जानते हैं साहब, हम तो कुकुर हैं
जो हर महीना आपके दरवाजे पर
दस्तक दे देतें हैं...चंद नोटों के लिए।
ना.., बिल्कुल नहीं कहुंगा कि हम मेहनताना लेते हैं
क्योंकि मेहनताना आदमी का जायज़ हक है
ये जो नोट हमारे हाथ में है, उसे
मेहनताना कहकर मेहनत को गरियाना नहीं चाहते
अगर ये मेहनताना होता..., तो
अब तक बगावत के बिगुल बज चुके होते
आपकी खटिया खड़ी हो गई होती
लिहाजा मेहनताना के बजाय खुद को ज़लील करना बेहतर है
आदमी की कुंठा बड़ी ख़तरनाक होती है...।
जात पर आ जाए, तो सबका निस्तार कर देती है।
चाणक्य का नंदवंश के प्रति कुंठा ही थी...
गांधी का अंग्रेजों के प्रति कुंठा ही थी...
इनका अविजित साम्राज्य नेस्त-नाबूत हो गया।
हमारा क्या है...जैसा पहले ही जिक्र कर चुके हैं, कुकुर हैं...
आप ठुकरा देंगे..दूसरा दरवाजा खटखटाएंगे, फिर दुत्कार दिए जाएंगे
अगला चौखट ज़िंदाबाद...।।