Wednesday, December 24, 2008
हर दफा कुछ ऐसा ही
नेताओं के गुर्गे द्वारा किसी अधिकारी को मार दिया जाना यह कोई नई बात नही लेकिन इसका यह मतलब नही कि हम ऐसी घटनाओं के बार-बार साक्षी बने। हर दफे ऐसी घटनाएं अखबारों की सुर्खियां बने और चाय कि चुस्कियों में घुल जाएं। आज ही एक घटना सुबह-सुबह ही चौंका दी। खबर थी कि उत्तर-प्रदेश के ज़िला औरैया में नेताजी के गुंड़ों ने एक इंजीनियर की पीट-पीट कर हत्या कर दी। यह सारा वाकया उस इंजीनियर के घर पर ही हुआ। तब उस दौरान उसकी पत्नी ने खुद को बाथरुम में बंद करके जान बचाई और इस सारे मामले की गवाह बनी। यह घटना प्रकाश झा के फिल्मों से मेल खाती है लेकिन झा जी के फिल्मों का अंत बड़े ही खूबसरत तरीके से होता है और ऐसा करने वाले नेताओं को या तो हीरो मार देता है या फिर जनता दौड़ा-दौड़ा कर मारती है। यहां असल जिंदगी में तो लोग फिल्मी तरीके से जुल्म झेलते रहते हैं लेकिन यहां ना ही कोई हीरो होता है ना ही जनता फिल्मों के माफिक जागरुक होती है। बस यही वजह है कि बार-बार कभी सत्येद्र दूबे तो कभी मंजूनाथन के किस्से मीडिया में सूर्खियां बटोरते हैं और लाशों की राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञ उनके नाम पर स्मारक बनवा देते हैं ताकि चुनाव प्रचार के समय यहां आकर उन्हे दो शब्द बोलने का आधार मिले। लोग तो ऐसे खामोश रहते है जैसे ये कोई मामूली वाकया हो। वैसे हो भी क्यों ना.....हमेशा से दंबगों का अत्याचार देखते आए हैं, कभी खुद की तीमारदारी देखे नही, हमेशा से देखेते आएं है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। आम जन के लिए तो लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक मूल्य तो सिर्फ किताबी बातें ही हैं। रामराज्य की कल्पना के समान हैं। फिर काहें का उन्माद, फिर काहें का रोष। जो भी क्षोभ होता है वह चुनाव की जातिगत लड़ाई में छू-मंतर हो जाता है। फिर तो रणभेरी बजने की देरी होती है फिर तो न जाने कितने ही समाज के मुखियाओं की चांदी हो जाती है। बोली लगने लगती है, बाभन समाज का समर्थन ब्ला पार्टी को, यादव समाज का ब्ला पार्टी को, हरिजन समाज का ब्ला पार्टी को, भूमिहार समाज का ब्ला पार्टी को इत्यादि इत्यादि। तब लोग भूल जाते हैं कि पांच साल में टूटी सड़कों पर फ्लां रिश्तेदार की दुर्घटना हुई थी। भूल जाते हैं कि यही वो नेताजी है जो दुवार पर जाने पर एक गिलास पानी तक नही पूछते उल्टा बड़े होने का धौंस जमाते हैं, खास तौर पर पढ़ा लिखा समझदार इंसान भूल जाता है कि तालाब खुदवाने में कितना घपला हुआ था, नरेगा के अंतर्गत कितना पैसा गबन किए थे, इंदिरा आवास योजना नेता जी के नए गैराज की दरों दिवारों में सांसें लेती है। कुल मिलाकर जनता पुवाल की तरह है, फन से जलती है और तुरंत राख में तब्दील हो जाती हैं। अगर टीवी पर आक्रोश जाहीर करते लोगों पर गौर करें तो पाएंगे की अधिकांश के चेहरे हंसते नज़र आते हैं मानों ये भी कोई चुनावी जुलूस हो। कितना बेहायाई की तरह दांत चियारते हैं। भगत सिंह ने कहा था कि यह मूल्क आज़ाद होगा लेकिन लोग आज़ाद नही होंगे। क्योंकि तब भी राज करने वाले यही ज़मीदार होगें। खैर ज़मीदारी का तो अंत हो गया लेकिन उसी की संतान बाहुबलीयों ने कमान संभाल ली। मतलब आम जनता जहां थी वह वही की रह गई। लोगों ने कभी भी दूसरे नज़रिये से नही सोचा कि उनका शोषण किस कदर किया जा रहा है। 'ख़लील ज़िब्रान' की कुछ लाइने याद आ रही है कि "लोग कहते है कि कोई ग़ुलाम सो रहा हो तो उसे मत जगाओं शायद वो आज़ादी का सपना देख रहा हो, मैं कहता हूं कि उसे जगाओं और आज़ादी के बारे में बाताओ।" लेकिन शायद ज़िब्रान जी का कथन उन लोगों के लिए था जो शारीरिक और मानसिक तौर पर ग़ुलाम होते हैं, जिनके खून में ही ग़ुलामियत हो उनके लिए नहीं।
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