मेरे साथियों
ये कॉमनवेल्थ गेम हमारा तुम्हारा नहीं है औऱ ना ही हमारे भारत वर्ष का है। ये मात्र उन चंद अमीरों और नौकरशाहों का है जो विश्व स्तर पर खुद को रिप्रेजेंट करना चाहते हैं। हमारी गरीबी से उन्हें बू आती। हमारे पसीने से तो इन्हें उल्टी आती है, लेकिन उसी की कमाई को ये हजम करने में थोड़ा भी शर्म महसूस नहीं करते। मुझे नहीं पता कि हमारे कितने भाई- बहनों को भर पेट खाना नसीब हो पाता है। कितने प्रतिशत बच्चों को दो वक्त का दूध भी नसीब होता है। मुझे नहीं मालुम, क्योंकि हर किसी का अपना- अपना आंकड़ा है। आंकड़ों के खेल में मैं नहीं पड़ना चाहता। बस एक गुजारिश है कि आप अपनी माली जिंदगी देखिए और देश में जो हो रहा है..उससे तुलना किजिए। मैनें सुना है... हमारी माताओं की छाती से दूध नहीं...खून निकल रहा है, लेकिन फिर भी वो अपने दूध- मूंहे बच्चे को छाती से चिपकाए हुए है। आज से लगभग 60 साल पहले हिंदी के महाकवि निराला जी ने भारत की दशा पर लिखा था..."स्वानों को मिलता दूध- भात...भूखे बच्चे अकुलाते हैं..... मां की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़े की रात बीताते हैं।" मगर दुख है कि 60 साल बाद भी निराला जी की ये पंक्तियां आज भी प्रासंगिक हैं। इन पंक्तियों का दर्द ना ही यहां नौकरशाहों ने महसूस किया और ना ही राजनीति करने वालों ने। हमारी गरीबी तो राजनेताओं के लिए राजनीति का साधन है। हमे और आपको डिमॉक्रेसी और लोकतंत्र जैसे शब्दों का लॉली- पॉप देकर शासन की नीति साधी जाती है। हम और आप राजनीति का केंद्र होकर भी राजनेताओं के मात्र साधन हैं। जिससे वे सत्ता का निशाना साधते हैं। सत्ता जो इन राजनेताओं को पॉवर देती है...पैसा देती है और हम जैसे लोगों को शोषण और भूख देती है। आज जो देश में चल रहा है...वो एक किसम का आर्थिक साम्राज्यवाद है। जहां पर हम और आप बौने हैं। अगर आप कोई घंधा- पानी करना चाहें तो बाजार में पैसे की मोनोपॉली है, जिसे बिजनेस की भाषा में मार्केट कंप्टीशन कहा जाता है। कौन खरीदेगा आपका सामान?? कोई नहीं। आपके सरकारी स्कूल में कौन सी सुविधा मिल जाती है...कौन सा यंत्र आपके भौतिक विज्ञान या रसायन विज्ञान के प्रयोग में सहायक हो पाता है?? दावे के साथ कह सकता हूं कोई नहीं। ऊंची शिक्षाएं काफी मंहगी हो गई हैं...कोचिंग कल्चर पहले से ही गरीबों के टैलेंट पर क्विंटल भर का बोझ लाद दी है। पैसे के अभाव में क्या आप अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दे पाते हैं...????? बिल्कुल नहीं। शिक्षा से लेकर रोजगार तक और समाजसेवा से लेकर परिवार सेवा तक आर्थिक सम्राज्यवाद का प्रभाव है। राजनीति इसका ज्वलंत उदाहरण है। राजनीति भी अमीरों का रेस कोर्स है...अगर करोड़ों रुपये हैं तो आईए मैदान में आपका स्वागत है। पैसा नहीं तो धत्त तेरी की....भाग बाहर या माइक में जाके चिल्ला फलाना नेता जिंदाबाद। मित्रों समझने की जरूरत है। इस आर्थिक साम्राज्यवाद को खतम किया जा सकता है। बस हौसला चाहिए....और समझने की शक्ति। नहीं तो ये 30 फीसदी आबादी हमें और आपको देशभक्ति का नारा देकर अपना स्वार्थ साधती रहेगी। आगाज करिए अपने विरोध का....।
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