऐसे में अगर जयराम रमेश जी कहें की मानसून ने अपना रुख बदल लिया है। तो क्या मानसून प्राशांत महासागर से उठकर आता है।
पर्यावरण पर भारत को दो स्तर पर पहल करनी होगी। एक तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और दूसरा राष्ट्रीय स्तर पर। चूंकि पर्यावरण पर अंतर्राष्ट्रीय माहौल डिप्लोमेटिक हो चला है। इसलिए भारत को इस मामले में डिप्लोमेटिक ट्रिटमेंट लेकर ही चलना होगा। लेकिन जहां तक बात राष्ट्रीय स्तर की है तो बदलते मौसम का मिजाज दुरुस्त करने के लिए यहां प्राकृतिक माहौल को और ज्यादा बल और स्ट्रांग विजिलेंस मुहैया कराने की ज़रूरत है। तब जाकर हम विकास के साथ-साथ अपने प्राकृति के साथ छेड़-छाड़ में भी कम योगदान करेंगे।
अगर भारत ने 2020 तक एमिशन-इटेंसिटी में 20 से 25 फीसदी तक कटौती की बात कहा है तो दूसरी तरफ उसे जंगलों और प्राकृतिक श्रोतों को भी बढ़ावा देने के प्रति प्रतिबद्ध होना होगा। तभी वह विकसित देशों के सामने बल पूर्वक कह सकेगा कि उनकी मर्जी भारत पर नहीं थोपी जा सकेगी।
बहरहाल मैं जिस एंगल पर विचार रखने वाला था उससे भटक गया हूं लेकिन क्या करें दूसरे को धकियाने से पहले खुद आस-पास स्पेस पहले तो बनाना ही पड़ेगा। लिहाजा भारत को कोपेनहेगन में अपना स्टैंड रखने के साथ-साथ आतंरिक स्तर पर भी पर्यावरण के दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। मेरा कहने का मतलब साफ है कि हम खुद को विकसित देशों की कतार में खड़ा होने के लिए अपने सयंत्रों का प्रयोग तो करे ही साथ ही प्राकृतिक संसाधनों और साफ-सफाई पर भी उतना ही ध्यान दे। इसके लिए भारतीय जनता को भी क्रांतिकारी पहल करनी होगी। आम शहरी और ग्रामीण को छोटी-छोटी बातों का ध्यान देना होगा। ताकि कहीं भी ये लिखा दिखाई न पड़े कि देखो ‘गदहा मूत रह है/? या फिर ‘डोंट स्पाइट”, सेव इलेक्ट्रसिटी, सेव वाटर ..ब्ला..ब्ला जैसी सूक्तियां नज़र न आएं।
कोपेनहेगन में होने वाली बैठक से पहले ही भारत ने अपना रुख साफ कर दिया है। और यकीनन ऐसा होना भी चाहिए था। क्योंकि विकासशील देशों को अपना शाख बचाने का यही एक मौका है कि वो खुलकर सामने आएं और जवाब मांगे कि जब वो अभी विकास की राह पर हैं तो उनसे क्यों ग्लोबल वार्मिंग का चंदा मांगा जा रहा है। डोनेशन तो उसे देना चाहिए जो पहले ही प्राकृतिक संसाधनों का जमकर इस्तेमाल कर चुका है और अपने को विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा कर लिया है। भारत सरीखे तमाम विकासशील देश तो अभी डेवलेपमेंट के लकीर पर चलना शुरू किए हैं फिर विकसित देश अपनी करतूत इन देशों पर क्यों लाद रहे हैं? भारत के असल में ये सवाल अमेरिका सरीखे विकसित देशों से पहले पूछना चाहिए। ये क्या मतलब बनता है? गलती कोई और करे और भरे कोई और।
ऐसा भी नहीं कि भारत को पर्यावरण जैसी समस्याओं को नजरअंदाज कर दिया जाए। कार्बन-उत्सर्जन के साथ-साथ भारत के सामने कई ऐसी चुनौतियां हैं जिससे उसे पहले निपटना चाहिए। मसलन शहरों की गंदगी। लगातार हो रहे वनों का नाश। हमारा भारत इन प्राथमिकताओं से कोसो दूर है। लगातार वनों की कटाई हो रही है। एक फारेस्ट ऑफिसर नौकरी में रहते-रहते ही करोड़ों का मकान खड़ा कर लेता है। पूंजी बना लेता है। ये सब कैसे होता है, ये बात सभी जानते हैं। एक आंकड़े के मुताबिक किसी भी देश के उसके पूरे क्षेत्रफल के कम से कम 40 फिसदी हिस्से में वनों का विस्तर होना चाहिए लेकिन दुख है कि भारत में मात्र लगभग 19 फीसदी हिस्से में ही जंगल हैं। मेरा खुद का मानना है कि हमे विकसित देशों से ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण पर डिबेट करने से पहले अपने देश के भीतर बेसिक पर्यावरण समस्याओं पर पहल करनी चाहिए। संसद में पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश जी ने मानसून का ऐसे जिक्र किया मानों विश्व स्तर पर पर्यावरण में होने वाली उठापटक ही केवल इसके बदलाव का कारण है। आरे, साहब आप कितना नुकसान किए हैं जंगलों का, पेड़-पौधों का ये भी तो देखें। आज इस देश के क्षेत्रफल का 25 फीसदी हिस्सा भी जंगलों से नहीं भरा है। ऐसे में अगर जयराम रमेश जी कहें की मानसून ने अपना रुख बदल लिया है। तो क्या मानसून प्राशांत महासागर से उठकर आता है।
पर्यावरण पर भारत को दो स्तर पर पहल करनी होगी। एक तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और दूसरा राष्ट्रीय स्तर पर। चूंकि पर्यावरण पर अंतर्राष्ट्रीय माहौल डिप्लोमेटिक हो चला है। इसलिए भारत को इस मामले में डिप्लोमेटिक ट्रिटमेंट लेकर ही चलना होगा। लेकिन जहां तक बात राष्ट्रीय स्तर की है तो बदलते मौसम का मिजाज दुरुस्त करने के लिए यहां प्राकृतिक माहौल को और ज्यादा बल और स्ट्रांग विजिलेंस मुहैया कराने की ज़रूरत है। तब जाकर हम विकास के साथ-साथ अपने प्राकृति के साथ छेड़-छाड़ में भी कम योगदान करेंगे।
अगर भारत ने 2020 तक एमिशन-इटेंसिटी में 20 से 25 फीसदी तक कटौती की बात कहा है तो दूसरी तरफ उसे जंगलों और प्राकृतिक श्रोतों को भी बढ़ावा देने के प्रति प्रतिबद्ध होना होगा। तभी वह विकसित देशों के सामने बल पूर्वक कह सकेगा कि उनकी मर्जी भारत पर नहीं थोपी जा सकेगी।
बहरहाल मैं जिस एंगल पर विचार रखने वाला था उससे भटक गया हूं लेकिन क्या करें दूसरे को धकियाने से पहले खुद आस-पास स्पेस पहले तो बनाना ही पड़ेगा। लिहाजा भारत को कोपेनहेगन में अपना स्टैंड रखने के साथ-साथ आतंरिक स्तर पर भी पर्यावरण के दिशा में क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। मेरा कहने का मतलब साफ है कि हम खुद को विकसित देशों की कतार में खड़ा होने के लिए अपने सयंत्रों का प्रयोग तो करे ही साथ ही प्राकृतिक संसाधनों और साफ-सफाई पर भी उतना ही ध्यान दे। इसके लिए भारतीय जनता को भी क्रांतिकारी पहल करनी होगी। आम शहरी और ग्रामीण को छोटी-छोटी बातों का ध्यान देना होगा। ताकि कहीं भी ये लिखा दिखाई न पड़े कि देखो ‘गदहा मूत रह है/? या फिर ‘डोंट स्पाइट”, सेव इलेक्ट्रसिटी, सेव वाटर ..ब्ला..ब्ला जैसी सूक्तियां नज़र न आएं।
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