महामहीम की कस्टम विभाग में नौकरी लगी है। लोग अक्सर सुनते ही बोल पड़ते हैं.."चलो अब चांदी काटेंगे, बहुत उपरवार कमा है"। ऐसी अनेकों बार घटनाएं हुई है जब इस पर लोगों ने सवाल किये हैं। पता नही खुशी से करते थे या फिर चुटकी लेने के लिए..."और, आईएस की तैयारी कहां तक पहुंची"? महामहीम तुरंत खुशी पूर्वक बताते ...."जी दरअसल तैयारी चल रही है..वैसे मैने अभी-अभी एक परीक्षा पास की है...कस्टम ऑफिसर का जॉब है"।।। फिर लोग तो इंतिहाई खुशी का सागर उड़ेलते हुए बोल देते..."वाह यार..अब तो खुब चांदी कटेगी..बहुत पैसा है"।। महामहीम का उस समय चेहरा कुछ स्प्ष्टीकरण नही दिया लेकिन एक भाव ज़रूर प्रदर्शित कर दिया कि....नहीं, आप के यह विचार एक बार भी मेरे व्यक्तित्व का खयाल नही किए कि मैं कैसा प्राणी हूं, मेरे ही समक्ष खड़े होकर मेरे ही सिद्धंतों पर शक जता रहे हैं.।। लेकिन महामहीम यह सब बातें शायद अंदर ही पी जाते। वैसे समय बढ़ता गया और ऐसी बातों कारवां भी बढ़ता गया। लेकिन उस दिन जब हम लोग 'मैं इस्तांबुल हूं' देखने गये थे तो उसी वक्त उनके जानने वाले ने कुछ कस्टमियां आचरण को उजागर किए। मुझे लगा अब महामहीम कुछ सार्थक जबाब देंगे, लेकिन ये क्या.. महामहीम एक दम बेचारे से दिखे, बोले...अच्छा तो यो बताइए कि इन सब घुस-घास के चक्कर से कैसे बचा जाय। उस समय ऐसा लगा मानो महामहीम थके-थके से लग रहे हों। वैसे महामहीम इंजिनियरिंग में बीटेक किये हुए थे लेकिन इंजिनियर की नौकरी नही कर वो सिविल सर्विसेज में जाना चाहते थे। उनके साथ के पास-आउट मोटी पगार पा रहे थे लेकिन महामहीम सिस्टम में जाकर बेहतर करना चाहते थे। पावर नही सेवा को तवज्जो देते थे। असूलन अब कस्टम अफ़सर होने पर भी अभिलाषा ईमानदारी की है। अगर इसी असूल की बात करू तो एक एक दिन मेरे सामने ही बस कंडक्टर से सीट के लिए भींड़ गये थे। दलील थी कि यह यात्री सीट है और मेरा अधिकार है कि मैं इस पर बैठूं, अंत में उस कंडक्टर को उठना ही पड़ा था। कई ऐसी वारदातें हैं जिनका वर्णन करू तो बहुत ही लंबा हो जायेगा। कहां नहीं महामहीम ने अपना लोहा नही मनवाया था। बिल्डिंग में समाजवाद की लहर को वो ही ज़िंदा रखे थे। कहीं भी राष्ट्रगान हो और महामहीम सावधान खड़े न हो या फिर क्षेत्रीय टिप्पणी भी किसी के मूंह से निकल जाती तो महामहीम गुस्से से आग बबूला हो जाते थे। एक दिन विनय ने कुछ लड़कियों को संबोधित करते हुए कहां कि ये जो चिंकी है....बस फिर क्या था महामहीम ने टप से आगे के वाक्य बीच में ही काट विनय को लपक लिए। "क्या वो भारतीय नही, सिर्फ तुम हो, सोचो तुम अगर नॉर्थ-इस्ट के किसी शहर या गांव में होते तो तुम्हें कैसा लगता। संबोधन करना ही था तो कोई और शब्द नही मिला था। दूर की छोड़ो जब तुम्हे कोई बिहारी बोलता है तो तुम कैसे बिफर पड़ते हो"....."विनय तुरत ही बोला...भईया मैं बिहारी नही झारखंड का हूं, महामहीम ने हल्की गंभीर मुस्कान लिए बोले....तो दोस्त तुम्हे तो इस दर्द का एहसास होना चाहिए। यदि इस टीस के बावजूद तुम ऐसी टिप्पणी करते हो तो इनका कोई दोष नही जो बिना किसी टीस के बिहारी बोलने में गुरेज नही करते"। अक्सर मेरी और महामहीम की बहस किसी विषय पर छिड़ ही जाती। याद है कि हम लोग रात के चार-चार बजे तक बहस करते। जातिवाद से लेकर,भ्रष्टाचार,पाखंडवाद, कुत्सित राजनीति, सिस्टम की खामियां और महत्ता, लोगों की लोकतंत्र में भागीदारी, मार्क्सवाद, पूंजीवाद, गांधीवाद इत्यादि, इत्यादि।।। कुछ लोग ऐसे भी थे जो कभी महामहीम को सुन लेते तो उनकी ही बातों को अपना बनाकर, आशय का स्वरूप बदलकर अपनी समझ के अनुसार दूसरे लोगों के सामने पेश करते। लोग भी बड़े चाव से सुनते थे।
शिक्षा में आरक्षण के वे धूर विरोधी हैं, कभी कहीं पढ़ लेते की फलां आदमी अपने पहले अटेंप्ट में ही आईएस क्वालिफाई कर लिया है तो इस बात को बड़े ही गर्व से बाताते मानों कहीं ना कहीं वह खुद को उसी आदमी के रुप में देख रहे हों। लेकिन दूसरे ही दिन घोर आपत्ती के साथ उसी घटनाक्रम में आगे वाक्य जोड़ते," यार वो जो लड़का क्वालीफाई किया है वह OBC से था। मैं उसे जानता हूं, बड़े ही सम्पन्न परिवार से है, कोचिंग पढ़ने खुद के कार से जाता है। अब इसे आरक्षण की क्या ज़रुरत??? मतलब मैं तो चुतिया हूं...मेरे पापा भी कहते हैं कि हमारी जाति विशेष के लोगों को बिहार में आरक्षण प्राप्त है, आने वाले पीसीएस में इसका लाभ उठाओ....लेकिन मैं ऐसा काम नही करता वगैरह..वगैरह........."।।
अब महामहीम सिस्सटम में घुस चुके हैं और उनके अंदर सिस्टम की बेबसी अभी से देख रहा हूं....इधर मैं भी पत्रकारिता के एक दुकान में सेल्समैंन हो गया हूं.। अब हमारे आक्रोश, परिवर्तन लाने की लहर, बेदाग़ आचरण की कामना जिंदगी की लहरों में डूब रहे हैं उतरा रहे हैं।