फेक करेंसी का मामला दिनों दिन तूल पकड़ता जा रहा है। भारत को एक अलग तरह के आतंकवाद से जूझना पड़ रहा है। जी हां भारत के सामने एक और चुनौती सामने आन पड़ी है। जिसे आर्थिक आतंकवाद कहा जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं की समय रहते इस नासूर का इलाज किया जा सकता था लेकिन भारतीय सरकारें इसे उतने गंभीरता से नहीं ली जितनी की लेनी चाहिए थी। लिहाजा जाली नटों का कारोबार अपना पैर पसारता गया। पाकिस्तान से जन्मा यह धंधा अब लगभग भारत के सभी पड़ोसी देशों में फल-फूल रहा है। इसका एक मात्र कारण है भारत की लचर विदेश नीति। आज बाग्लादेश, नेपाल, म्यामांर हमारे विरुद्ध कई प्रकार की ऐसी गतिविधियां चला रहे हैं जो किसी भी मायने में भारत की सेहत के लिए अच्छी नहीं। आईएसआई की कारस्तानी अब नेपाल में खूब फल फूल रही है। लिहाजा भारत की इस पर चिंता लाजमी है। क्योंकि नेपाल भी अब चीन के गोद में जा बैठा है। आज नेपाल खा रहा है भारत का और गुणगान कर रहा है चीन का। फलत: ऐसे में नेपाल से यह आशा करना कि वह जाली नोटों के धंधे और तमाम बाकी एंटी इंडियन मुहीम को खतम करने की कोशिश करेगा यह बात पूरी तरह से बेमानी होगी।
वहीं बात करें आईएसआई की तो उसे सह ना सिर्फ पाकिस्तान से मिल रहा है बल्कि उसका नेटवर्क यूरोप तक भी जा पहुंचा जहां से भारत नोटों की छपाई के लिए स्याही खरीदता था, वही स्याही आईएसआई ने खरीदना शुरू किया और हू हबू से दिखने वाले नोटों की छपाई कर भारतीय बाजार में धड़ल्ले से फैलाने लगा। आज देश के हर मोहल्ले से जाली नोटों की शिकायते मिल रही हैं।
इन नोटों को भारत के ही रहने वाले एजेंटों के हवाले से मार्केट में फैलाया जाता है। इन एजेंटो को यह नोट कुछ पैसे देकर खरीदने पड़ते हैं। मसलन आज कल मार्केट में 500 की एक नकली नोट खरीदने के लिए एजेंटों को 300 रुपये देने पड़ते हैं। यानी 500 के नोट पर दो सौ के मुनाफे के लिए ये कीट-पतंगे पूरी अर्थव्यवस्था को चाट रहे हैं। इस धंधे में पुरूष ही नहीं बल्कि महीलाओं की भी भागीदारी अधिक है। अभी हाल भी में हरियाणा के पानीपत से एक महीला को पुलिस ने गिरफ्तार किया और उसके पास से 2 लाख के नकली नोट बरामद किए। दूसरी अन्य घटना में चंडीगढ़ पुलिस ने अमृतसर में एक महीला के घर पर छापा मारकर वहां से भी 2 लाख के नकली नोट बरामद किए। गिरफ्तार महिला जाली नोटों का यह कारोबार अमृतसर से ही नहीं बल्की पंजाब के अन्य दूसरे शहरों तक फैला के रखी थी।
जब यह ममला संगीन हो चुका है तब भारत सरकार की आंख खुली है। वैसे तो आंख बहुत पहले से खुली थी लेकिन सरकारें सोने का बहाना कर रही थीं। एक कहावत है कि सोये हुए को जगाया जा सकता है। झूठी नींद वालों को कभी भी नही जगाया जा सकता है। ऐसा ही भारत की शिथिल सरकारों ने किया है। मामले के अंजाम को नहीं भांप सकी और निरुपाय हाथ पे हाथ धरे बैठी रहीं। कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बना जिसके तहत अर्थव्यवस्था के इस दीमक का सफाया किया जा सके। और अब जब आर्थिक मंदी का हाहाकार मचा हुआ है तब हर तरफ फेक करेंसी...जाली नोट की चिल्लम-चिल्ला हो रही है।
वर्तमान परिदृश्य में हम अपने सभी पड़ोसी देशों पर ऐतबार नहीं कर सकते की वे आईएसआई द्वारा संचालित नकली नोटों के इस कारोबार पर लगाम लगाएंगे। क्य़ोंकि रह-रह कर बांग्लादेश जिस तरह से हमरी बातों को अनसुना करता आया है। जिस तरह से नेपाल का चीन राग थमने का नाम नहीं ले रहा, वैसे में स्पष्ट रवैया के गुंजाइश का सवाल ही नही उठता है और पाकिस्तान में स्थित इस कारोबार को बंद कराना तो एक कोरा सपना ही होगा। ऐसे में भारत को दूरगामी उपाय के बारे में सोचने की आवश्यक्ता है। वैसे अगर भारतीय प्रायद्वीप में सेम करेंसी की व्यवस्था लागू कर दी जाय जैसे यूरोप में यह व्यवस्था तो इस नकली नोटों से पार पाया जा सकता है। क्य़ोंकि अगर भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका में एक ही करेंसी होगी तो सभी साझा रूप से जाली नोटों के कारोबार को खत्म करने पर तत्पर हो जाएंगे। इसके लिए भारत को अपनी कूटनीति को मजबूत और निडर बनानी होगी। घूटने टेकने से काम नहीं चलेगा।
फेक करेंसी का मामला दिनों दिन तूल पकड़ता जा रहा है। भारत को एक अलग तरह के आतंकवाद से जूझना पड़ रहा है। जी हां भारत के सामने एक और चुनौती सामने आन पड़ी है। जिसे आर्थिक आतंकवाद कहा जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं की समय रहते इस नासूर का इलाज किया जा सकता था लेकिन भारतीय सरकारें इसे उतने गंभीरता से नहीं ली जितनी की लेनी चाहिए थी। लिहाजा यह अपना पैर पसारता गया। पाकिस्तान से जन्मा यह धंधा अब लगभग भारत के सभी पड़ोसी देशों में फल-फूल रहा है। इसका एक मात्र कारण है भारत की लचर विदेश नीति। आज बाग्लादेश, नेपाल, म्यामांर हमारे विरुद्ध कई प्रकार की ऐसी गतिविधियां चला रहे हैं जो किसी भी मायने में भारत की सेहत के लिए अच्छी नहीं। आईएसआई की कारस्तानी अब नेपाल में खूब फल फूल रही है। लिहाजा भारत की इस पर चिंता लाजमी है। क्योंकि नेपाल भी अब चीन के गोद में जा बैठा है। आज नेपाल खा रहा है भारत का और गुणगान कर रहा है चीन का। फलत: ऐसे में नेपाल से यह आशा करना कि वह जाली नोटों के धंधे और तमाम बाकी एंटी इंडियन मुहीम को खतम करने की कोशिश करेगा। यह बात पूरी तरह से बेमानी होगी।
वहीं बात करें आईएसआई की तो उसे सह ना सिर्फ पाकिस्तान से मिल रहा है बल्कि उसका नेटवर्क यूरोप तक भी जा पहुंचा जहां से भारत नोटों की छपाई के लिए स्याही खरीदता था। वहीं स्याही आईएसआई ने खरीदना शुरू किया और हू हबू से दिखने वाले नोटों की छपाई कर नोटों को भारतीय बाजार में धड़ल्ले से फैलाने लगा। आज देश के हर मोहल्ले से जाली नोटों की शिकायते मिल रही हैं।
इन नोटों को भारत के ही रहने वाले एजेंटों के हवाले से मार्केट में फैलाया जाता है। इन एजेंटो को यह नोट कुछ पैसे देकर खरीदने पड़ते हैं। मसलन आज कल मार्केट में 500 की एक नकली नोट खरीदने के लिए एजेंटों को 300 रुपये देने पड़ते हैं। यानी 500 के नोट पर दो सौ के मुनाफे के लिए ये कीट-पतंगे पूरी अर्थव्यवस्था को चाट रहे हैं। इस धंधे में पुरूष ही नहीं बल्कि महीलाओं की भी भागीदारी अधिक है। अभी हाल भी में हरियाणा के पानीपत से एक महीला को पुलिस ने गिरफ्तार किया और उसके पास से 2 लाख के नकली नोट बरामद किए। दूसरी अन्य घटना में चंडीगढ़ पुलिस ने अमृतसर में एक महीला के घर पर छापा मारकर वहां से भी 2 लाख के नकली नोट बरामद किए। गिरफ्तार महिला जाली नोटों का यह कारोबार अमृतसर से ही नहीं बल्की पंजाब के अन्य दूसरे शहरों तक फैला के रखी थी।
जब यह ममला संगीन हो चुका है तब भारत सरकार की आंख खुली है। वैसे तो आंख बहुत पहले से खुली थी लेकिन सरकारें सोने का बहाना कर रही थीं। एक कहावत है कि सोये हुए को जगाया जा सकता है। झूठी नींद वालों को कभी भी नही जगाया जा सकता है। ऐसा ही भारत की शिथिल सरकारों ने किया है। मामले के अंजाम को नहीं भांप सकी और निरुपाय हाथ पे हाथ धरे बैठी रहीं। कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बना जिसके तहत अर्थव्यवस्था के इस दीमक का सफाया किया जा सके। और अब जब आर्थिक मंदी का हाहाकार मचा हुआ है तब हर तरफ फेक करेंसी...जाली नोट की चिल्लम-चिल्ला हो रही है।
वर्तमान परिदृश्य में हम अपने सभी पड़ोसी देशों पर ऐतबार नहीं कर सकते की वे आईएसआई द्वारा संचालित नकली नोटों के इस कारोबार पर लगाम लगाएंगे। क्य़ोंकि रह-रह कर बांग्लादेश जिस तरह से हमरी बातों को अनसुना करता आया है। जिस तरह से नेपाल का चीन राग थमने का नाम नहीं ले रहा, वैसे में स्पष्ट रवैया के गुंजाइश का सवाल ही नही उठता है और पाकिस्तान में स्थित इस कारोबार को बंद कराना तो एक कोरा सपना ही होगा। ऐसे में भारत को दूरगामी उपाय के बारे में सोचने की आवश्यक्ता है। वैसे अगर भारतीय प्रायद्वीप में सेम करेंसी की व्यवस्था लागू कर दी जाय जैसे यूरोप में यह व्यवस्था तो इस नकली नोटों से पार पाया जा सकता है। क्य़ोंकि अगर भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका में एक ही करेंसी होगी तो सभी साझा रूप से जाली नोटों के कारोबार को खत्म करने पर तत्पर हो जाएंगे। इसके लिए भारत को अपनी कूटनीति को मजबूत और निडर बनानी होगी। घूटने टेकने से काम नहीं चलेगा।
Tuesday, August 18, 2009
Wednesday, August 5, 2009
कहीं तो हूं...
नहीं अभी मैंने निश्चय नहीं किया है.. खैर अगर कहे हो तो दो चार अक्षर लिख ही देता हूं...। अर्से से मैं भी सोच रहा था कि कुछ लिखा जाय, शायग ब्लागिंग से मोह भंग हो गई थी. कंप्यूटर के की-बोर्ड की अपेक्षा मेरी कलम और डायरी अच्छी लग रही थी। शायद मैं ब्लागिंग का चरित्र भी उसी तरह बना रखा था.. जैसा कि आज से तीन साल पहले पत्रकारिता की थी। मुर्ख था....हां दोस्त, निहायत ही चु....किसम का आदमी था, जो भोथरी कलम और कपकपाई आवाज़ से इंकलाब लाने की सोचता था। खबरों के शॉपिंग मॉल से विरक्ति भाव ने ब्लॉग को संतुष्टि का माध्यम बनाना चाहा लेकिन पहले से चिन्हित अपेक्षा की रेखाओं तक न पहुंचना भी एक प्रकार से कष्टदायक ही रहा। जबकि सोच रखनी चाहिए थी मात्र अपनी भड़ासों को, अपने हास-परिहास को यहां पर लिख कर कुछ आनंनद बटोरना है। कुछ सुकून लेना है।
दोस्त एक लेखक की बात लिखते वक्त सदा याद आ जाती हैं कि 'किनारे पर बैठकर लहरों को गरियाने से क्या फायदा'। जब कभी भी कुछ लिखना चाहता हूं लगता है किनारों पर बैठ कर लहरों को गरिया रहा हूं। जबकि मन आतुर होता है कि उन लहरों पर खेलूं....अटखेलियां लूं। खूंखार लहरों को चुनौती दूं., शांत लहरों को मन के अंत: तक समाहित कर लूं। कुछ महीने पहले ही एक फिल्म भी आई थी...गुलाल। साहिल लुधियानवी की ही कलम जैसे आगे बढ़ गई थी...' ये शायर के फीके लबों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है। ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।'
दोस्त एक लेखक की बात लिखते वक्त सदा याद आ जाती हैं कि 'किनारे पर बैठकर लहरों को गरियाने से क्या फायदा'। जब कभी भी कुछ लिखना चाहता हूं लगता है किनारों पर बैठ कर लहरों को गरिया रहा हूं। जबकि मन आतुर होता है कि उन लहरों पर खेलूं....अटखेलियां लूं। खूंखार लहरों को चुनौती दूं., शांत लहरों को मन के अंत: तक समाहित कर लूं। कुछ महीने पहले ही एक फिल्म भी आई थी...गुलाल। साहिल लुधियानवी की ही कलम जैसे आगे बढ़ गई थी...' ये शायर के फीके लबों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है। ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।'
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